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प्राचीन मारत के कल्लात्मक विनोद

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हजारीप्रसाद हिवेदी

. राजकमल प्रकाशन

दिल्‍ली-६ पटना-६

(8) आचार्य हजारीप्रसाद दिवेदी तृतीय संस्करण हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर प्रा० लि०, वम्बई-४, द्वारा १६६३ में प्रकाशित एवं सिंघई प्रेस, जबलपुर, द्वारा मुद्रित और १६७० में राजकमल प्रकाशन प्रा० लि०, दिल्‍ली-६, द्वारा अधिगृहीत मूल्य : १०.००

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११ श्र १३ श्ड १५ १६ श्छ श्द्द १६ २० २१ २२ २३ र्ढ र्२ २६ २७ श्प

अनुक्रम

कलाध्मक विलासिताकी योग्यता ०० काल-सीमाका औचित्य ३४४ इस कालके साहित्यका प्रभाव

ऐहिकतापरक काव्य 3३७

कला -- महामायाका चिन्मय विलास कला--महामायाकी सम्मूर्तेत शक्ति कलाकी साधना

वात्स्यायनकी कलायें

नाट्य-शास्त्र

कलाओंकी प्राचीनता 5

कलाओंके आश्रयदाता रईस डर मुखप्रक्षालतल और दातून अनुलेपन केश-संस्कार अधर और नाखूनकी रंगाई ताम्बूल-सेवन रईसकी जाति रईस और राजा ब्राह्मणका कलासे सम्बन्ध ३५ स्तान-भोजन 288 भोजनोत्तर विनोद अन्त पुर अन्त:पुर की वृक्षवाटिका दोला विलास कम भवनदीधिका वृक्षदाटिका और क्रीड़ा-पर्वत बाग-बगीचों और सरोवरों से प्रेम अन्तःपुरका सुरुचिपूर्ण जीवन घिनोद के साथी पक्षी

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सुकुमार कलाओंका आश्रय... बाहरी प्रकोष्ठ सः

वीणा २५० अन्त.पुरका शयनकक्ष ५७ कल्पवलली भित्ति-चित्र 355 चित्र-कर्म रे चित्रगत चमत्कार 25 चित्रकलाकी श्रेष्ठता कर कुमारी और वधू डर लेखन-सामग्नी ब्ड्डे प्रस्तर-लेख जप स्वर्ण और रजत-पत्र हर वधूका शान्‍्त-शोभन रूप. ..« उत्सवमें देष-भूषा «० «७ अलंकार 2०० वच्त्र या हीरा

मोती या म॒क्‍ता ५2 हेम या सोना ०० मै रत्न और हेम के योग से बने हुए चार श्रेणी के अलंकार अंशुक या वस्त्र 2०5 माल्य ल्‍०४ मण्डन द्रव्य ब्ड्ड योजनामय अलूंकार का प्रकीर्ण अलंकार ४१३ वेश २३६ स्त्री संसारका सर्वेश्वेष्ठ रत्न है उत्सव और प्रेक्षागृह १5४ शुफायये और मन्दिर अनेन दर्शक

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लोकजीवन ही प्रधान कस [९ पारिवारिक उत्सव जे विवाहके अवसरके विनोद... समाज 58४ स्थायी रंगक्काला और सभा ... गणिका 35 अभिनेताओंकी समाज-मर्यादा- ताप्डव और लास्‍्य ४० अभिनय दल अभिनयके चार अंग कर नाटकर्के आरमनमें बट अभिनेंताश्रोंके विवाद हक ऋतसम्बन्धी उत्सव «४ संगीत बल मदनोत्सव 8 अशोकर्मे दोहद 2256 सुवसनन्‍्तक ०७० उद्यान-्यात्रा ४४6

वसनन्‍्तके अन्य उत्सव दरवारी लोगोंके मनोविनोंद काव्यजास्त्र विनोद

उक्ति-वंचि6त्य कंवियोंकी आपसो प्रतिस्पर्घा विद्वत्समार्में परिहात्त

कथा-आल्याथिका ३० बृहत्‌-कथा 0

प्राकृत काब्यक पृध्ठपोषक सातवाहन कथा-काव्यका मनोहर वायुमंड्ल

पच्चवद्ध

पच्चवद्ध कंथा

इच्द्र-जासल

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चूत और समाह्मय

मल्लविद्या

वैनोदिक शास्त्र

प्रकृतिकी सहायता सामाजिक और दाशंनिक पृष्ठभूमि

परिशिष्ट

ललित विस्तरकी कलासूची वात्स्थायनकी शुकनीतिसारकी प्रवन्ध-कोषकी

१2॥

44

१६६ १६८ १७० १७३ १७६

१८१ (८० १८६ १६१

प्राचीन भारतके कलात्मक विनोद

कलात्मक विलासिताकी योग्यता

प्राचीन भारतक कलात्मक वितोदोंकी चर्चा थोड़ेमें कर सकता संभव नहीं है प्राचीन भारत' बहुत व्यापक शब्द है इसका साहित्य हजारों वर्षोमें परिव्याप्त है श्रौर इसके इतिहासका पद-संचार लाखों वर्गमीलमें फैली एकाधिक मानव-मण्डलियोंक जीवन-विश्वासों और विचारोंके ऊपर चिह्नित है, इसलिये दो या तीन व्याख्यानोंमें हम उसके उस पहलूका सामान्य परिचय भी नहीं पा सकेंगें जिसे कला-विलास या कलात्मक विनोद कहा जा सकता है फिर इस देशके इतिहासका जितना अंश जाना जा सका हैँ उसकी अपेक्षा वह अंश कम महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना नहीं जाना जा सका | कभी-कभी तो वह अधिक महत्त्व- पूर्ण है। हमारे पास जो पुराना साहित्य उपलब्ध है उसका एक महत्त्वपूर्ण अंश वैरागी साधुश्रों द्वारा वैरागी साधुओंके लिये ही लिखा गया नाच-गानका स्थान उसमें है ही नहीं, फिर भी वह लोकविच्छिन्न नहीं है, इसीलिये किसी-न-किसी बहाने उसमें लोक-प्रचलित कलात्मक विनोदोंकी वात ञ्रा ही जाती है बौड़ों और जैनोंके विशाल साहित्यमें ऐसे उल्लेख नितान्त कम नहीं हैं

परन्तु इन विनोदोंका यथार्थ वर्णण लौकिक रसके उपस्थापक काब्यों, नाटकों, कथा-आख्यायिकायों और इसकी विवेचना करनेवाले ग्रंथोंमें ही मिलता है। दुर्भाग्यवश्ञ हमें इस श्रेणीका पुराना साहित्य बहुत कम मिला है इसमें तो कोई सन्‍्देह ही नहीं कि सन्‌ ईसवीके पूर्व इस प्रकारका साहित्य प्रचुर मात्रामें विद्यमान था | भरतके नाट्बच-शस्त्रमें, नृत्य, नाट्य आदिका जैसा सुसंबद्ध किरण है. है श्रौर नाट्यरूढ़ियोंकी जैसी सुविस्तृत सूची प्राप्त हैवह इस वातका पक्‍का प्रमाणेंह कि भरत मुनिको इस श्रेणीका बहुत विश्ञाल साहित्य ज्ञात था प्राचीनतर साहित्यसे इस वातका पर्याप्त प्रमाण भी मिल जाता है पर बह समूचा साहित्य केवल अनुमानका ही विपय रह गया है यद्यपि हम इस विपयका यथार्थ वर्णन खोजें तो सन्‌ ईसवीक कुछ सौ वर्ष पहलेसे लेकर कुछ सौ वर्ष बाद तकके

२]

साहित्यको प्रधान अवलंब बनाना पड़ेगा पाली-साहित्यसे तात्कालिक सामाजिक पृष्ठ-भूमिका श्रच्छा आभास मिलता हूँ, पर निश्चित रूपसे यह कहना कठिन ही है कि वे बुद्धक समकालीन हैँ ही उनका अन्तिम रूपसे सम्पादन बहुत बादमें हुआ था | यही कहानी जैन आगरमोंकी है जिनका संकलन और भी बादमें हुआ इनमें नईं बात आई ही नहीं होगी, यह जोर देकर नहीं कहा जा सकता इसलिये सन्‌ ईसवीके थोड़ा इधर-उधरसे आरम्भ करना ही ठीक जान पड़ता है फिर इसके ऐतिहासिक कारण भी है जिनके विषयमें अभी निवेदन "कर रहा हूँ इस दृष्टिसे देखिए तो इस पुस्तकका विवेच्य---कला--आपको सबसे - अधिक सामग्री देने योग्य ही मालूम होगा यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि विलासिता और कलात्मक विलासिता एक ही वस्तु नहीं है थोथी विलासितामें केवल भूख रहती है-वंगी बुभुक्षा पर कलात्मक विलसिता संयम चाहती है, शालीनता चाहती है, विवेक चाहती है सो, कलात्मक विलास किसी जातिके भाग्यमें सदा-सर्बदा नहीं जुटता उसके लिये ऐश्वर्य चाहिए, समृद्धि चाहिए, त्याग और भोगका सामथ्यं चाहिए और सबसे बढ़कर ऐसा पौरुष चाहिए जो सौन्दर्य और सुकुमारताकी रक्षा कर सके परन्तु इतना ही काफी नही है उस जातिमें जीवनके प्रति ऐसी एक दृष्टि सु- प्रतिष्ठित होनी चाहिए जिससे वह पशु-सुलभ इर्द्रिय-वृत्तिकोऔर बाह्य पदार्थो- को ही समस्त सुखोंका कारण न॒समझनेमें प्रवीण हो चुकी हो, उस जातिकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परंपरा बड़ी और उदार होनी चाहिए और उसमें एक ऐसा कौलीन्य-गरव होना चाहिए जो आझत्म-मर्यादाको समस्त दुनियाकी सुख- स्‌ विधाओंसे श्रेष्ठ समझता हो, और जीवनके किसी भी क्षेत्रमें असुन्दरको बर्दाश्त कर सकता हो जो जाति सुन्दरकी रक्षा और सम्मान करना नहीं जानती वह विलासी भले ही हो ले, पर कलात्मक-विलास उसके भाग्यमें नहीं बदा होता भारतवर्षमें एक ऐसा समय बीता है जब इस देशक निवासियोंके प्रत्येक कणमें जीवन था, पौरुष था, कौलीन्य-गर्वे था और सुन्दरके रक्षण-पोषण और सम्भान- का सामथ्य था उस समय उन्होंने बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापित किए थे, संधि श्रौर घिग्रहके द्वारा समूचे ज्ञात जगत्‌की सम्यताका नियन्त्रण किया था और वाणिज्य और यात्राग्रोंके द्वारा अपनेको समस्त सभ्य जगत्‌का सिरमौर बना लिया४ था। उस समय इस देदामें एक ऐसी समृद्ध नागरिक सम्यता उत्पन्न हुई ,धी/ जो सौन्दर्यकी सृष्टि, रक्षण और सम्मानमें अपनी उपसा स्वयं ही थी.भ' उस समयक काव्य-नाटक, आख्यान, झाख्यायिका, चित्र, मूर्ति, प्रासाद झ्रादिको देखनेसे आजका अभागा भारतीय केवल विस्मय-विमुग्ध होकर देखता रह जाता हूं उस युगकी प्रत्येक वस्त॒में छनन्‍्द है, राग है और रस हैं उस युगम भारतवासियोंने

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जीनेकी कला आविप्कार की थी यह काल वहुत दिनोंतक जीता रहा है, पर मैने अपने वक्‍तव्यके लिये गुप्तकालके कुछ सौ वर्ष पूर्वसे लेकर कुछ सौ वर्ष बाद तकके साहित्यको ही प्रधान रूपसे उपजीव्य मान लिया है इस प्रकार हमारा काल सीमित हो गया है

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काल-सीसाका श्रौचित्य

पूछा जा सकता हैं कि हमारे इस सीमा-निर्धारणका औचित्य क्या है ? हजारों वर्षकी विपुल साहित्य-साधनाको छोड़कर मैने इन आठ-दस सौ वर्षोकी साहित्यिक साधनाको ही क्यों आलोचनाके लिये चुना है ?

कारण वताता हूँ सन्‌ ईंसवीकी पहली शताब्दीमेों मथुराके कृषाण सम्राटोंके शासनसम्वन्धी ऐतिहासिक चिह्नोंका मिलना एकाएक बन्द हो जाता है। इसके वादक दो-तीन सौ वर्षोका काल भारतीय इतिहासका अंधकार- युग कहा जाता है आए दिल विद्वान्‌ इस युगके इतिहास सम्बन्धी नये-सये सिद्धांत उपस्थित करते रहते हैँ, श्रोर पुराने सिद्धांतोंका खण्डन करते रहते है अ्रवतक इस कालका इतिहास लिखने योग्य पर्याप्त सामग्री नही उपलब्ध हुईं है किन्तु सन्‌ २२० ई० में मगधका प्रसिद्ध पाटलिपुत्र ४०० वर्षोकी गाढ़ निद्राके बाद अचानक जाग उठता हैं इसी वर्ष चन्द्रगुप्त नामधारी एक साधारण राज- कुमार, जिसका विवाह सुप्रसिद्ध लिब्छवि-वंदमें हुआ था श्रौर इसीलिये जिसकी ताकत बढ़ गई थी, अचानक प्रवल पराक्रमसे उत्तर भारतमें स्थित विदेशियोंको उखाड़ फेंकता है उसके पुत्र समुद्रगुप्तने, जो अपने योग्य पिताका योग्य पृत्र था, इस उन्मूलन-कार्यको और भी आगे बढ़ाया और उसके योग्यतर प्रत्तापी पृत्र द्वितीय चन्द्रगुप्त या सुप्रसिद्ध विक्रमादित्यने अपने रास्तेमें एक भी काँटा नही रहने दिया उसका सुव्यवस्थित साम्राज्य ब्रह्मदेशसे पश्चिम समुद्रतक और हिमालयसे न्मंदातक फैला हुआ्ला था गुप्त सम्राटोंके इस सुदृढ़ साम्राज्यने भार-

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तीय जनसमूहमें नवीन राष्ट्रीयता और विद्याप्रेमका सव््चार किया इस युगमें राजकाय॑से लेकर समाज, धर्म और साहित्य तकमें एक अद्भुत क्रान्तिका परिचय मिलता है। ब्राह्मण धर्म और संस्कृत भाषा एकदम नवीन प्राण लेकर जाग उठे, पुराने क्षत्रपोंद्वारा व्यवहृत प्रत्येक शब्द मानो उद्देश्यके साथ बहिप्कार कर दिए गए क्रुषाणोंद्वारा समथित गान्धार-शैलीकी कला एकाएक बन्द हो गई और सम्पूर्णतः स्वदेशी मूति-शिल्प और वास्तु-शिल्पकी प्रतिष्ठा हुईं राजकीय पदोंके नाम नये सिरेसे एकदम बदल दिए गए समाज और जातिकी व्यवस्थामें भी परिवतेन किया गया था-इस बातका सबूत मिल जाता हूँ। सारा उत्तरी भारत जैसे एक नया जीवन लेकर नई उमंगके साथ प्रकट हुआ इस कालसे भारतीय चिन्ता-ख्रोत एकदम नई दिशाकी ओर मुड़ता है कला और साहित्यकी चर्चा करनेवाला कोई भी व्यक्ति इस नये घुमावकी उपेक्षा नही कर सकता जिन दो-तीन सौ वर्षोकी ओर शुरूमें इशारा किया गया है, उनमें भारत-वर्षमें शायद विदेशी जातियोंके एकाधिक आक्रमण हुए थे, प्रजा संत्रस्त थी, नगरियाँ विध्वस्त हो गई थी, जनपद आगकी लपटोंके शिकार हुए थे कालिदासने अ्यो- ध्याकी दारुण दीनावस्था दिखानेक बहाने मानो गुप्त सम्राटोंके पूर्ववर्ती कालके समृद्ध नागरिकोंकी जो दु्देशा हुई थी उसका अत्यन्त हृदयविदारी चित्र खीचा है शक्तिशाली राजाके अभावमें नगरियोंकी अ्संख्य अट्ट/लिकाये भगत, जीर्ण और पतित हो चुकी थीं, उनके प्राचीर गिर च्‌ के थे, दिनानतकालीन प्रचण्ड आँधी- से छिन्न-भिन्न मेघपटलकी भाँति वे श्रीहीन हो गए थे नांगरिकोंक जिन राज- पथोंपर घनी रातमें भी निर्भय विचरण करनेवाली अभिसारिका्रोंके नृपुर- शिजनका स्वर सुनाई देता था वे राजपथ ख्ुगालोंके विकट नादसे भयद्भूर हो उठे थे। जिन पृष्करिणियोंमें जलक्नीडा-कालीन मुदज्ञोंकी मधुर ध्वन्ति उठा करती थी उनमें जंगली भैसे लोटा करते थे और अपने श्ृज्भ-प्रहारसे उन्हें गैदला कर रहे थे। मुदज्जु्के तालपर नाचनेके श्रभ्यस्त सुवर्णयष्टिपर विश्राम करनेवाले ऋरड़ा- सयूर अब जज्जली हो चुके थे, उनके मुलायम बहँभार दावाग्निसे दग्ध हो चुके थे। अट्टालिकाश्रोंकी जिन सीढ़ियोंपर रमणियोंके सराग-पद संचरण करते थे, उनपर व्याघ्रोंके लह-लुहान पद दौड़ा करते थे, बड़े-बड़े राजकीय हाथी जो पद्मवनसें अवतीणे होकर मृणालनालोंड्ारा करेणुओंकी सम्वर्धना किया करते थे, सिहोंसे आक्रांत हो रहे थे। सौधस्तम्भोंपर लकड़ीकी बनी स्त्री-मूतियोंका रंग धूसर हो गया था और उनपर साँपोंकी लटकती हुईं केंचुली ही उत्तरीयका कार्य कर रही थी हम्योमिंके श्रमल-धवल प्र।चीर काले पड़ गए थे, दीवारोंके फाँकमेंसे तृगावलियाँ निकल पड़ी थीं, चन्द्रकिरणें भी उन्हें पूर्ववत उद्भासित नहीं कर सकती थीं जिन उद्यान-लताओंसे विलासिनियाँ गति

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सदय भावसे पुष्प चयन करती थीं उन्हींको वानरोंने बुरी तरहसे छिन्न-भिन्न कर डाला था; अट्टालिकाओ्रोंके गवाक्ष रातमें तो मांगल्य प्रदीपसे और न॒दिलमें गृहलक्ष्मियोंकी मुखकांतिसे ही उद्भधासित हो रहे थे, मानों उनकी लज्जा ढकनेके लिये ही मकड़ियोंने उनपर जाला तान दिया था ! नदियोंके सैकतोंपर पूजन- सामग्री नहीं पड़ती थी, स्नानकी चहल-पहल जाती रही थी, उपान्त देशके वेतस- लता कुज्ज सूने पड़ गए थे (रघुवंश १६-११-२१) ऐसे ही विध्वस्त भारत- वर्षको गुप्त-सम्राटोंने नया जीवन दिया कालिदासके ही शब्दोंमें कहा जाय तो सम्राटके नियुक्त शिल्पियोंने प्रचुर उपकरणोंसे उस दुर्देकश्षाग्रस्त नगरीको इस प्रकार नयी बना दिया जैसे निदाघ-ग्लपित धरित्रिको प्रचुर जल-वर्षणसे मेंघगण ! तां शिल्पिसंघा: प्रभुणा नियुक्‍तास्तथागतां संभृतसाधनत्वातू पुर नवीचक्र्रपां विसर्गात्‌ मेंघा निदाघग्लपितामिवोर्वीम्‌ ।। (रघुवंश, १६-३८) गुप्त सम्राठोंके इस पराक्रमकों भारतीय जनताने भक्ति और प्रेमसे देखा ।शताव्दियाँ और सहस्नाव्दक वीत गये पर आज भी भारतीय जीवनमें गुप्त सम्राट घुले हुए हैं कंवल इसलिये नहीं कि विक्रमादित्य और कालिदासकी कहानियाँ भारतीय लोक-जीवनका अविच्छेद्य अंग वन गई है, बल्कि इसलिये कि आजके भारतीय धर्म, समाज, आचार-विचार, क्रिया-काण्ड, आदि में सर्वत्र गुप्तकालीन साहित्यकी श्रमिट छप है जो पुराण और स्मृतियाँ तथा शास्त्र निस्संदिग्ध रूपसे आज प्रमाण माने जाते है वे अन्तिम तौरपर गुप्त-कालमें रचित हुए थे, वे झ्राज भी भारतव्षका चित्त हरण किए हुए हैं, जो शास्त्र उन दिनों प्रतिष्ठित हुए थे वे श्राज भी भारतीय चिन्ता स्रोतको बहुत कुछ गति दे रहे हैं। आज गुप्तकालकं प्‌ व॑वर्ती शास्त्र और साहित्यको भारतवर्ष केवल श्रद्धा और भवक्तिसे पूजा भर करता हूँ, व्यवहारके लिये उसने इस कालके निर्धारित ग्रन्थोंको ही स्वीकार किया है गुप्त-युगर्के बाद भारतीय मनीषाकी मौलिकता भोथी हो गई टीकाओों और निवन्धोंका युग शुरू हो गया टीकाश्नोंकी टीका और उसकी भी टीका, इस प्रकार मूल ग्रंथकी टीकाओ्रोंकी छ--छः आठ-आएठ पृश्ततक चलती रहीं | श्राज जब हम किसी विपयकी आलोचना करते समय हमारे यहाँ” के शास्त्रोंकी दुहाई देते है, तो अधिकतर इसी कालके बने ग्रंथोंकी ओर इशारा करते हैं यद्यपि गृप्त-सम्राटोंका प्रवल पराक्रम छठी शताब्दीमें ढल पड़ा था, पर साहित्यके क्षेत्रमें उस यूगके स्थापित आद्शोका प्रभाव किसी-न-किसी रूपमें ईसाकी नौवीं शताव्दीतक चलता रहा मोदे तौरपर इस काल तकको हम गुप्त-काल ही कहें जायेंगे

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इस कालके साहित्यका प्रभाव

सन्‌ १८८३ ई० में मेक्समूलरने अपना वह प्रसिद्ध मत उपस्थित किया था जिसमें कहा गया था कि यवनों, पारथियनों और शकों आदिके द्वारा उत्तर- पश्चिम भारतपर बारबार आक्रमण होते रहनेके कारण कुछ कालके लिये संस्कृत- में साहित्य बनना बन्द हो गया था कालिदासके यूगसे, नये सिरेसे संस्कृत भाषाकी पृनः प्रतिष्ठा हुई ओर उसमें एक अभिनव ऐहिकतापरक (सेक्यूलर) स्वर सुनाई देने लगा (इण्डिया, १८८३ पृ० १८१ ) यह मत बहुत दिनोंतक विद्वन्मण्डलीमें समादृत रहा, पर श्रब नही माना जाता फिर भी, जैसा कि डाक्टर कीथने कहा हैँ, यह इस रूपमें श्रब भी जी रहा है कि उक्त पुनः प्रतिष्ठाके युग पहलेतक संस्कृत भाषाके ऐहिकतापरक भावोंके लिये बहुत कम अयुक्त होती थी ऐसे भावोंका प्रधान वाहक प्राकृत भाषा थी प्राकृतकी ही पुस्तकें बादमें चलकर ब्राह्मणों द्वारा संस्कृतमें अनूदित हुई ( हिस्द्री आफ संस्कृत लिटरेचर १८२८, पृ० ३९ ) | स्वयं कीथ साहब इस मतको नहीं मानते उन्होंने वैदिक साहित्यके प्रमाणोंसे यह सिद्ध कर दिखानेका प्रयत्न किया है कि ऐहिकता-परक काव्यका बीज बहुत प्राचीन कालकं संस्कृत साहित्यमें भी वर्तमान था राजाशओंकी प्रशंसा या स्तुति गानेवाले कवि उन दिनों भी थे, और इन स्तुति-सम्बन्धी गानोंको जो अधिकाधिक परिमारजित रूप देनेकी चेप्टा की गई होगी, इस कल्पनामें विल्कूल ही अतिरंजना नहीं है परन्तु संस्कृतर्में ऐेहिकतापरक रचना होती रही हो था नही, त्तिविवाद बात यह है कि सत्‌ ईसवीके आसपास ऐहिकतापरक रचना- औोंका बहुत प्राचुयें हो गया था। इनका आरम्भ भी संभवतः प्राकृतसे हुआ था इस प्रकारकी रचनाओ्रोंका सबसे प्राचीन और साथ ही सबसे प्रौढ़ सद्धुलन 'हाल' की सत्तसईसमें बताया जाता है इस ग्रंथका काल कुछ लोग सन्‌ ईसवीके आसपास भानते और कुछ लोग चार-पाँच सौ वर्ष बाद कुछ पण्डितों- का मत है कि हालकी सत्तसईमें जो ऐहिकतापरक रचनायें हैँ उनके भावीका प्रवेश भारतीय साहित्य्सें किसी विजातीय मूलसे हुआ है यह मूल आभीरों या

[७ अहीरोंकी लोक-याथायें हूँ यहाँ इंस विषयपर विस्तारप्‌र्वक विचार नहीं - किया जा सकता, क्योंकि यह हमारे वक्‍्तव्यक बाहर चला जाता है हमने अपनी पुस्तक हिन्दी साहित्यकी भूमिका' में इस प्रश्नपर कुछ ज्यादा विस्तारक साथ विचार किया हैँ यहाँ प्रकृत इतना ही है कि गृप्त-सम्राटोंकी छत्रच्छायामें एका- एक नवीन अज्ञातपूर्व स्फूर्तिका परिचय मिलता है

ऐहिकता-परक काव्य

यद्यपि वैदिक साहित्यमें गद्य-पद्य्में लिखी हुईं कहानियोंकी कमी नहीं है, पर जिसे हम अलंछृत काव्य कहते है, जिसका प्रधान उद्देश्य रस-सृप्टि है, निश्चित रूपसे उसका बहुत प्रचार गुप्त सम्र/टोंकी छत्रछायामें ही हुआ यद्यपि यह निरिच्ित हूँ कि जिस रूपमें सुविकसित गद्यका प्रचार इस युगमें दिखाई देता है उस रूपको प्राप्त होनेमें उसे कई शत्ताध्दियाँ लग गई होंगी सौभाग्यवश्ञ हमारे पास कुछ ऐसी प्रशस्तियाँ प्र।प्त है जिनपरसे अलंक्वत गद्यके प्राचीन अस्तित्व- में कोई संदेह नहीं रह जाता गिरनारमें महाक्षत्रप रुद्रदामा ( साध।रणतः 'रद्वदामन्‌ रूपमें परिचित ) का खुदवाया हुआ जो लेख मिला है, उससे निस्सं- दिग्व हुपसे प्रमाणित होता है कि सन्‌ १५० ई७ के पूर्व संस्क्ृतमें सुन्दर गद्यकाव्य लिखें जाते थे यह सारा लेख गद्यकाव्यका एक नमूना है इसमें महाक्षत्रपने अपनेको * स्फुट-लघु-मव्‌ र-चित्र-कान्त-शब्द-समयोद्यरालंकृत-गद्य-पद्म ' का सर्मन्न वताया हूँ, जिससे अ्रलंकृत गद्योंके ही नहों, अलंकार श्ञास्त्रके अस्तित्वका भी प्रमाण पाया जाता हैँ यह गद्यकाव्य क्या थे, यह तो हमें नहीं मालूम, पर उनकी रचना भ्रौढ़ और गुम्फ आकर्षक होते होंगे, इस विषयमें सन्‍्देहकी जगह नहीं हूँ सम्राट समूद्रंगुप्तने प्रयायके स्तम्भपर हरिषेश कवि द्वारा रचित जो * प्रशस्ति खुदवाई थी वह एक दूसरा सवृत है हरिपेणने इस प्रशस्तिको सम्भव: सन्‌ ५३० ई० में लिखा होगा इसमें गद्य और पद्य दोनोंका समावेश है और :

दा. रचनामें काव्यके सभी गूण उपस्थित है। सुवन्धू और बाणने अपने रोमांसोंके लिये जिस जातिका गद्य लिखा है, इस प्रशस्तिका गद्य उसी जातिका है हरिषेणके इस काव्यसे निश्चित झूपसे प्रमाणित होता है कि इसके पहले भी सरस पद्य और गद्यकाव्यका अस्तित्व था 4

भरतके नाटब-शास्त्र, नन्दिकेश्वरके अभिनयदर्पण, वात्स्थायनके कामसूत्र, भासके अनेक नाटक, कौटिल्यके श्रर्थशास्त्र आदि महत्वपूर्ण प्रंथोंके प्रकाशन और झालोचनक बाद इस वातर्मं अब किसीको सनन्‍्देह नहीं रह गया है कि सन्‌ ईसवीके आसपास भारतीय-जनताक पास एऐेंहिकतापरक सरस साहित्यकी कमी नहीं थी अ्रव शायद ही कोई संस्क्ृत-वेत्ता ऊपरकी अटकल- पच्चू वातोंको महत्त्व देता हो परन्तु फिर भी यह सत्य है कि उस विशाल आऔर महान्‌ साहित्य का एक अंशमात्र ही हमें मिल सका है और अधिकतर हमें परवर्ती कालके ग्रंथोंका ही ग्राश्नय लेना पड़ता है

इसलिये इस वकक्‍तव्यको मैने जो गुप्त-साम्राज्यकें कुछ इधर-उधरके समयतक सीमित रखा है वह बहुत अनुचित नही है मैं उसके पूर्व और परचातृ- के साहित्यसे भी कभी-कभी साधन जुटानेका प्रयास करूँगा, पर प्रधान उपजीव्य इस कालकीे साहित्यको मानूँगा यह तो कहना ही व्यर्थ है कि इस सी मित कालका भी पूरा परिचय मैं नहीं दे सकूगा आपका दिया हुआ समय और मेरी अल्प जानकारी दोनों ही ऐसे अंकुश है जो मुझे इधर उधर नहीं भटकलने देंगे

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कला--महामायाका चिन्मय विलास

कलात्मक आमोदोंकी चर्चा करनेके पहले यह जान रखना आवश्यक है कि इन आचरणोंके तीन अत्यन्त स्पष्ट पहलू ह- (१) उनके पीछेका तत्त्ववाद; (२) उनका कल्पनात्मक विस्तार और (३) उनकी ऐतिहासिक परम्परा मत प्य-समाजमें साम्राजिक रूपसे प्रचलित प्रत्येक आचरणके पीछे एक प्रंकारका

[६ 5 # के जाति 3. निदक] पर अर ९९०... क। अनजानमें ७. दादानिक तत्त्ववाद हुआ करता है कभी-कभी जाति उस तत्त्वकों अ्रवदजान

स्वीकार किए रहती हूँ और कभी-कभी जानबूझकर जो वातें अनजानमें

स्वाह्नत हुई हू सामाजिक रूढ़ियोंक रूपन चलता रहता हूं, परन्त्‌ जातिकी ऐतिहासक परन्पराके अध्ययनसे स्पप्ट ही पता चलता हूँ कि वह किस कारण प्रचलित हुआ था इस प्रकार प्रथम और तृतोब पहलू आपाततः विरुद्ध दिखने- पर भी जातिकी युचिन्तित तत्त्व-विद्यापर आश्चित होते हैं दूसरा पहलू इन आचरणोंकी याद अनुभूतिवज्ञ प्रकट किया हुआ हादिक उल्लास हैं उसमें कल्पनाका खूब हाथ होता हूँ परन्तु वह चूंकि हृदयसे सीधे निकला हुआ होता इसलिए वह उस जातिकी उस विद्येप प्रवृत्तिको समझानेमें अधिक सहायक 7 हैं जिसका आश्रय पाकर वह आवन्दोपभोग करती हैँ ! इस पुस्तकमें इसी प्रवत्तिकों सामने रखनेका प्रयत्न किया गया हँ |

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सच्चिदानन्दस्वहूप महाशिवकी झ्ादि सिसक्षा ही शक्तिके रूपमें वर्त-

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मान है। प्रलयकालमें जब महाशिव निप्क्रिय रहते हैं तव समस्त जगत्मपञ्च॒को आत्मसात्‌ करके महामाया विराजती रहती है। जब शिवको लीलाके प्रयोजनकी अनुभूति होती हैँ तो फिर यही महाशक्तिरूपा महामाया जगतृको प्रपंचित करती है। शिवकी लीलासखी होनेके कारण ही उन्हें ललिता कहते हैं यह लोक-रचना उनकी कीड़ा है-इसमें उन्हें आवन्द आता हैं; चित्मय शिव उनके प्रिय सला हैं- ऋड्ञाविनोदक साथी हें; सदानन्द उनका आा हार ह-आनन्‍्द हा उन्‍नकं एकमान भोग्य है; और सद्भक्तोंका पवित्र हृदय ही उत्तकी वास भूमि है। ललिता स्तवराज-में कहा हैं :

कीड़ा ते लोकरचना सखा ते चिन्मयः शिव:

आहारल्ते तदानन्दों वासस्ते हृदयं सताम्‌ ॥॥ ललिता सहस़्ननामर्मं इन्हें चित्कला, ओआनन्‍दकलिका', प्रेमरूपा', 'प्रियंकरी,, कलानिधि,, काव्यकला, 'रसज्ञा, रसशेवधि' कहकर स्तुति की गई है। जहाँ कहीं मनुप्य-चित्तमें सौन्दर्यके प्रति श्राकषण है, सौन्दर्य-रचनाकी प्रवृत्ति है, सौनन्‍्दर्यक आस्वादनका रस है-वहाँ महामायाका यही रूप वरतंमान रहता हैँ, इसलिए सौन्दर्यके प्रति आकर्पणसे मनुप्यके चित्तमें परमशिवकी आदि- कीडेप्सा ही मूतिमान हो उठती है, वह प्रकारान्तरसे महाशक्तिके ललिता-हपकी ही पूजा करता है ललिता, कला और आननन्‍्दकी निधि हैं, वे ही समस्त प्रेरणा- ओके रूपमें विराजती है

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कला--महामायाकी सस्मू्तेनद्वक्ति

शैव सिद्धान्तमें कलाका प्रयोग मायाक कंचुकक रूपमें भी हुआ है यह * कलाका स्थूलतर रूप है यह शिवके रूपमें, रेखामें, मूर्तभ।व प्रकाश करनेवाली मानसी शक्ति है-व्यक्तिमें नही समप्टिमें सो, आगमों और तन्‍्त्रोंमें कलाका दाश॑निक अर्थमें भी प्रयोग हुआ है इस प्रयोगको समझनेपर आगेकी विवरणी ज्यादा स्पष्ट रूपसे समझमें आएगी कला मायाके पाँच कंचुकों या आवरणों- मेंसे एक कंचुक या आवरण होती है काल नियति-राग-विद्या-कला ये मायाके पाँच कंचुक हैँ इन्हींसे शिवरूप व्यापक चैतन्य आवृत्त होकर अपनेकी जीवात्मा समझने लगता है इन पाँच कंचुकोंसे आवृत्त होनेके पहले वह अपने बास्तविक स्वरूपको समझता रहता है उसका वास्तविक स्वरूप क्या हैं ?- नित्यत्व-व्यापकत्व-पूर्णत्व-सर्वज्ञत्व और सर्वेकतृत्व उसके सहज धर्म है श्र्थात्‌ वह सर्व कालमें और सर्व देशमें व्याप्त है, वह अपने आपनें परिपूर्ण है, वह ज्ञान- स्वरूप है और सब कुछ करनेका सामर्थ्य रखता है मायासे आच्छादित होनेके बाद वह भूल जाता है कि वह नित्य हूँ, यही मायाका प्रथम आवरण यथा कचुक है। इसका दाशैनिक नाम काल है जो नित्य है उर्से कालका अनुभव नहीं होता, काल तो सीमाबद्ध व्यक्षित ही अनुभव करता हूँ इसी प्रकार जो सर्वे देशमें है, वह अपनेको नियत देशर्में स्थित एकदेशी माचने लगता हूँ, यह मायाका दूसरा कंचक या आवरण है इसका श्ञास्त्रीय नाम नियति है नियति अर्थात्‌ निश्चित देझमें श्रवस्थान फिर जो पूर्ण था वह अपन॑ंम अपूर्णता अनुभव करन॑- लगता है, अपनेको कुछ पानेक लिये उत्सुक बना देता है, उसे जिस कुछ का अभाव खुटकता उसके प्रति राग होता है- यह मायाका तीसरा कंचुक है जो सर्वज्ञ है वह अपनेको अल्पज्ञ मानने लगता है ! उसे कोई सीमित वस्तुके ज्ञान भाप्त करनेकी उत्सुकता अभिभूत कर लेती है यह ज्ञानका कल्पित अभाव ही उसे छोटी-मोटी जानकारियोंकी ओर आऊहृप्ट करता हैं यही विद्या है, यह माया- का चौथा कंचुक है। फिर, जो सब कुछ कर सकनेवाला होता हैँ वह भूल जाता

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कलाकी साधना

प्रतच्ीन भारतका रईस केवल दूसरोंसे सेवा करानेमें ही जीवनकी साथ्थ- कता नहीं समझता था, वह स्वयं कलाओझ्ोंका जानकार होता था नागरकोंको खास-खास कलाओंका अभ्यास कराया जाता था केवल शारीरिक श्रनुरंजन ही' कलाका विषय था, मानसिक और बौद्धिक विकासका ध्यान पूरी मात्रासें रखा जाता था। उन दिनों किसी पुरुषको राजसभा और सहृदय-गोप्टियोंमें प्रवेश पा सकनेके लिये कलाओंकी जानकारी आवश्यक होती थी, उसे अपनेको गोष्ठी-विहारका अधिकारी सिद्ध करना होता था कादम्बरीमें वैशम्पायन नामक तोतेको जब चाण्डाल-कन्या राजा शूद्रककी सभामें ले गई तो उसके साथी- ने उस तोतेमें उन सभी गुणोंका होना बताया था जो किसी पुरुषको राजसभामें प्रवेश पानेके योग्य प्रमाणित कर सकते थे उसने कहा था (कथामुख) कि यह तोता सभी श्ास्त्रार्थोको जानता है, राजनीतिकें प्रयोगमें कुशल है, गान और संगीत-शास्त्रकी बाईस श्रुतियोंका जानकार है, काव्य-नाटक आख्यायिका- आख्यानक आदि विविध सुभाषितोंका मर्मज्ञ भी है और कर्ता भी है, परिहासा- लापमें चतुर है, वीणा, वेण्‌ , मुरज आदि वाद्योंका अतुलनीय श्रोता है, नृत्य प्रयोगके देखनेमें निपुण है, चित्रक्ममें प्रवीण है, द्यृत-व्यापारमें प्रमल्‍भ है, प्रणय-कलहमें कोप करनेवाली मानवती प्रियाको प्रसन्न करनेमें उस्ताद है, हाथी, घोड़ा, पुरुष और स्त्रीके लक्षणोंकों पहचानता हैं कादम्बरीमें ही आगे चलकर चन्द्रापीड़- को सिखाई गई कलाओ्ोंकी विस्तृत सूची दी हुई है. (दे० परिशिष्ट) इसमें व्याकरण, गणित और ज्योतिष भी हैं, गान, वाद्य और नृत्य भी हैं, तेरना, कूदना आदि व्यायाम भी हैं, लिपियों और भाषाओरोंका ज्ञान भी है, काव्य नाटक और इन्द्रजाल भी हूँ और बढ़ई तथा सुनारक कास भी हैं वात्स्यायनके कामसूत्रमें कुछ और ही प्रकारकी कला-विद्याओ्रोंकी चर्चा है बौद्ध ग्रस्थोंमें 5४ प्रकारकी कलाओंका उल्लेख है, और जैन ग्रन्थोंमें ७२ प्रकारकी कलाओोंका कुछ प्रन्धोंमें दी हुईं सूचियाँ इस ग्रन्थके अन्तमें संकलित कर दी गई हैं

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गेंके बिक ७९, ९७,

परन्तु इन सूत्ियोंके देखनेसे ही यह स्पष्ट हो जायमा कि कलाकी संख्या कोई सीमित नहीं हैं सभी प्रकारकी सुकुमार और बुद्धिमूलक क्रियाएँ कला कहलाती थीं कलाके नामपर कभी कभी लोगोंसे ऐसा काम करनेको कहा गया है कि आश्चर्य होता है एक अपेक्षाकृत परवर्ती ग्रन्थमें इस सम्बन्धरमें एक मनोरंजक कहानी दी हुईं है काशीक राजा जयन्तचन्द्रकी एक रखेली रानी सूहव देवी थी कुछ दिनों तक उसका दरबारियोंपर निरंकुश शासन थ। कहते हैँ उसने एक बार श्री हर्ष कविसे पूछा कि तुम क्या हो ? कविने जवाब दिया कि में कला-सर्वज्ञ हूँ रानीने कहा-अगर तुम सचमुच कला-सववज्ञ हो तो मेरे पैरोंमें जूता पहनाओ मनस्‍्वी ब्राह्मण-कवि उस रानीको घृणाकी दृष्टि से देखता था, पर कलासवेज्ञता तो दिखानी ही थी दूसरे दिन चमारका वेश धारण करके कविने रानीको जूता पहनाया और फिरसे ब्राह्मण वेश धारण ही नहीं किया, वल्कि संन्यासी होकर गंगातटपर प्रस्थान किया ([प्रबन्ध-कोश पग्र०. ५७ ) ]

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वात्स्थायनकी कलाएँ

ईसवी सनके आसपास ऐतिहासिक जीवनको आननन्‍्दमय बनानेवाले जो शास्त्र लिखे गए उनमें वात्स्यायनका कामसूत्र बहुत महत्वपूर्ण है इस प्रन्थ- से पता चलता है कि बहुत पुराने जमानेसे ही इस विषयपर बहुत बड़ा साहित्य उपलब्ध था। कामसूत्रके शारंभमें ही लिखा है कि प्रजापतिने प्रजाञ्नोंको सृष्टि करके उनकी स्थितिके लिए धर्म, अर्थ और काम नामक त्रिवर्गेके साधनके लिये एक लाख अध्यायोंका कोई ग्रन्थ लिखा था फिर प्रत्येक वर्गपर मनु, बृहस्पति और महादेवानुचर नंदीने अलग-अलग ग्रन्थ लिखे, नन्‍्दीका ग्न्थ एक सहस्र अध्यायोंका था उसे औद्वालकि रवेतकेतुने पाँच सौ अध्यायोंमें संक्षिप्त किया और उसे भी वाश्नव्य पांचालने और छोटा करके डेढ़ सौ अध्यायोंमें संक्षिप्त

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किया ॥। इस्तमें सात अधिकरण थें-साधारण, सांप्रयोगिक, भार्याधिकारिक, पारदारिक, वैशिक और झपनिषदिक इन सातोंको भिन्न-भिन्न आचायोने अलगसे संपादित किया वात्स्यायनका ग्रंथ इनका सार है। इसमें नागरक- जनोंके जानने योग्य कलाओंकी सूची है ( परिशिष्टमें देखिए ), और पांचा- लकी व॒ताई हुई कलाएँ भी दी गई है

वात्स्यायनकी गिनाई हुई कलाओंमें लगभग एक तिहाई तो विशुद्ध साहित्यिक हैँ बाकीमें कुछ नायक नायिकाओोंकी विलास-क्रीड़ामें सहायक हैँ, कुछ मनोविनोदमें साधक हैं और कुछ ऐसी भी हैं जिन्हें दैनिक प्रयोजनोंका पूरक कहा जा सकता है गाना, बजाना, चृत्य, चित्रकारी, प्रियाके कपोल और ललाटकी शोभा बढ़ा सकनेवाले भोजपनत्रके काठे हुए पत्रोंकी रचना करना (विशेषकच्छेद्य ), फर्शपर विविध रंगोंके पुष्पों और रंगे हुए चावलोंसे नाना प्रकारके नयनाभिराम चित्र बनाना ([तंदुल-कुसुम-विकार), फूल बिछाना, दाँत, और वस्त्रोंका रंगना, फूलोंकी सेज रचना, ग्रीष्मकालीन -विहारके लिए मरकत आदि पत्थरोंका गज बनाना, जल-कीड़ामें मुरज-मुदंग आदि बाजों को फूलोंसे सजाना, कानके लिए हाथी दाँतके पत्तरोंसे आभरण बनाना, सुगन्धित धूप-दीप और बत्तियोंका प्रयोग जानना, गहना पहनाना, इन्द्रजाल और हाथ- की सफाई, चोली आदिका सीना, भोजन और शरबवत आदि वनाना, कुशासन बनाना, वीणा-डमरू आदि बजा लेना इत्यादि कलाएँ उन दिनों सभी सभ्य व्यविति- योंके लिये आवश्यक मानी जाती थीं संस्कृत साहित्यमें इन कलाओ्ोंका विपुल भावसे वर्णन है किसी विलासिनीके कपोल-त्तलपर प्रियने सौभाग्य-मंजरी झंकित कर दी है, किसी प्रियाके कानोंमें आगंड-विलंबि-कसर वाला शिरीष- पृष्प पहचाया जा रहा है, कहीं विलासिनीके कपोल-देशकी चन्दन-पत्रलेखा कपोल-भित्तिपर कुसुम वाणोंके लगे घावपर पट्टीकी भाँति वेंधघी दिख रही है, कहीं प्रियाकें कमल-कोमल पदतलपर वेपथु-विकंपित हाथोंकी वनी हुईं अल- क्तक-रेखा टेढ़ी हो गई हैँ, कहीं नागरकोंके द्वारा स्थंडिल-पीठिकाओंपर कुसुमा- स्तरण हो रहा है, कहीं जलक्रीड़ाके समय क्रीड़ा-दीघिकासे उत्थधित मृदंग-घ्वनि- ने तीरस्थित मयूरोंको उत्कंठित कर दिया है इस प्रकारके सैकड़ों कला-विलास उस युगके साहित्य में पदपदपर देखनेको मिल जाते है

परवर्ती साहित्यमें और नागरिक-जीवनमें भी वात्स्यायनद्वारा निर्घा- रित कलाओंका बड़ा प्रभाव हैँ काव्य-नाटकोंके साहित्यमें मनुष्यकी भोग- वृत्तिका जब त्रसंग आता है, तो वात्स्यायनकी कलाएँ और कामसूत्रीय विधान कविके प्रधान मार्गेद्शंक हो जाते हूँ संसारके कम देशोंके काम-शास्त्रोंने काव्य- साहित्यको इतना भ्रभावित किया होगा

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इन कलाओोंमें कुछ उपयोगी कलाएँ भी हैँ उदाहरणार्थ, वास्तुविद्या या गृह-निर्माण कला, रूप्य-रत्न-परीक्षा, धातु-विद्या, कीमती पत्थरोंका रंगना, वक्षायुवेंद या पेंड-पौधोंकी विद्या, हथियारोंकी पहिचान, हाथी-घोड़ोंके लक्षण इत्यादि वराहमिहिरकी वृहत्संहितासे ऐसी बहुतेरी कलाओंकी जानकारी हो सकती है-जैसे वास्तुविद्या (५३ अध्याय), वृक्षायुवेंद (५५ अ०), वजलेप (५७ आ०), कुक्कुट-लक्षण (६३ अ०), शय्यासत ( ७८ अ०), गन्धयुक्ति (७७ आ०), रत्नपरीक्षा (5०-८३ अ० ) इत्यादि कलाझओोंमें ऐसी भी बहुत है जिनका सम्बन्ध किसी मनोविनोद मात्रसे है-जैसे भेड़ों के और मुर्गेकी लड़ाई, तोतों और मैनोंको पढ़ाना आदि संभ्रान्त परिवारोंके महलोंका एक हिस्सा भड़-म्‌र्गे, तीतर-वटेरके लिये होता था और अन्तःचतुःशालक्के भीतर तोता- मना अवश्य रहा करते थे हम आगे चल कर देखेंगे कि उन[दिनों संभ्रान्त रईसके अतः:पुरमें कोकिल, हँस, कारण्डव, चक्रवाक, सारस, मयूर और कुक्कुट बड़े शौकसे पोसे जाते थे अन्तः:पुरिकाओं और नागरकोंके मनोविनोदमें इन पक्षियों- का पूरा हाथ होता था

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नाट्य शास्त्र

सन्‌ ईसवीके आरंभ होनेके एकाध शताव्दीके बादका लिखा हुआ एक और भी महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, जिससे तत्कालीन सुसंस्क्रृत लोकरुचिका वहुत सुन्दर परिचय मिलता है यह है भरतका नाट्य-शास्त्र इसमें उन दिनोंके नाच, गान, वाजा, छन्‍्द, अलंकार, वेश-भूपाका वहुत ही सुन्दर और प्रामाणिक विव- रण मिलता है यह ग्रंथ एक विदश्ञाल विश्वकोष है इसके पूर्व अनेक नाटच ग्रंथ और नाटक लिखे गये होंगे और नृत्य, संगीत आदि सुकुमार विनोदोंकी घहुत पुरानी परंपरा रही होगी क्योंकि नाट्चशास्त्रमें सैकड़ों ऐसी नाटकरूढ़ियाँ बताई गई हैं जो विना दीघेकालकी परंपराके वन ही नहीं सकतीं वादमें

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इस ग्रंथके आधारपर नाटथ-लक्षण, दशरूपक आदि ग्रंथ लिखे गए, पर उनकी दृष्टि प्रधान रूपसे कवियोंको नाटक बनानेकी विधि बता देंने तक ही सीमित थी परन्तु भरतके नाट्य-शास्त्रकी दृष्टि बहुत व्यापक थी वे केवल कवियोंके लिये नाटक तैयार करनेका फारमूला नहीं बता रहे थे, अभिनेताशओोंके लिये रंगमच- पर उतरनेका कौशल और अभिनयकी महिमा भी बताना चाहते थे और दर्श- कोंको रस ग्रहण करनेका उपाय भी बताना उनका उद्देश्य था इसलिये नाटच- शास्त्र नाना दृष्टियोंसे अत्यन्त महत्व-पूर्ण ग्रंथ हो गया है हमें इस ग्रंथसे बहुत सहायता मिलती है श्रत्यन्त प्राचीन कालके तिमिरावृत इतिहासमें यह ग्रंथ प्रदीषका कार्य करता है

ताटब-शआास्त्र जैसे तेसे व्यक्तिको प्रेक्षक नहीं मानता जो व्यक्ति ताटकका या नृत्यादिका अच्छा प्रेक्षक हो वह सब प्रकारसे सदगुणशील हो तभी रस ठीक ठीक ग्रहण कर सकता है वह शास्त्रोंका जानकार, नाटकके छ: अ्ंगों- का ज्ञाता, चार प्रकारक आतोच्य बाजोंका मर्मेज्ञ, सब प्रकारके पहनावेका जानकार, नाना देशभाषाओ्रोंका +डित, सव कलाओं और शिल्पमें विचक्षण, चतुर और प्रभिनय-ममजञ हो तो ठीक है ( २३-५१-५२ ) नाट्य शास्त्र जानता है कि ऐसे मर्मज्ञ कम होते है और जब बड़े भारी समाजमें अभिनय किया जाता हैं तो मर्मज्ञोंका अनुपात बहुत अल्प होता है, पर आदर प्रेक्षक यही है इस प्रेक्षकको ताना कलाओंकी शिक्षासे सुसंस्क्ृत करना पड़ता है उसे नाट्यधर्मी और लोक- धर्मी रीतियोंका अभ्यास करना पड़ता है नाट्चशास्त्रने यह कर्तव्य भी सुन्दर ढंगसे निबाहा है

| कलाओंकी प्राचीनता

यह तो नही कहा जा सकता कि कलाओंकी गणना वौद्ध-पूर्वकालमें प्रचलित ही थी, पर अनुमानसे निश्चय किया जा सकता हूँ कि बुद्धकाल और

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उसके पूर्व भी कला-मर्मज्ञता आवश्यक गृण मानी जाने लगी थी ललितविस्तर- में केवल कुमार सिद्धाथंकों सिखाई हुईं पुरुप-कलाञ्रोंकी गणना ही नहीं है, चौंसठ काम-कलाओंका भी उल्लेख है * और यह निब्चित-हपसे कहा जा सकता है कि वृद्धकालमें कलाएँ नागरिक जीवनका आवश्यक अंग हो गई थीं। प्राचीन ग्रन्‍्थोंमें इनकी संख्या निश्चित नहीं है, पर ६४ की संख्या शायद अधिक प्रचलित थी | जैन ग्रंथोर्में ७२ कलाशओोंकी चर्चा है पर वौद्ध और जन दोनों ही संप्रदायों- में ६४ कलाओंकी चर्चा भी मिल जाती है जैन ग्रन्थ इन्हें ६४ महिलागण कहते हैँ कालिका पुराण एक अर्वाचीन उपपुराण है सम्भवतः इसकी रचना विक्रम- की दसवीं“यारहवीं शताब्दीमें आसाम प्रदेशमें हुई थी इस पुराणमें कलाकी उत्पत्तिक विषयमें यह कथा दी हुई है; ब्रह्माने पहले प्रजापति और मानसोत्पन्न ऋषियोंकों उत्पन्न किया, फिर सन्ध्या नामक कन्याकों उत्पन्न किया और तत्प- इचात्‌ सुप्रसिद्ध मदन देवताको, जिसे ऋषियोंने मन्‍्मथ नाम दिया ब्रह्माने मदन देवताको वर दिया कि तुम्हारे वाणोंके लक्ष्यसे कोई नही बच सकेगा तुम अपनी इस त्रिभुवनविजयी शक्तिसे सृप्टि-रचनामें मेरी मदद करो। मदन देवताने इस वरदान और कतंव्य-भारको शिरसा स्वीकार किया प्रथम प्रयोग उसने ब्रह्मा और सन्ध्यापर ही किया परिणाम यह हुआ कि ब्रह्मा और सन्ध्या * प्रेम-पीडासे अधीर हो उठे उन्हींके प्रथम समागमके समय कब्रह्माके ४६ भाव हुए तथा सन्ध्याक विव्वोक आदि हाव तथा ६४ कलाएंँ हुई कलाकी उत्पत्ति का यही इतिहास हैं कालिकापुराणके अ्रतिरिक्त किसी अन्य पूराणसे यह कथा समर्थित है कि नहीं, नहीं मालूम परन्तु इतना स्पप्ट है कि कालिका- पुराण ६४ कलाश्रोंकों महिलागुण ही मानता है /-_ श्रीयुत ए० वेंकट सुब्वइ्याने भिन्न भिन्न ग्रस्थोंसे संग्रह करके कलाओंपर एक पुस्तिका प्रकाशित की है जो इस विपयके जिज्ञासुओंक बड़े कामकी है। उसकी सूचियोंको देखनेसे पता चलता हैं कि कला उन सब प्रकारकी जानकारि- योंको कहते हैँ जिनयें थोड़ी-सी चतुराईकी आवर्यता हो व्याकरण, छन्द, ज्यौतिपा न्याय; वैचेंक और राजनीति भी कला है; उचकेना, कूदना, तलवार चलाना और घोड़ा-चढ़ना भी कला है; काव्य, नाटक, आ्राख्यायिका, समस्या-

*चतु:पंप्टि कामकलितानि चानुभविया नृपुरमेखला अभिहनी विगलितवसना: ।| कामसराहतास्समदना: प्रहसितवदना: किन्तवार्यपुत्र विकृति यदि भजसे ॥। “-जबित विस्तर (पृ० ४६७)

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पूर्ति. विदुमती, प्रहेलिका भी कला है; स्त्रियोंका श्रृंगार करना, कपड़ा रंगना, चोली सीना, सेज बिछाना भी कला है; रत्न और मणियोंको पहचानना, घोड़ा, हाथी, पुरुष-स्त्री, छाग-मेष और कुक्कुटका लक्षण जानना, चिड़ियोंकी बोलीसे शुभाशुभका ज्ञान करना भी कला है और तित्तिर बदेरका लड़ाना, तोता-मैना- का पढ़ाना, जूआ खेलना भी कला है पुराने ग्रन्थोंस यह जान पड़ता है कि कलाएँ पु रुषोंके ही योग्य माची जाती थी यद्यपि कोई-कोई गणिका भी उन कला- ओंमें पारंगत पाई जाती थी ये गणित, दरशंन, युद्ध, घुड्सवारी आदिकी कलाएँ कुछ कलाएँ विशुद्ध कामशास्त्रीय हैँ और हमारे विपयके साथ उनका दूरका ही सम्बन्ध है। सब मिलाकर यह ज्ञात होता-है कि ६४ कोमल कलाएंँ स्त्रियोंके सीखनेकी हैं; और चूंकि पुरुष भी उनकी जावकारी रखकर ही स्त्रियोंको आक्ृष्ट कर सकते हैं इसीलिये स्त्री-प्रसादनके लिये इन कलाप्रोंका ज्ञान आवश्यक हैं कामसूत्र में पंचालकी कलाकी बात है वह कामशास्त्रीय ही है परन्‍्तु वात्स्या- यन्तकी अपनी सूचीमें केवल कामशास्त्रीय कलाएँ ही नहीं हैं अच्यान्य सुकुमार जानकारियोंका भी स्थान है

श्री बेंकट सुब्बइ्याने भिन्न-भिन्न पुस्तकोंसे कलाझोंकी दस सूचियाँ संग्रह की हैं इनमें पंचाल और यद्योधरकी कलाझ्ोंको छोड़ दिया जाय तो वाकीमें ऐसी कोई सूची नहीं है जिसमें काव्य, आख्यान, एलोक-पाठ और समस्या- पूति आदिकी चर्चा हो | बेंकट सुब्बइयाने जिन पुस्तकोंसें कलाओंकी सूची ग्रहण की है उनके अतिरिक्त भी बहुत सी पुस्तकें हैं, जिनमें थोड़े बहुत हेर-फेरके साथ ६४ कलाओओ्रोंकी सूची दी हुई हूँ

ऐसा जान पड़ता है कि आगे चलकर कलाका अर्थ कौशल हो गया था और भिन्न-भिन्न ग्रन्थकार अपनी रुचि, वक्तव्य, वस्त 5 वस्त्‌ और संस्कारके अनुसार ६४ भेद कर लिया करते थे। संप्रसिद्ध काश्मीरी पण्डित क्षेमन्द्रने कलाविलास' नामकी एक छोटी-सी पुस्तक लिखी थी जो काव्यमाला सीरीज ( प्रथम गुच्छ) में छप चुकी है। इस पुस्तकमें वेश्याप्रोंकी ६४ कलाएँ हैं, जिनमें अधिकांश लोकाकषेंक और घनापहरणके कौशल हैँ; कायस्थोंकी १६ कलाएँ जिनमें लिख- नेंके कौशलसे लोगोंको धोखा देना आदि बातें ही प्रमुख हैं; गानेवालोंकी अनेक प्रकारकी धनापहरणरूपी कलाएँ हैँ; सोना चुरानेवाले सुनारोंकी ६४ कलाए हैं, गणकों या ज्योतिषियोंकी बहुविध घू्तताएँ हैं और अन्तिम अध्यायमें उन चौसठ कलाग्नोंकी गणना की गई हैं जिनकी जावकारी सहृदयको होनी चाहिए इनमें घर्म-अर्थ-काम-मोक्षकी वत्तीस तथा मत्स्य, शील,_प्रभाव, मानकी बत्तीस कलाएँ हैं १० भेपज कलाएं वे हूँ जो मन॒ष्यके भीतरी जीवनकों नीरोग और निर्वाध बनाती है और सबके अन्तमें कला-कलापमें श्रेष्ठ सौ सार कलाओंकी

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चर्चा है। क्षेमेंद्रकी गिनाई हुईं इन कलाओंमें कहीं भी काव्य या समस्यापूर्तिको स्थान नहीं है। इस प्रकार यह स्पप्ट होता है कि अपने-अपने वक्तव्य विपय- के कौशलको ६४ या ततोधिक भागोंगें विभकत करके 'कला' नाम दे देना वादमें साधारण नियम हो गया था परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि कोई अनुश्रुति इस विपयमें थी ही नहीं ६४ की संख्याका घूम-फिरकर जाना ही इस वातका सवत हँ कि ६४ की अनुश्नुति अवश्य रही होगी ७छ२ की अनुश्नति जैन लोगोंमें प्रचलित है साधारणतः वे पृरुषपोचित कलाएं हैं। ऐसा लगता है कि ६४ की संख्याक अन्दर प्राचीन अनुश्वुतिमें साधारणतः वे ही कलाएँ रही होंगी जो वात्स्यायनकी सचीमें हैँ कलाका साधारण अर्थ उसमें स्त्री-प्रसादन और

वशीकरण हूँ और उद्देश्य विनोद श्रौर रसानूभूति

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कलाओंके आश्रयदाता रईस

आजमके यांत्रिक युगमें विलासिता सस्ती हो गई हैँ पुराने जमानेमें ऐसी बात नहीं थी। प्राचीन भारतका रईस विद्या और कलाके पीछे मुक्तहस्तसे घन लुटाता था क्योंकि वह्‌ जानता था कि घनके दो ही उपयोग हँ--दान और भोग यदि दान और भोगके विना भी कोई अपनेको अपनी अ्रपार सम्पत्तिक कारण घनी माने तो भला दरिद्र ही क्यों उस संपत्तिसे अपनेको सम्पत्तिवान्‌ मान ले ? - दानभोगविहीनेन घनेव घनिनो यदि तेनेव घनजातेन कथं घनिनो वयम्‌ ।॥ आजकल भी, और उन दिनों भी, दान-भोगक्क अ्रतिरिक्त संपत्ति एक तीसरी वस्तु देती हँ-शक्ति और सम्मान उन दिनों भी रईस समाजका सम्मान- भाजन होता -था; परल्तु उन दिनों साधुक्म और तपोमय जीवनका सम्माच भी कम नहीं था, वल्कि उपलब्ध प्रमाणोंके बलपर कहा जा सकता है कि उसका

२० ]

सम्मान अधिक था फिर भी रईस काफी सम्मान पाता था वह केवल अपने अपार धनका कृपण भोक्‍ता मात्र नहीं था बल्कि अपने प्रत्येक आचरुणसे शिल्पि- यों और सेवकों की एक बड़ी जमातको धन बाँटता रहता था | सुबहसे शामतक वह किसी-न-किसी शिल्पको श्रपनी विलासितासे पोषण देता रहता था उसके उठने बैठनेसे लेकर चलने-फिरवेतकमें आ्रभिजात्य था पुराना भारतीय नाग- रक सुबह ब्राह्ममुहुतेंमें उठ जाता था और उसके उठतेके साथ ही शिल्पियों और सेवकोंका दल कार्य॑व्यस्त हो जाता था उसके मामूली-से-मामूली आचरण- से भी आभिजात्यकी महिमा व्यंजित होती थी उसके छोटे-से-छोटे आचरणके लिये भी प्राचीन ग्रंथोंमें विस्तृत उल्लेख मिलता है आगे रईसके कुछ दैनिक कृत्योंका आभास दिया जा रहा है, जिससे उसकी कला-पोषकताका अनुमान किया जा सके

श्र

सुख प्रक्षालल ओर दातुन

प्रात:काल उठकर आवश्यक मुख-प्रक्षालनादिसे निवृत्त होकर वह सबसे पहले दातूनसे दाँत साफ करता था (कामसूत्र पृ० ४५) परन्तु उसकी दातून पेड़से ताजी तोड़ी हुईं मामूली दातून नहीं होतः थी, वह श्रौषधियोंऔर सुगन्धित द्रव्योंसे सुवासित हुआ करती थी कम-से-कम एक सप्ताह पहलेसे उसे सुवासित करनेकी प्रक्रिया जारी हो जाती थी बृहत्संहितामे (७७,३ १-३४) यह विधि विस्तारपूर्वक वताई गई है गोमूत्रमें हरेका चूर्ण मिला दिया जाता था और दातून उसमें एक सप्ताह तक छोड़ रखी जाती थी उसके बाद इलायची, दालचीनी, तेजपात, अंजन, मधु और मरिचसे सुगन्धित किए हुए पानीमें उसे डुबा दिया जाता था (बृ० सं० ७७-३१-३२ ) “विश्वास किया जाता था कि यह दच्त-काण्ठ स्वास्थ्य और भांगल्यका दाता होता है इस दातूनको तैयार करनेके लिये प्राचीन नायरक (रईस) के सुगन्धकारी भृत्य नियमित रूपसे

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रहा करते थे

साधारणतः यह समझना कठिन ही है कि दाँत साफ करनेके लिये इतनी घटाकी क्‍या आवश्यकता है ? वराहमिहिरने कुछ संकेत किया है। दातून अगर विधिपूर्वक बनी हो तो मूँहका रंग निखार देती है, कान्ति बढ़ा देती है, सुगंधि ला देती है और वाणीको ऐसी बना देती हैं जो सुननेवालोंके कानको सुख देती है-- .. वर्णप्रसादं बदनस्य कांन्ति वैजश्द्यमास्यस्य सुगन्धितां संसेवितु: श्रोत्रसुखां वाचां कुवेन्ति काष्ठान्यसकृद्धवानाम्‌ सो, उन दिनों दातून केवल शरीरके स्वास्थ्य और स्वच्छता लिये ही आवश्यक नहीं समझी जाती थी, मांगल्य भी मानी जाती थी इस बातका बड़ा विचार था कि किस पेड़की दातून किस तिथिको व्यवहार की जानी चाहिए पुस्तकोंमें इस बातका भी उल्लेख मिलता है कि किस-किस तिथिकों दातूनका प्रयोग एकदम करता ही नहीं चाहिए सो नागरककी दातून कोई मामूली बात नहीं थी उसके लिये पूरोहितसे लेकर गृहकी चेरी तक चिन्तित हुआ करती थी

१३ अनुलेपन

दातूनकी क्रियाके समाप्त होते ही सुशिक्षित भृत्य अनुलेपनका पात्र

लेकर उपस्थित होता था अनुलेपनमें विविध प्रकारके द्रव्य हुआ करते थे। >कस्तूरी, अगुरु, केसर आदिके साथ दूधकी मलाईके मिश्रण्से ऐसा उपलेपन तैयार किया जाता था जिसकी सुगन्धि देरतक भी रहती थी और शरीरकी चम- ड्ीको कोमल और स्तिग्ध भी बनाती थी। थेरगाथा, संयुकत-निकाय और अंगुत्तर-निकायकी अट्ठडकथाशओंगें पिललीनामक ग्रामर्क निवासी एक अत्यन्त धनी ब्राह्मणकी कथा आती हैँ उस ब्राह्मणके पूत्र माणवकर्क लिये शरीरमें उबटन

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लगानेका जौ-चूरणुे नित्य तैयार होता था, उसका वजन मम्रधमें प्रचलित नाली नामक सापसे १२ नाली हुआ करता था आधुनिक वजनसे यह करीब दस सेर होना चाहिए। इसमें थोड़ी अत्युक्ति भी हो तो अनुलेपन द्वव्यकी मात्राका अन्दाज तो लग ही जाता है

परन्तु कासू त्रकी गवाहीसे हम अनुयान कर सकते हैं कि चन्दनका अनु- लेपन ही अधिक पसंद किया जाता था इस अनुलेपतको उचित मात्रामें लगाना भी एक सुकुमार-कला मानी जाती थी ! जयमंगला टीकामें बताया गया हैँ कि जंसे-तैसे पोत लेना भद्टी रुचिका परिचायक है, इसलिये अनुलेपत उचित मात्रा- में होना चाहिए

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केश-संस्कार

अनुलेपनक बाद घूपसे वालोंकों घूषित करनेकी क्रिया शुरू होती थी। स्त्रियों में यह क्रिया अधिक प्रचलित थी, पर विलासी नागरक भी अपने केशोंकी कम परवाह नहीं किया करते थे केशोंक शुक्ल हो जानेकी आशंका वराबर वनी रहती थी और वराहमिहिराचायने ठीक ही कहा हैं कि जितनी -भी साला पहनो, वस्त्र धारण करो, गहनोंसे अपनेको अलंकृत कर लो, पर अगर तुम्हारे केशोंमें सफेदी हैं तो ये कुछ भी अच्छे नहीं लगेंगे, इसलिये मू्घ॑जों (केशों ) की सेवामें चुकना ठीक नहीं है (वृ० सं० ७७-१) सो साधारणत: उस शकक्‍्लता- रूपी भद्दी वस्तुको आते ही देनेके लिये और उसे देरतक सुगन्धित बनाए रखने- के लिये केश्ोंको घूपित किया जाता था परन्तु यह शुक्लता कभी-कभी हजार बाबा देनेपर घमकती थी और नागरकको प्रयत्न करना पड़ता था कि झाने- पर भी वह लोगोंकी नजरोंमें पड़े कैशों या मूर्घजोंमें घृप देनेके कितने ही नुस्खे पाए जाते हैं किसी से कपूरकी भरध, किसीसे कस्तरीकी सवास, और किसीसे अ्गरुकी खुशबू उत्पन्न की जाती थी

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पृरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियोंकें केश अधिक सुयन्धित बनाए जाते थे प्रीष्म- कालमें तो सुगन्धित तेल या स्नानके समय व्यवहार किए जाने वाले कपषाय- कल्कसे यह कार्य हो जाता था किन्तु जाड़ेके दिनोंमें धूपित करके सुगन्ध लाई जाती थी कालिदासने प्रीष्म-ऋतुमें स्नान-कपाय-वासित' केशोंका उल्लेख किया है और वर्षाकालमें पृष्पावतंस या फूलोंके गुच्छोंसे ही सुन्दरियोंके केशोंका सुगन्धित होना बताया गया है (ऋतु० २-२२) शरत्कालमें भी घूपित केशोंकी बात उन्होंने नहीं बताई उस समय नितान्त-धननीलविकुब्चचिताग्र केशोमें-धुंधराली काली लटोंमें-तव-मालतीकी मनोहर माला पर्याप्त समझी जाती थी (ऋतु० ३-१६) किन्तु शिशिर और हेमन्तमें काले अगरुका धूप देकर केशोंको सुगन्धित किया जाता था ( ऋतु० ४-५, ५-१२, ) इस प्रकार हर ऋतु केशोंको सुगन्वियुक्त वनानेका विधान था वसस्तमें इतने झमेलेकी जरूरत नहीं महसूस की जाती होगी उस पुष्प-सौरभसे समृद्ध ऋतुमें सुगन्धि बहुत यत्नसाध्य नहीं होती ऐसा कोई भी पुप्प चुन लिया जाता था जो सून्दरियोंके चंचल नील अलकोंके साथ ताल मिला सके अशोकके लाल- लाल स्तवक या नवमल्लिकाकी माला उत्तम अलंकरण माने जाते थे, कणि- कारके सुनहरे फूल भी कानोंमें शोभित हो रहे हों तो फिर क्या कहना है ! कालि- दास इस मनोहर अलंकरणका महत्व समझते थे : कर्णपू योग्य नवकणिकार चलेपु नीलेष्वलकेष्वशोकम्‌ पुप्प॑ फूल्ल॑ नवमल्लिकाया: प्रयान्तिं कान्ति प्रसदाजनानाम्‌ ।॥। ६. 800 १६. सुगन्धि प्राचीन भारतका केवल विलास नहीं था, वह उसका जीवनांग था। देवसन्दिरसे लेकर सुहाग-सेजतक उसका अबाघ प्रवेश था। धूप-धूम सर्वत्र सुगंधि लानेके साधन थे कपड़े भी इच धूपोंसे धुपे जाते थे वस्तुतः भारत- के प्राचीन रईस-क्या पुरुष और क्या स्त्री-जितना सुगन्धिसे प्रेम करते थे उतना ओर किसी भी वस्तुसे नहीं और केशोंके लिये तो स्‌ गन्धित तेलकी भी विधियाँ व॒ताई गई हैं साधारणतः केशोंको पहले धूपित करके कुछ देरतक उन्हें छोड़ दिया जाता था और फिर स्नान करके सुगंधित तैल व्यवहार किया जाता था ( बृ० सं० ७७-११) केश रखनेक अनेक प्रकार थे बौद्ध-जैन आदि साधुझोंके सिर मुंडित हुआ करते थे पर विलासी लोग सुन्दर केश-रचना किया करते थे नाठ्य- शास्त्रमे केश-रचनाके सिलसिलेमें (२३-१४७) बताया गया है, राज-पुरुपोंके, वधुओंके और श्ृंगारी पुरुषोंके केश कुज्चित होने चाहिए केशोंको बड़े यत्नसे कुच्न्चित बनाया जाता था

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छुरेका व्यवहार इस देशमें बहुत जमानेसे होता रहा है दाढ़ी रखनेके विविध रूप थे। नाटच-शास्त्रमें चार प्रकारकी दाढ़ियोंका उल्लेख है शुक्ल, श्यास, विचित्र और रोमझ किंसी-किसी प्रतिमें शुक्लके स्थानमें शुद्ध पाठ है शुक्लका अर्थ स्वच्छ शुअ्र वृद्धजनोचित दाढ़ी हो सकता है पर शुद्ध' पाठ हो तो उसका अथे साफ, रोमहिविन वलीनशेवड्” किया जा सकता है वस्ततुः चौखंभावाले नाटच-शास्त्रमें भी आगे चलकर शुद्ध पाठ ही स्वीकृत किया गया हैँ और वताया गया हूँ कि संन्यासियों, मंत्रियों, पुरोहितों तथा मध्यवित्त व्यक्ति- योंकी दाढ़ी शुद्ध होती चाहिए शुद्ध अर्थात्‌ साफ बनी हुईं चित्रों और मूतति- योंमें इस श्रेणीके लोगोंकी ऐसी ही दाढ़ी मिलती भी हैं श्याम दाढ़ी कुमारों- की होती थी और विचित्र दाढ़ियोंकी बनावट नाना प्रकारकी होती थी राजा लोग, शौकीन (श्ज्भारी) तागरिक लोग और जवान राजपुरुष चित्र विचित्र दाढ़ी रखते थे | 'रोमश' दाढ़ी उसे कहते है जो अपने आप उगकर असंस्कृत पड़ी हो झकुन्तला नाटकमें जिन तपस्वियोंकों राजाने देखों था उनकी ऐसी ही दाढ़ियाँ थीं। जब राजाने शक्‌न्तलाके चित्रमें इन तापसोंको अंकित करना चाहा तो विदूषकको आशंका हुई थी कि यह सुंदर चित्र अब झाड़नुमा दाढ़ियोंसे भर जायगा बालोंकी सेवा हो जानेंके बाद नागरिक माला धारण करता था। माला चम्पा, जूही मालती आदि विविध पुप्पोंकी होती थी इनकी चर्चा आगे की जायगी ।॥

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झ्रधर और नाखूनकी रेंगाई

वात्स्यायनके कामसूत्रमें मोम और अलक्तक धारण करनेकी क्रियाका उल्लेख है किसी-किसीका अनुमान हैं कि अधरोंको अ्रलक्तक ( लाखसे बना हुआ लाल रंगका महावर) से लाल किया जाता होगा, जैसा कि आधुनिक कालमें लिपस्टिकसे स्त्रियाँ रेगा करती है और फिर उन्हें चिक्कन करनेके लिये उत्पर

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सिक्‍्थक या सोम रगड़ दिया जाता होगा। मुझे अन्य किसी मूलसे इस श्रनुमानका पोपक प्रमाण नहीं मिला हूँ पर यदि अनुमान ही करना हो तो नखोंको रंगनेका भी अनुमान किया जा सकता है वस्तुतः प्राचीन भारतके विलासीका नखोंपर इतना मोह था कि इस युगमें तो हम उसकी मात्राका अ्रन्दाज लगा सकते हैं' श्रौर कारण ही समझ सकते है नखोंके काटनेकी कलाकी चर्चा प्र।यः श्राती है वे त्रिकोण, चन्द्राकार, दन्तुल, तथा श्रन्य श्रनेक प्रकारकी शआ्राकृतियोंक होते थे गौड़के लोग बड़े-बड़े नखोंको पसन्द करते थे, दक्षिणात्यवाले छोटे नखोंको श्र उत्तरापथके नागर रसिक, बहुत बड़े बहुत छोटे मझोले नखोंकी कदर करते थे जो हो, सिक्थक श्र श्रलकक्‍तककोे प्रयोगके बाद नागरक दर्पणमें अपना मुख देखता था | सोने या चाँदीकी समतल पढ़ी को घिसकर खूब चिकना किया जाता था उससे ही आदर्श या दर्पणका काम लिया जाता था। दर्षण- में मुख देखनेके बाद जब वह अपने बनाव-सिंगारसे सन्तुप्ट हो लेता था तो सुग- न्धित ताम्बूल प्रहण करता था

१५ ताम्बूल-सेवन

ताम्बूल प्राचीन भारतका बहुत उत्तम प्रसाधन था वह पूजा श्रौर शूद्भार दोनों कामोंमें समान रुपसे व्यवहृत होता था ऐसा जान पड़ता हैँ कि श्राये लोग इस देशमें श्रानेके पहले त्ताम्बूल (पान) का प्रयोग नहीं जानते थे उन्होंने नाग जातिसे इसका व्यवहार सीखा था? श्रव॒ भी संस्कृतमें इसे नाग-

१. मेरे मित्र प्रो० प्रक्ताद प्रधानन श्रनक प्राचीन भप्रन्थोंसे श्रोर बरई-जातिमें पाए जानेयाले प्रवादोंसे मेरे इस अ्रनुमानका समर्थन किया है फि पान नाग- जातिकी देन है। उन्होंने फथासरित्सामर (२-१-४०-८१), बृहत्कधा-इलोक- संग्रह (६-१२) से भी उदयनको नागोंसे इस लताके प्राप्त करनेकी फ्रथाश्रोंफो

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वल्ली कहते हैं। राजशेखर सूरिके प्रबन्ध-कोषमें एक मजेदार कहानी दी है जिसके अनुसार पातालके राजा वासुकि नागने भूलोकके राजा उदयनकों अपनी कन्या ब्याही थी और दहेजमें चार अद्भुत रत्न दिए थे-सवत्सा कामधेनु, विशिष्ट नागवलली (पान ), सोपधान सतूलिका शय्या और रत्नोद्योत प्रदीप तबसे नाग लोगोंकी दुलारी वल्लरीके पत्ते (पण्ण-पण्ण-पान) भारतीय अन्तःपुरोंसे लेकर सभागृहोंतक और राजसभासे लेकर झ्रापानकोंतक समान रूपसे आदर पा सके किसी कंविने ठीक ही कहा है कि वल्लियाँ तो दुनियामें हजारों है, वे प्रोपकार भी कम नही करतीं पर, सबको छापकर विराजमान है एकमात्र नाग- जातिकी दुलारी वलली ताम्बूल-लता, जो नागरिकाओओंके बदन-चन्द्रोंको अलंकृत करती हैं --

कि वीरुधो भुवि सन्ति सहखशोड्न्या:

यासां दलानि परोपक्ृति भजस्तें

एकैव वल्लिषु विराजति नागवलली,

या नागरीवदनचन्द्रमलंकरोति

इस ताम्बूलक बीटक (बीड़ा) का सजाना बहुत बड़ी कला माना जाता

था। उसमें नानाभावसे सुगन्धि ले आनेकी चेष्टा की जाती थी पानका बीड़ा साना मंगलों और सौभ/ग्योंका कारण माना जाता था बराहमिहिरने कहा हैं कि उससे वर्णकी प्रसन्नता आती है, मुखमें कान्ति और सुगन्धि आती है, वाणी मधुरिसाका संचार होता है; वह अनुरायको प्रदीप्त करता है, रूपको निखार देता है, सौभाग्यकों आवाहन करता है, वस्त्रोंको सुगन्धित बनाता है और कफ- जन्य रोगोंको द्र करता है (बु० सं० ७७-३४-३४ ) इसलिये इस सर्वगुण- शकत शुज्भूर-साधनके लिये सावधानी और निपुणता वड़ी आवश्यक सुपारी चना और खैर ये पानके आवश्यक उपादान हैं ) इन प्रत्येकको विविध भाँतिसे सगन्धित बनानेकी विधियाँ पोथियोंमें लिखी है पर इनकी मात्रा कला-मर्मज्ञ- को ही मालूम होती है खैर ज्यादा हो जाय तो लालिमा ज्यादा होकर भद्दी हो जाती है, सुपारी अधिक हो जाय तो लालिमा क्षीण होकर अशोभन हो उठती है, चूना अधिक हो जाय तो मुखका गन्ध भी बिगड़ जाता हूं और क्षत हो जानेकी सम्भावना है, परन्तु पत्ते अधिक हों तो सुगन्धि बिखर जाती है सो, प्राचीन

संग्रह किया है कहीं यह्‌ बताया गया है कि नागवल्ली यौतुकम प्राप्त हुई, कहीं यह बताया गया है कि वह प्रत्युपकारमें प्राप्त हुई, कहीं पाण्डवोंके श्रवव- सध यज्ञके लिये इसे संगाया जाता बताया गया है, पर सर्वेत्र नागोंसे इसके प्राप्त होनेका समर्थन होता है (विश्वभारती पत्निका, खण्ड ४, पृष्ठ १६४-१६५ )।

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भारतका नागरिक ताम्वलका महत्त्व जानता था और मानता था सुन्दरियाँ इसके गौरवकी कायल थीं और सच पूछिए तो, जैसा माघ कविने कहा हैं, स्वच्छ जलसे धले अंग, ताम्ब॒लयतिसे जगमगाते होठ और महीन निर्मल हल्की-सी साड़ी-यही वो विलासिनियोंका वास्तविक श्गार हूँ | साध कविने एक टेढ़ी शर्ते अवश्य लगा दी है लेकिन खैर- स्वच्छाम्भ:स्तपनविधौतमज्मोप्ठस्ताम्वूलयूतिविशदो विलासिनीनाम्‌ वासस्तु प्रतनुविविक्तमस्त्वितीयान्‌ आकल्पो यदि कुसुमेषुणा शून्य :॥

कहना बेकार है कि इतना महत्त्वपूर्ण शौर फिर भी इतना सुकुमार प्रसाधन सावधानी चाहेगा, इसलिये इनकी मात्राका निर्णय होशियारीसे होना चाहिए रात्तको पत्ते अधिक देने चाहिए और दिनको सुपारी (वृ० सं० ७७-३६-३२७ ) सो प्रचीन भारतका नागरक पानके बीड़ेके विषयमें बहुत सावधान हुआ करता था। काससूत्रकी गवाहीसे हम कह सकते हैं कि पान खानेवाले रईस और राजाके घरमें पीकदान या पतदुग्रह जरूर हुआ करते थे इसके बिना पानकी रसिकता केवल कुरुचिपूर्ण गन्दगी ही उत्पन्न करती है कामसूत्र (१४-८-६) में इसीलिए नागरककी शय्या के पास एक पतदुग्रहकी व्यवस्था की गई है। राजांश्रों और रईसों ' की कन्याएँ जब पतिगृह जाती थी तो उन्हें वस्तुओं के साथ सुन्दर पीकदान भी दिया जाता था नैषध (१६-२७) में वताया गया है कि राजा भीम ने अपने जामाताको सुन्दरमणि खचित पीकदान दहेजमें दिया था परन्तु अगर पीकदान नहीं हुआ्ा ओर पानका लाल-लाल रस कही उगलुना ही पड़ा तो नागरक उसमें भी सावधान होता था | कभी-कभी तो पान थूकनेके कौशल का भी उल्लेख मिलता है दशकुमार- चरितमें लिखा है कि किस प्रकार राजकुमार नागदत्तने राजकन्या अंबालिकाके घर चोरी-चोरी पहुंचकर उस-सोई हुई कन्या का और अपना चित्र भी बनाया था और सफेद दीवार पर इस सफाई से पीक फेंकी थी कि उससे चक्रवाकर्के जोड़े बन गए थे पान के डिब्बे के लिए संस्कृतमें दो शब्द आते है:-करद्ध. और स्थग्रिका संस्कृतके कथाआख्यायिका, काव्य-नाटक, साहित्य में ताम्वूल-करद्भुवाहिनी स्त्रियों का बहुत उल्लेख है कादस्वरीमें चन्द्रापीड़की करड्भूवाहिनी पत्र- लेखाका वर्णन कविने प्राण ढालके किया है करद्धू सोने-चाँदीके बनते थे और मणिखचित होते थे ताम्बूल-सेवनके बाद पुराना रईस उत्तरीय सँमालता था और अपने कार्येमें जुट जाता था। वह कार्य व्यापार भी हो सकता है, राज- शासन भी हो सकता है और मंत्रणादिक भी हो सकता है

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१७

रईसकी जाति

समृद्ध रईस ब्राह्मणों, क्षेत्रियों श्र वैश्योंमेंसे ही हुआ करते थे परल्तु शूद्रोंका उल्लेख मिलनेसे यह नहीं समझना चाहिए कि शूद्र लोग समृद्ध कभी होते ही नही थे सच्ची बात यह है कि समृद्ध लोग छलद्र नहीं हुआ करते थे समृद्ध होनेके बाद लोग या तो ब्राह्मण था वैश्य-अधिकतर वैश्य-सेठ हो जाया करते थे, या क्षत्रिय सामन्‍्त उन दिनों भारतवर्षका व्यापार बहुत समृद्ध था और ब्राह्मण और क्षत्रिय भी सेठ हुआ करते थे मृच्छकटिकका सेठ नागरक चारुदत्त ब्राह्मण था यह धारणा गलत है कि ब्राह्मण सदासे यजन-याजनका ही काम करते थे वस्तुत: यह बात ठीक नहीं है मूच्छकटिक नाटकमें चार ब्राह्मण पात्र है। चारु- दत्त श्रेष्ठिचत्वरमें वास करता है, सकल कलाश्रोंका समादरकर्ता पुपुरुष नागर है, विदेशम समुद्र पार उसके धन-रत्नसे पूर्ण जहाज भेजे जाते है, दरिद्र हो जाने- पर भी वह नगरके प्रत्येक स्त्री-पुरुषका श्रद्धाभाजन है और अत्यन्त उदार और णुएएस्डिल है दुरर बए्हएए एक. दि है जो रफ़्डप्के मे साज्वेकी खुद्णण्पदपर जीता है, गणिकाञोंका सम्मान भी करता है ओर उन्हें प्रसन्न भी रखता है, पण्डित भी है और कामुक भी है तीसरा ब्राह्मण विदूषक हैँ जिसे संस्कृत वोलनेका भी अभ्यास नही है औौर चौथा ब्राह्मण शाविलक है जो पंडित भी है, चोर भी है और वेश्या-प्रेमी भी हैं चोरी करना भी एक कला है, एक शास्त्र है, शाविलकने उसका अच्छा अध्ययन किया था कैसे सेंघ मारना होता है, दीपक बुझा देनेके लिये कीटको कैसे उड़ाया जाता है, दरवाजेपर पानी छिड़कके उसे कैसे निःशद्व खोला जा सकता है, यह सारी बातें उसने सीखीं थीं। ब्राह्मणके जनेऊका जो गुण वर्णन इस चोर पं डितने किया वह उपभोग्य भी हैं और सीखने लायक भी ! इस यज्ञो- पवीतसे भीतमें सेंघ मारनेकी जगह पाई जा सकती हं, इसके सहारे स्त्रियोंके गले आदियें गँसी हुईं भूपणावली खीच ली जा सकती है, जो कपाट यंत्रसे दृढ़ होता है-- ताला लगाकर खुलने योग्य बना दिया गया होता है,-उसका यह उद्घाटक बन जाता है और साँप योजरके काट खाने पर कटे हुए घावको बाँधनेका काम भी

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वह दे जाता है :- एतेव मापयति भित्तिषु कर्मसार्मम्‌, एतेन मोचयति भूषणसंप्रयोगान्‌ उद्घाटठकों भवति यन्त्रदृढ़े कपाटें, दप्टस्थ कीटसुजगैः परिवेष्टनं १! (मृ० ३-१७) इस प्रकार ब्राह्मण उन दिनों सेठ भी होते थे, विट और विदूषक भी होते थे और शाविलकके समान धर्मात्मा चोर भी ! धर्मात्मा इसलिए कि शमविलक चोरी करते समय भी नीति-अनीतिका ध्यान रखता था, स्त्रियों पर हाथ नहीं उठाता था, बच्चोंकों चुराकर उनके गहने नहीं छीन लेता था, कमजोर और गरीब नागरके घरमें सेंघ नहीं मारता था, ब्राह्मणका धन और यज्ञक निमित्त सोनेपर लोभ नहीं रखता था और इस प्रकार चोरी करते समय भी उसकी मति कार्याकायेका विचार रखती थी ! ( मृ० ४-६ ) धनाढ ब्राह्मणोंकी वात केवल मृच्छकटिकर्क कालमें ही मिलती हो सो बात नहीं हैं। वौद्ध-कथाओंमें भी ऐसी बातें मिलती है जिनसे पता चलता है कि बुद्धके कालमें भी समृद्ध ब्राह्मण विद्यमान थे शअ्रट्टकथाओ्रोंमें, मगधके पिल्‍ली तामक आमके महातित्थ (महातीर्थ) ब्लाह्मणकी श्रपार संपत्तिकी बात लिखी है तालेके भीतर साठ बड़े चहबच्चे (तड़ाक), बारह योजत तक फैले खेत, अनुराधपुर जैसे चौदह दासोंके गाँव, चौदह हाथियोंक झुण्ड, चौदह घोड़ोंके झुण्ड चौदह रथोंक झुण्ड थे उसके पूत्र माणवकने (जो किसी बहाने विवाह नहीं करना चाहता था ) एक सहस्त्र सोनेके मोहर लगाकर सुनारसे एक सुन्दर स्त्री मूर्ति बनवाई थी और मातासे कहा था कि यदि ऐसी बहू मिले तो मैं विवाह करूँ शायद उसे विश्वास था कि किसो ब्राह्मणके घर ऐसी सुन्दरी मिलना संभव नहीं होगा पर यह विश्वास गलत सिद्ध हुआ मद्र देशमें ऐसी ही सुन्दरी मिल गई जो उस 'स्वर्ण-प्रतिमासे सौगुना, हजारगुना, लाखगुन्ता, अधिक सुन्दरी थी और वारह हाथके घरमें बैठी रहनेपर ही दीपकका काम नहीं, जिसकी शारीरिकी प्रभासे ही भ्रन्धकार दूर हो जाता था ।” अत्युक्ति कुछ अवश्य है, पर समृद्ध ब्राह्मण होते थे इसमें संदेह नही (बुद्ध-चर्या पु० ४१-४२)

श्प

रईस और राजा

कभी-कभी रईसोंका विलास समसामयिक राजाश्ोंसे भी बढ़कर होता था, इस बातके प्रमाण मिल जाते हैं राजाम्रोंकों युद्ध, विग्नह, राज्य-संचालन आदि अनेक कठोर कर्म भी करने पड़ते थे, पर सुराज्यसे सुरक्षित समृद्धिशाली नागरिकोंको इन भंभटोंसे कोई सरोकार नहीं था वे धत और यौवनका सुख निर्श्चित होकर भोगते थे एक अपेक्षाकृत परवर्ती जैन-प्रबंधर्में राजा भोज और माघ कविकी बड़ी ही मनोरंजक कहानी दी हुई है कहानीकी ऐतिहासिकता ध्पो निश्चित रूपसे कमजोर शित्तिपर है पर इससे राजाओं और रईसोंकी बिला-, सिताकी एक मनोरंजक झलक भिल जाती है इस दृष्टिसे ही इस कहानीका महत्त्व है। कहानी थों है कि एकबार दत्त ब्राह्मणके पुत्र माध कवि महाराज भोजके घर अ्रतिथि होकर गए राजाने कवि-का सम्मान करनेसें कोई बात उठा रखी, पर कविको तो स्तानमें ही सुख मिला और भोजनमें ही, शयनमें ही महाराज भोजने आाइचर्यके साथ सोचा कि जाने यह अपने घर कैसे रहता है कविके निममंत्रणपर महाराज भोजने भी एक दिन कविके घर जानेका निश्चय किया दूसरे वर्ष शीत ऋतुमें बड़ा भारी लाव-लश्कर लेकर महाराज कविके श्रीमालपुर नामक ग्राममें उपस्थित हुए कविक विशाल प्रासाद- को देखकर राजा आश्चरयंचकित रह गए मकान देखनेक लिये प्रासादर्क भीतर प्रविष्ट हुए स्थान-स्थानपर विचित्र कौतुक देखते हुए एक ऐसे स्थावपर आए जहाँ बहुत-सी धूपकी घटियाँ सुगन्धित धूप उद्गिरण कर रही थीं, कुट्टिम भूमि सुगन्धित परिसलसे गमक रही थी; राजाने पूछा-पंडित, यह क्या आपका पूजा- गृह है? पंडितने ईषत्‌ लज्जित होकर जवाब दिया, - महाराज आगे बढ़ें, यह स्थान पवित्र संचारका नहीं है राजा लज्जित हो रहे स्नानके पूर्च मर्दनिक भृत्योंने इस सुकुमार भंगीसे मर्दन किया कि राजा प्रसन्न हो गए सोनेके स्नानपीठपर बड़े आ्डबरके साथ राजाको स्नान कराया गया नाककी साँससे उड़ जाने योग्य वस्त्र राजाकों दिए गए। सोनेक थालमें, जो ३२ कच्चोलकों (कटोरों) से परि-

[३१

वृत था, क्षीरका बना पकवान, क्षीर-तन्दुलका कर, उसीके बड़े और अन्य नाता भाँतिक व्यंजन भोजनकें लिये दिए गए अब राजाकों समझ पड़ा कि जो ऐसी रसोई खांता है उसे मेरी रसोई कैसे झ्च्छी लग सकती थी भोजनके पश्चात्‌ पंच-सुगन्धि नाम ताम्वूल सेवन करके राजा पलंगपर लेटे | यद्यपि शीतऋतुका समय था, पर पंडितके यृहमें कुछ ऐसी व्यवस्था थी कि राजा चन्दनलिप्त होकर रातको बड़े आनन्दर्से मीठी-मीठी व्यजन-वीजित वायुका सेवन करते हुए निद्धित हुए | वे भूल ही गए कि मौसम सर्दीका है. (पुरातन प्रवन्ध, पृ० १७ )। इस कहानीसे यह अनुमान सहज ही होता है कि उन दिनों ऐसे रईस थे जिनका विलास समसामयिक राजाओंक लिये भी आरचर्यका विपय था

१९

ब्राह्मणका कलासे संबंध

भारतव्पक सबसे प्राचीन उपलब्ध सहित्यमें ही ब्राह्मण और विद्याका सम्वन्व बहुत घनिष्ठ पाया जाता हैँ जाति-व्यवस्था जैसी इस समय है वैसी ही बहुत प्राचीन कालमें भी नहीं रही होगी; परन्तु ब्राह्मण बहुत कुछ एक जातिके रूपमें ही रहा होगा, इसका प्रमाण पुराने साहित्यमें ही मिल पाता है ऐसा जान॑ पड़ता है कि पुराने जमानेसे ही भमारतवषंमें विद्या और कलाके दो अलग-अलग क्षेत्र स्वीकार कर लिए गए थे वेदों और ब्रह्म-विद्याका अध्ययन-अव्यापत “विद्या या ज्ञानक रूपमें था और लिखना-पढ़वा. हिसाव लगाना तथा जीवन- यात्रार्मे उपयोगी अन्यान्य वातें कला का विपय समझी जाती रहीं बहुत पह- लेसे ही शिक्षा एक विशेष वेदांयका नाम हो यया था और इसीलिये लिखतना- पढ़ना, हिसाव-किताव रखना विविध भाषाओं और कौशलोंकी जानकारी कला' नामसे चलने लगी थी विद्याका ज्ञेत्र बहुत पहलेसे ब्राह्मणके हाथमें रहा और “कला का क्षेत्र क्षत्रियों, राजकुमारों और राजकुमारियों तथा दैश्योंके लिये

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नियत था। भारतवर्प॑के दीर्घ इतिहासमें यह्‌ नियम हमेशा वना रहा होगा, ऐसा

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सोचना ठोक नहीं है वस्तुतः इस प्रकारकी स्थिति एक खास अवस्थामें रही होगी पुराने साहित्यमें अनेक उदाहरण है, जहाँ ब्राह्मण क्षत्रियोंसे ब्रह्म-विद्या पढ़ते थे। शतपथ ब्राह्मण (११-६-२१-५) से पता चलता है कि याज्ञवल्क्यने जनकसे विद्या सीखी थी। काशीक राजा अजात शत्रुसे वालाकि गाग्यंने विद्या सीखी थी। यह बात वृहृदारण्यक और कौशीतकी उपनिषदोंसे मालूम होती है छान्दोग्यसे जान पड़ता है कि रवेतकंत्‌ आरुणेयने प्रवाहण जैवलिसे ब्रह्म विद्या सीखी थी इस प्रकारके और -भी बहुत-से उदाहरण दिए जा सकते हैं। डायसन जैसे कुछ चोटीके यूरोपियन विचारक तो इन प्रसंगोंसे यहाँतक अनुमान करते है कि ब्रह्मविद्याके मूल प्रचारक वस्तूृत: क्षत्रिय ही थे। यह अनुमान कुछ अधिक व्याप्तिमय जान पड़ता है; परत्तु यह सत्य है कि कर्मकाण्डके उग्र और मृदु विरोधियोंमें क्षत्रियोंकी संख्या बहुत अधिक थी और जिन महान्‌ नेताझ्रोंको भारतवर्ष आज भी याद किया करता है, उनमें क्षत्रियोंकी संख्या बहुत बड़ी है जनक, श्रीकृष्ण, भीष्म, बुद्ध, महावीर- सभी क्षत्रिय थे। महासारतसे तो अनेक शूद्रक्लोत्पन्न ज्ञानी गुरुओंका पता चलता है। मिथिलामें एक धर्मनिष्ठ व्याध परम ज्ञानी थे तपस्वी ब्नाह्मण कौशिकने उनसे ज्ञान पाया था ( वन० २०६ अ्र० ), शूद्रागर्भजात विदुर बड़े नानी थे सतत जातिके लोगमहर्पण, संजय और सौति धर्म-प्रचारक थे सौतिने तो महाभारतका ही प्रचार किया था, परल्तु सम्पूर्ण हिन्दू शास्त्रोंमें प्रधानतः ब्राह्मण ही गुरु रूपमें स्वीकृत पाए जाते हैं यद्यपि जाति-व्यवस्था भारतीय समाजकी अपनी विद्येपता है तथापि संसार भरमें आदिम युगर्में खास-खास कौशल वरगे विश्येषमें ही प्रचलित पाए जाते हैं। इसका कारण यह होता है कि साधारणतः: पितासे विद्या सीखनेकी प्रथा हुआ करती थी इसीलिये विशेष विद्याएँ विशेष-विश्वेय कुलोंमें ही सीमा- बद्ध रह जाती थीं | वेदोंसे ही पता चलता है कि ब्रह्मविद्या और कर्मेकाण्ड आदि विद्याएँ वंश-परंपरासे सीखी जाती थीं बादमें तो इस प्रकारकी भी व्यवस्था मिलती है कि जिसके घरमें वेद और वेदोंकी परम्परा तीन पुश्ततक छिन्न हो उसे दुश्नाह्मिण समझना चाहिए (वौधायन गृहबरपरिभाषा १-१०-५-६) परन्तु नाना कारणोंसे पितृ-परंपरासे शिक्षा-प्राप्तिका क्रम चल नहीं पाया समाजमें जैसे- जैसे धनकी प्रतिष्ठा बढ़ती गई और राजा और सेठ प्रमुख होते गए वैसे-वैसे जानकार्योंसे द्रव्य उपार्जनकी आवश्यकता और प्रवृत्ति भी वढ़ती गई विद्या सिखानेके लिये भी धत मिलने लगा और धघनकी इस वितरण-व्यवस्थाके कारण ही विद्या वंश बाहर जाने लगी ब्रह्मविद्या भी वंशपरम्परा तक -सीमित नहीं रह सकी ।_महाभारतमें दो प्रकारके श्रध्यापकोंका उल्लेख है एक प्रकारके अध्यापक तो श्रपरिग्रही होते थे उनके पास विद्यार्थी जाते थे भिक्षा माँगकर:

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गुरुके परिवारका और अपना खर्च चलाते थे और गृुरुके घरका सव काम-काज करते थे कभी-कभी तो गुरु लोग विद्याथियोंतते बहुत काम लेते थे इसकी प्रतिक्रियके भी उदाहरण महाभारतमें मिल जाते हैं अपने गुरु वेदाचार्यके पास रहते समय उत्तंकको अनेक दु :खपूर्ण कार्य करने पड़े थे जब स्वयं उत्तंक आचार्य हुए तो उन्हें पुरानी बातें याद थीं और उन्होंने अपने विद्यार्थियोंसे काम लेना वन्द कर दिया (आदि ३।८१), परन्तु सव मिलाकर गुरुका अपार प्रेम ही, अपने शिष्यों- प्र प्रकट होता है दूसरे प्रकारके ऐसे श्रध्यापक थे, जिन्हें राजा लोग अपने घरंपर वृत्ति देकर नियुक्त कर लेते थे | द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ऐसे ही भ्रध्यापक थे। द्रोपदी और उत्तराकी कथाओंसे पता चलता हूँ कि राजकुमारियोंके लिए इसी प्रकार वृत्तिभोजी अध्यापक रखे जाते होंगे वौद्धयुगमें भी यह प्रथा पाई जाती है। यह नहीं समझना चाहिये कि केवल कला' सिखानेके लिए ही घरपर अध्या- पक नियुक्‍त किये जाते थे ब्रह्मविद्या सिखानेके लिए भी अध्यापक वुलाकर पास रखनेके उदाहरण मिलते हैं। राजपि जनकने आचार्य पंचशिखको चार. वर्ष- तक घरपर रखा था सम्भवतः उन्होंने कोई वृत्ति नहीं ली थी

२०

स्नान-भोजन

पुराना रईस स्तान नित्य करता था। परन्तु उसका स्नान कोई मामूली व्यापार नहीं था काम-काज समाप्त होनेके वाद मध्याह्से थोड़ा पूर्व बह उठ पड़ता था | पहले तो अपने समवयस्क मित्रोंके साथ मधुर व्यायाम किया करता था, उसके दोनों कपोलोंपर और ललाट देशमें पसीनेकी दो-चार वूँदें सिन्धुवार पुप्पकी मंजरीके समान झलक उठती -थीं, तब वह व्यायामसे विरत होता था परिजनोंमें तव फिर एक वार दौड़-धृप मच जाती थी रईस अपने स्नानागारमें पहुँचता था, वहाँ स्नानकी चौकी होती थी जो साधारणत: संगममंरकी वनी होती थी और वहुमूल्य घातुओंके पात्रमें सुगन्धित जल रखा हुआ रहता था उस समय

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परिचारक या परिचारिंका उसके केशोंमें सुगन्धित आमलक (आँवले) का पिसा हुआ कल्क, धीरे-धीरे मलती थी और दशरीरमें सुवासित -वैल मर्दन करती थी : तागरककी गर्देत या मनन्‍्या तैलका विशेष भाग पाती थी, उसपर देरतक तेलकी सालिश होती थी क्योंकि विश्वास किया जाता था कि बुद्धिजीवी व्यवितकी मन्या- पर तेल्ल मलनेसे मस्तिप्कके तन्‍्तु अधिक सच्षेत होते हैं ? स्नाकझगहनें एक जलकी द्रोणी (टब) होती थी, उसमें रईस थोड़ी देर बैठते थे और बादमें स्नानकी चौकीपर विराजते थे उनके सिरपर सुगन्धित वारिधारा पड़ने लगती थी और तृप्तिके साथ उनका स्तान समाप्त होता था फिर वे सर्पनिर्मोक (केंचुल) के समान दत्रेत और चमकीली घोती पहनते थे धोती अर्थात्‌ धौत वस्त्र | इस ग़व्दका अर्थ है धुला हुआ वस्भ ) ऐसा जान पड़ता है कि तागरकके वस्त्रोंमें सिफे धोती ही नित्य धोई जाती थी, बाकी कई दिन तक अधौत रह सकते थे कुछ दूसरे पंडित धौत' झब्दको अधोवस्त्रका झू्पान्तर मानते हैं ) पुराने जमानेसे ही उष्णीष (पाग), उत्तरीय (चादर) और अधोवस्त्र (धोती) इस देशके नाग- रिकोंके पहनावे रहे है सिले वस्त्र इस देशमें चलते अवश्य थे, यद्यपि कई सूच- कारोंने सिले वस्त्र पहननेका निषेध ही किया है आजकल जितने प्रकारके हिन्दू पहनावोंके वाम हैँ वे अधिकांशमें विदेशी प्रभाववञ्ञ आए हैं अचकन का मूल रूप भी कुषाणोंकी देत है, कुर्ता जिसका एक नाम पंजाबी है, सम्मवतः पंजाबमें बसे हुए हिन्दू-यवनोंकी देन है और कमीज और शेमीज एक ही विदेशी शब्दके रूपान्तर हैँ खेर, उत्त दिनोंका नागरिक धौत-वस्त्र और उत्तरीयका प्रेमी था धौतवस्त्र- का अर्थ धोया जानेवाला वस्त्र ही अधिक उपयुक्त जान पड़ता है इसका कारण स्पष्ट है, क्योंकि नागरकका उत्तरीय या चादर कुछ ऐसा वैसा वस्त्र तो होता नहीं था; उसमें जाने कितने आयासके बाद दीघंकालतक टिकनेवाली सुगन्धि हुआ करती थी इसलिये घौतवस्त्र (घोती) की अपेक्षा उत्तरीय ( चादर ) ज्यादा मूल्यवान होता था भस्तकपर नागरक एक क्षौम वस्त्रका अंगौछा-सा लपेट लेता था जिसका उद्देश्य केशोंकी आद्रता सोखना होता था। यह सब करके नागरक संध्यातपैश और सूर्योपस्थान आदि धामिक क्ियाझ्ोंसे निवृत्त होता था (काद- उबरी कथामुख) - अजल्तामें कुमार गौतमके स्नानका एक मनोहर दृश्य चित्रित किया गया है इसमें कुमार एक स्फंटिककी चौकीपर बैठे हैं दो परिचारक सिरपर सफेद गमछा वांधे पीछेसे पानी ढाल रहे हैं। चौकीके पास ही एक परिचारिका थालीमें कुछ लिये खड़ी है स्नानागारके बगलवाले हिस्सेमें एक भृत्य सुगन्धित जलसे भरा हुआ कलश ले रहा है, कलशके भारसे उसकी गर्दन झुक गई है तीन परिचारिकाएँ और हैं एकक सिरपरसे कुछ द्रव्य एक उतार रही हैँ और

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तीसरी कोई प्रसाधन सामग्री लेकर स्वानागारकी ओर जा रही है स्नानकी चौकी के पास एक और परिचारिकाका अस्पप्ट चित्र है | इसी प्रकार १७वीं गरुहाके एक चित्रमें स्तानके पश्चात्‌ रानीके प्रसाधनका बड़ा ही अभिराम चित्र है। इसमें रानी स्वयं मुकुर लेकर प्रसाधन-नैपुण्यको देख रही हैं। यह चित्र अजन्‍न्ताके उत्तम कलात्मक चित्रोंमेंसे एक है इस प्रकार समान और स्नानोत्तर प्रसाधनके और भी अनेकानेक चित्र उपलब्ध हुए हैं

जैसा कि शुरूमें ही कहा गया हूँ, नागरक स्वान नित्य किया करता था, पर शरीरका उत्सादन एक दिन अच्तर देकर कराता था उसके स्तानमें एक प्रकारकी वस्तुका प्रम्मोग होता था जिसे फेनक कहते थे, वह आधुनिक साबुनका पूर्वपुरुप था। उससे शरीरमें स्वच्छता आती थी, परन्तु प्रतिदिन उसका व्यव- हार नहीं किया जाता था, हर तीसरे दिन फेनकसे स्तान विहित था (का०सू० पृ० ४७ )

स्नान, पूजा और तत्सम्बद्ध अन्य हृत्योंके समाप्त होनेके बाद नागरक भोजन करने बैठता भोजन दो वार विहित था, मध्याक्लको और अपराक्तको यह वात्स्यायनका मत है चारायण सायाक्षको दूसरा भोजन होना ज्यादा अच्छा समझते थे नागरकके भोजनमें भक्ष्य, भोज्य, लेह्य ( चटनी ), चोष्य (चूसने योग्य), पेय सब होता था गेहूँ, चावल, जौ, दाल, मांस सब तरहका होता था, अन्तमें मिठाई खानेकी भी विधि थी भोजन समाप्त करनेके बाद तागरक आराम करता था और एक प्रकारकी धूमवर्ति (चुरुट) भी पीता था धूम्रपानके बाद वह ताम्बूल या पान लेता था और कोई सम्वाहक धीरे-धीरे उसके पैर दबा देता था (कादम्वरी कथा-मुख) सम्वाहनकी भी कला होती थी मुच्छकटिक नाटकके नायक चारुदत्तका एक उत्तम सम्वाहक था, जो उसके दरिद्र हो जानेके बाद जुआ खेलने लगा था चारुदत्तकी प्रेमिका वसन्‍्तसेनासे जब उसका परिचय हुआ तो वसच्तसेनाने उसकी कलाकी दाद देते हुए कहा कि भाई, तुमने तो बहुत उत्तम कला सीखी है इसपर उसने जवाब दिया कि आयें, कला समझकर ही सीखी थी, पर अब तो यह जीविका हो गई है !

ऊपर हमने भोजनका बहुत सं क्षिप्त उल्लेख कर दिया है इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि हमारे पुराने रईसका भोजन-व्यापार बहुत संक्षिप्त हुझा करता था

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२१ धु भोजनोत्तर विनोद

भोजनके बाद दिवा-शय्या (दिनलका सोना) करनेके पहले नागरक लेठे-लेटे थोड़ा मनोविनोद करता था शुक-सारिका (तोता-मैना) का पढ़ाना, तित्तर और बटेरोंकी लड़ाई, भेड़ोंकी भिड़न्त, उसके प्रिय विनोद थे (का० सू० पू० ४७ )। उसके घर में हंस, कारण्डव, चक्रवाक, मोर, कोयल श्रादिं पक्षी; वानर, हरिन, व्याप्न, सिह आदि जल्तु भी पाले जाते थे समय समय पर वह उनसे भी अपना मनोर॑जन करता था ( का० सू० पृ० २८४) इस समय उसके तिकटवर्ती सहचर पीठमद्दे, विट, विदूषक भी जाया करते थे वह उनसे आलाप भी करता था फिर सो जाता था सोकर उठनेके बाद वह गोष्ठी- विहारके लिये प्रसाधव करता था, अंगराग, उपलेपन, माल्यगंध और उत्तरीय सम्भालकर वह गेंष्ठियोंमें जाता था हमने आगे इन गोष्ठियोंका विस्तृत वर्णन किया है। यहाँ उनकी चर्चा संक्षेपममें ही कर ली है ग्रोष्ठियोंसे लौटनेके बाद बह सांध्य कृत्योंसे निवृत्त होता था और सायंकाल संगीतोनुष्ठानोंका आयोजन करता था या अन्यत्र आयोजित संगीतकौ रस लेने जाता था इंव संगीतकोंमे नाच, गान अभिनय आदि हुआ करते थे (का० सू० पृ० ४७-४८) साधारण नागरक भी इन उत्सवोंमें सम्मिलित होते थे मृच्छकटिकर्के रेमिल नामक सुकंठ नागरक- ने साय॑ संध्याक बाद ही अपने घर पर आयोजित संगीतक नासक मजलिसमें गान किया था इन सभाझोंसे लौटनेके बाद भी नागरक कुछ वित्तोदोंमें लगा रहता था परल्तु वें उसके अत्यन्त निजी व्यापार होते थे इस प्रकार प्राचीन भारतका रईस प्रातःकालसे सन्ध्यातक एक कलापूर्ण विलासिताके वातावरणमें वास करता था उसके विलाससे किसी-त-किसी कलाको उत्तेजना मिलती थी, उसके प्रत्येक उपभोग्य वस्तु के उत्पादनके लिये एक सुरुचिपूर्ण परिश्रमी परिचारक- मण्डली नियुक्त रहती थी वह धनका सुख जमकर भोगता था और अपनी प्रचुर घन-राशिके उपभोगमें अपने साथ एक बड़े भारी जनसमुदायकी जीविकाकी भी व्यवस्था करता था वह काव्य, नाटक, आख्यान, आख्यायिका आदिको

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रचनाकी प्रत्यक्ष रूपसे उत्साहित करता था और नृत्य, गीत, चित्र और वादित्रका तो वह शरण रूप ही था। वह रूप-रस-गंध-स्पर्श आदि सभी इन्द्रियार्थोंके भोगने- में सुरुचिका परिचय देता था और विलासितामें झ्राकंठ मस्त रहकर भी धर्म और अध्यात्मसे एकदम उदासीन नहीं रहता था '। उस युगक साहित्यमें भोगक साथ- ही-साथ त्यागका, विलासिताके साथ शौयेका और सौंदय-प्रेमके साथ आत्मदान- का आदर्श सर्वत्र सुप्रतिष्ठित था सब समय आदशेके अनुकूल आचरण नहीं हुआ करता था, परन्तु फिर भी आदछेका महत्त्व भुलाया नही जा सकता

२२ भ्रन्तःपुर

परन्तु कलाओंका सबसे बड़ा आश्रयदाता था राजाओं और रईसोंका अन्तः:पुर | पुरुषोंकी दुनिया उतनी निर्विध्न नहीं होती थी प्रायः ही वास्तविक- ताके कठोर आधात रोमांसके वातावरणको क्षुब्ध कर जाते थे युद्ध-विग्रह, दंगा- फसाद, व्यापार-हानि, चोर डाकुओंका उपद्रव, दूर-दूर देशोंकी यात्रा, लौटनेमें अनिश्चित विव्वास; ये और ऐसे ही अनेक अन्य उत्पात पुरुषोंकी बैठककों चंचल बनाते रहते थे पर अन्‍न्तःपुरतक विक्षोभकी लहरियाँ बहुत कम पहुँच पाती थीं शत्रु और मित्र दोनों ही उन दिनों अन्तःपुरकी शान्तिका सम्मान करते थे प्राचीन ग्रन्थोंसे अनुमान होता है कि राजकीय अन्त:पुरोंमें नाट्य- शालाएँभी होती थीं रामायणके पुराते युगमें ही वधूजन-ताट्य-संघ' की चर्चा मिलती है प्रियदर्शिकार्में जो नाटक खेला गया था और मालविकार्निमित्रमें जिस अभिनय-प्रतिद्व द्विताकी चर्चा है वे अन्तःपुरके रंगमंचपर ही अभिनीत हुए थे। वाच, गान, वाद्य चित्रकारी आदि सुकुमार कलाएँ अन्‍्तःपुरमें जीती थी !

कामसूत्रसे जान पड़ता है कि तत्कालीन नागरकजन अपना घर पानीके आसपास बनाया करते थे (पृ० ४१), पर परवर्ती ग्रन्थोंसे जान पड़ता है कि इस बातको कोई बहुत श्रावश्यक नहीं समझा जाता था घरके दो भाग तो होते

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ही थे। बाहरी प्रकोष्ठ पुरुषोंके लिये और भीतरी प्रकोष्ठ अन्तःपुरकी स्त्रियोंके लिये वराहमिहिरने बृहतु-शंहितामें ऐसे मकान बनानेकी विस्तृत विधि बताई है। साधारणतः ये मकान नगरी के प्रधान राजपथोंकी दोनों ओर हुआ करते थे। अन्‍्तःपुरकी वधुएँ ऊपरी तल्लेमें रहा करती थीं, क्योंकि प्राचीन काव्यों और नाठकोंमें किसी विशेष उत्सवादिक देखनेके सिलसिलेमें ऊपरी तल्लेके गवाक्षों- से अ्रन्त:पुरिकाश्रोंके देखनेका वर्णन प्राय: मिल जाया करता है। अन्‍्त:पुरके ऊपरी तल्लेक घरोंमें गवाक्ष मिश्चित झूपसे रहते थे राजपथकी ओर गवाक्षोंका रखना आवश्यक समझा जाता था ये अन्‍्तःपुरके ऊपरी तल्लेके गवाक्ष कुछ ऊँचेपर बैठाए जाते थे मालती-माधवकी मालती ऊपरके तल्लेपरसे माघवको रथ्या (रथर्क चलते लायक चौड़ी सड़क) मार्गसे भ्रमण करत हुए देखा करती थी देखनेवाला वातायन तुंग” था अर्थात्‌ ऊँचाईपर था ऊँचेपर बनानेका उद्देश्य संभवतः यह होता था, कि अत:पुरिकाएँ तो वाहरकी ओर देख सके, पर बाहरके लोग उन्हें देख सकें प्रथम अंकमें कामन्दकीक कहें हुए इस श्लोक- से यही अनुमान पुप्ट होता है

भूयोभू य:. सविधनगरीरध्यया. पर्येटन्तें

दृष्ट्वा दृष्ट्‌वा भवनवलभीतुगवातायनस्था

साक्षात्काम॑ नवमिव रतिर्मालती माधव ततू

गाढोत्कण्ठालुलितलुलितिरज्भुकैस्ताम्यतीति ॥।

, जो महल नदीके किनारे होते थे उनमें उस ओर जालीदार गवाक्ष लगें रहते थे इन जालीदार गवाक्षोंसे बधुएँ तदीकी चंचल तरंगोंकी शोभा देख सकती थीं सुनन्‍्दाने इन्दुमतीको इन जालीदार गवाक्षोंसे जलवेणि-सी-रमणीय तरंगों वालीं रेवाकी चटुल शोभा देखनेकी कहां था, जो माहिप्मतीके किलेके नीचे- करधनीकी भाँति लिपटी हुई थी जिस राजाके भ्रासाद-गवाक्षोंसे इस सुन्दर शोभाका देखना संभव था उसकी अंक-लक्ष्मी होना सौभाग्यकी बात थी-

प्रस्यांकलक्ष्मीभव दीघेवाहोर्माहिष्मतीवप्रनितम्वकाज्चीम्‌

प्रासादजालैज॑लवेरिएरम्यां रेवां यदि प्रेक्षितुमस्ति कार्म. | (रघु० ६.४३ ) पर इन्दमतीकी ऐसी इच्छा हुई नहीं अस्तु | इस प्रकार के गृहका फाटक बहुत भच्य और विश्ञाल हुआ करता था। नाठकीं, काब्यों आदियें जो वर्णन मिलता हैं उसमें थोड़ी अतिरंजना हो सकती है, क्योंकि बहुत प्राचीन कालसे भारतीय कविने इस सहज-सीधी वतिकों जाब लिया था कि कला-वस्तु केवल वास्तवका अदुकरण नहीं हूँ उसमें कुछ क़त्रिम मूल्योंका आरोप करना पड़ता हैं। कवि-कौशल उन मल्योंके उपयोग और सजावटमें है सो इत रचनाशरोंमें कल्पित मूल्य अवश्य है। उतना हिरसा छानकर भी हम कुछ बात जान सकते हूँ

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साहित्यिक वर्षनोंकों देखकर अनुमाव किया जा सकता हैं कि सामनेंकी भूमिको पहले पानीसे आदर करके वादे झड़ दिया जाता था और उसके ऊपर गोबरसे लीप दिया जाता था भूमिका भाग या मकानकी चौकी को वानो प्रकारके सुगन्वित पुष्षों और रंगे हुए चावलोंसें सुसज्जित किया जाता था ऊँचे फाटकके ऊपर गजदन्तों (खूँटियों) में मालतीकी माला मनोहर भंगीमें लटका दी जाती थी फाटकके ऊपर उपरलें तल्लेका जो वातायन (खिड़की) हुआ करंता था उसके नीचे मोतिबोंकी (या कम-से-कम फूलोंकी) माला लटकती रहती थीं तोरुफकके कोनोरनें हाथीकी मूर्तिबाँ बनी होती थीं जो अपने दाँतोंपर या सूंडपर

च्शसनट्ा हुई ल्ज्जज पड़ती थीं मच्छ डक मटकाट कम कत ५2. ईसवी द्सरी 9. भार धारण करती हुई जान पड़ती थीं (मृच्छ० चतुर्थ अंक ) ईसवी पूर्व दसेर्र

ब््््ीट्+ पड सपतोरण 2० अल्ट्रा सांचीमें पाया गया बजट जिसमें ह्वा हम 3 अत्यन्त इताकः एक दछारण ब्र कंद सांचाम पाया नया हू, जिंसम हाथाक सामने अत्यन्त सुकुमार भंगीमें एक स्त्री-मूर्ति वृक्षकाखा पकड़ कर खड़ी है इस प्रकारकी नारी- मूर्तियोंकी तोरणशाल-मंजिका कहते थे झालभंजिका पुतली या मूर्तिको भी

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कहते हूँ और वेब्याको भी सन्‌ इंसदीकी दूसरी झताव्दीकी एक तोरणशाल- भंजिका मिली हैँ, जिसका दाहिना चरण हाथीके कुंमपर है और वाँया जरा ऊपर उठे हुए सूंड़ पर अध्वघोषके वृुद्धचरितमें खिड़कीके सहारे लेटी हुई घनुपाकार झुकी हुईं नारीकी तोरण-झाल-भंजिकासे उपमा दी गई अवलंवब्य गवाक्षपारवँमन्या शबयिता चापविभुनतग्रात्रबष्टि: विरराज विलंविचारुह्मरा

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रखिता तोरणशालमण्जिकेव

(२५, ५२) काब्यों नाव्कों -+ मतियों झ््ज पैर प्रासादो्क भग्नावशेंयोंसे श्ाज्य उत्ध अनमान -+ काय्या, नादका, मातिया आरि ब्रासादाक मग्तावशपास यह अनुमा

पप्ट पे होता 3 ६: तागत्तकिके मकानम ज््त्प नआनंिडठाडाउक- भंजिकाओंक ड्द््त्डी दि विधि रूपकी दे लता हूं [दी तागारकंक मकानम तारणझाल-माजकाश्राक वावब रूपक॑े मनोहर मंगिमाएँ पाई जाती होंगी साथधारणतः तोरफ-द्वार महारजन या कृसुंधी रगने पुता होता था, प्रत्येक गृहपर सौभाग्यपताकाएँ भी फहराती रहती थीं (मृच्छ० चतुर्य अंक ) तोरणस्तम्भके पाउ्वसें वेदियाँ बनी होती थीं,

जिनपर नग्न स्फंटिकर्क “अली अब मंगल-आऋलतचा नम ली ०७० 4 ध्त हक मजा नल डी कलमनोंको हल. भर न्ग्ज् जनपर स्फाटकक झगंले-कलशा सुभा्त रहते थ॑ इस कलमाका जलदस भर

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कनननकमक, जाता लक जज आर --- जा ५० मच आहऊ्- >पल्लव 3 अल बल आच्छ दन हि लत हि 2 अत्यन्त अल ललाम कु दिया जाता था और ऊपर हरित आऊ़-पल्लवसे आच्छादन करके अत्यन्त ललाम

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०-०5. लकी पल अंक; दविझाल प्र रहें डे 2 कमी पाज+

बड़नलड़ हावझवाजार थे विशाल उाराह थ। सड़कके दाता आर सन्दर-सन्दर महल बहनें हए थे, जिससे सकती बोन। अपन नम घी थे प्रासाद स्फट्किसे

महल बच हुए थ, उससे सड़काका माना बढ़ रहा थी। वें प्रासाद स्फटिक

४० ||

निर्मित थे, उनके फर्श वैडूर्य मणिक थे वे सुवर्णजटित प्रवालस्तंभोंपर टिके हुए थे। उनमें लाल पत्थरोंकी देहलियाँ बनी हुईं थीं -बाहर मोतीकी झालरें टँगी हुई थीं, प्रत्येक्त भवनमें सुवर्णके स्तंभोंपर सौभाग्यपताकाएँ लहरा रही थीं, मणि- जटित सुवर्णक कलश प्रत्येक भवनकी शोभा बढ़ा रहे थे इस वर्णनमें सुवर्ण और मणिकी अतिरंजना कम कर दी जाय, तो साधारण नागरकोंके घरका एक, चित्र मिल जाता है '। उन दिलों पूर्ण कुंभ-स्थापनाकी प्रथा इतनी व्यापक थी कि कवियोंने उपमाके लिये उसका व्यवहार किया हैं। हालने प्रेमिकाके हृदय- मंदिरमें पधारनेवाले प्रेमीके लिये सुसज्जित पूर्ण कुंभकी जो कल्पना की थी वह इसी प्रथाके कारण - रत्यापइण्णणत्रणुप्पला तुम॑ सा पडिन्छए एतम दारणिहिएहि दोहि वि मंगलकलसेहिं थणेहिं ।। (गाथा० २-४० ) इन वेदियोंके पीछे विशाल कपाट हुआ करतें थे और दूरसे प्रासादके भीतर जानेवाली सोपान-पंक्तियाँ दिखाई देती थीं सीढ़ियोंपर चन्दन-कपूर आदिके संयोगसे बना हुआ सुगन्धित चर्ण बिछा रहता था। इन्ही सीढ़ियोंके आरम्भ- स्थानके पास दौवारिक या हारपाल बैठा रहता था घरकी दहलीपर दधि और भात या अन्य खाद्य वस्तु देवताओ्रोंको दी हुई बलिके रूपमें रख दी जाती थी, जिसे या तो काक खा जाते थे या घरके पाले हुए सारस, मयूर, लाव, तित्तिर आदि पक्षी (मृच्छ-चतुर्थ अंक )। चारुदत्त जब दरिद्र हो गया तो इस देहलीमें तृणांकुर उत्पन्न हो आए थे संस्कृतके काव्योंमें जिन अन्तःपुरोंका वर्णन मिलता है वें साधारणतः बड़े-बड़े राजक्‌लोंके या अत्यधिक संञ्ञात लोगोंके होते है'। इसीलिये संस्क्ृतका - कवि इनका वर्णन बड़े ठाट-बाटसे करता है अन्तःपुरके भीतरी भागकी बनावट कैसी होती होगी इसका अनुमान ही हम काव्यों-नाटकों आदिसें कर सकते हैं मुच्छकटिकका विदूषक अभ्यन्तरचतुःशाल या अन्तःचतुःशालके द्वारपर बैठकर पक्‍वान्न खाया करता था इस अन्तःचतुःशाल शब्दसे अनुमात किया जा सकता है कि भीतर एक आँगन होता छीगा और उसके चारों ओर दालाएँ (घर) बनी होती होंगी वराहमिह्िर अच्तःपुरसे आँगनके चारों अलिन्दों या बरामदोंकी व्यवस्था देते हैं। इन बरामदोंके खंभे शुरूमें लकड़ीक हुआ करते थे, बादमें पत्थर और ईटके भी बनने लगे थे इन खम्भोंपर भी शाल-मंजिकाएँ बनी होती थीं ये मधियाँ सौभाग्य-सचक होती थीं रामायण (बालकाण्ड वाँ सर्ग ) में आदि कविने अयोध्याक वर्णनके प्रसंगमें वधू-नाटक-संघों, उद्यानों, कूटागारों और विमानगृहोंकी चर्चा की है टीकाकार रामभट्टने वधूनाटक-संघका अर्थ किया हैं

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वधुशोंक लिये बनी हुईं नाटकशाला; उद्यानका अर्थ किया हूँ क्रीड़ाके लिये बन- चाई हुईं पृष्पवाटिका; कूटागार शब्दका अथ्थे बताया है स्त्रियोंके क्रीड़ा-गृह और विमानगुृहका अर्थ किया है सप्तभूमि या सात तललोंके मकान इससे अनुमान किया जा सकता है कि रामायण-रचनाके कालमें भी विशालर प्रासादोंके अन्तः पुरोंका रूप उत्तना ही भव्य था जितना परवर्ती काव्योंमें हैं रघुवंशके सोलहवें समेमें इन योपित्‌-मूतियोंकी बात है (१६-१७) साँची, भरहुत, मथुरा, जागय- पेट, भूतेश्वर आदिसे खम्भों श्रौर रेलिगोंपर खुदी हुई बहुत शालभंजिकाएँ पाई गई हैं। प्राने काव्यों में अन्तःपुरिकाओंकी परिचारिकाओंके जो विविध क्रिया- कलाप हैं, वे इन मूर्तियोंमें देखे जाते है अनुमान होता है कि अन्तःचतुःशालाके खम्भोंपर जो मूर्तियाँ उत्कीर्ण रही होंगी उनमें भी श्रृंगार और मांगल्यके व्यंजक भावोंका ही प्राधान्य रहता होगा ।,

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भ्रन्त:पुरकी वृक्ष-वाटिका

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इस शअ्रन्त:पुरसे लगी हुईं एक वृक्ष-वाटिका हुआ करती थी इसके बीचों-बीच एक दीघिका या लंबा तालाब रहा करता था जगह कम हुई तो कुएँ या बावड़ीसे ही काम चला लिया जाता था, पर आज हम उन लोगोंकी बात नहीं करने जा रहे है जो भाग्यदेवीके त्याज्य-पुत्र हैँ इसलिये कामचलाऊ चीजें बनाने- वालोंकी चर्चा करके इस प्रसंगका छोटा नहीं बनने देंगे तो इस वृक्ष-बाटिकामं फलदार वृक्षोंकें सिवा पुष्पों और लताकुज्जोंकी भी व्यवस्था रहती थी फूलके पौधे एक कऋ्रमसे लगाए जाते थे वासमगृहके श्रासपास छोटे-छोटे पौधे, फिर क्रमश: बड़े गुल्म, फिर लता-मंडप और सबसे पीछे बड़े-बड़े वृक्ष हुआ करते थे एक भागमें एक ही श्रेणीके फूल लगाए जाते थे। अन्धकारमें भी सहृदय नागरक- को यह पहचाननेमें आयास नहीं होता था कि इधर चम्पकोंकी पाली है, यह सिंधु- वारका मार्ग है, इधर बकुलोंकी घनी वीथी है और इस ओर पाटल पुष्पोंकी पंक्ति

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पालीयं चम्पकानां नियतमयमसौ सुन्दर: सिन्धुवार: सानद्रा वीथी तथेयं वकुलविटपिनां पाटला पंक्तिरेपा आप्रायात्राय गन्धं विविधमधिगतैः पादपैरेवमस्मिन्‌ व्यक्ति-पंथा: प्रयाति द्विगुणतरतमोनिह नुतो<्प्येप चिह्नेः बे ( रत्नावली ३-५३ ) गृह-स्वामिनी अपनी रंधनशालाके काम लायक तरकारियाँ भी इसी वाटिकाके एक अंशसे उत्पन्न कर लेती थीं वात्स्यायनके काम-सूत्र (पूं० २२८) में बताया गया है कि वे इस स्थानपर मूलक (मूली), आलुक (कन्द), पलंकी (पालक), दमनक (दवना), आज्रातक (आमड़।), ऐवकिक (फूटी), त्रपुष (खीरा), वातकि (बैगन), कुप्मांड (कुम्हड़े), अलाबु (कह्द, सूरण (सूरन), शुकनासा (अगस्ता), स्वयंगुप्ता (केंवाछ), तिलपणिका (शाक विशेष), अग्ति- मन्थ, लशुन, पलाण्डु (प्याज) आदि साग-भाजी उगाती थीं इस सूचीसे जान पड़ता है कि भारतवर्ष आजसे दो हजार वर्ष पहले जो साग भाजियाँ खाता था वे अब भी बहुत परिवर्तित नहीं हुईं है इन साग-भाजियोंके साथ ये मसाले भी गृह- देवियाँ स्वयं उत्पन्न कर लेती थीं-जीरा, सरसों, अजवायन, सौंफ, तेजपात झादि वाटिकाके दूसरे भागमें कुब्जक (मालती ? ) आमलक, मल्लिका (वेला) जाती (चमेली ? ) कुरण्टक (कटसरैया ), नवमालिका, तगर, जपा आदि पृप्पीर्के युंल्म भी गृहदेवियोंक तत्त्वावधानमें ही उगते थे ये पुष्प नाना कार्योंमें काम झाते मे इनसे घर सजाया जाता था, जल सुगन्धित किया जाता था, नव-वधुओंका वासक-वेश तैयार होता था, स्थंडिल-पीठिकाओंको सजाया जाता था और सबसे बढ़कर देव-पूजाकी क्रिया सम्पन्न होती थी वृक्ष-वाटिकाकी पुष्पिता लताएँ कुमारियोंका मनोविनोद करतीं थीं, नवदम्पतीके प्रणय-कलहमें शर्तें बनती थी और निराश प्रेमिकार्के गलेमें फाँसिका कास भी करती थी (रत्नावली तृतीय अडू:) ! अनुरागी नागरक और उसकी प्रियतमामें पुप्पोंर्के प्रस्फुटतको लेकर वाजी लगती, नावा कौशलोंसे मन्त्र और मणशिके अयोगसे, प्रियाके दर्शन, वीक्षण, पंदाघात आदिसे नाना वृक्ष-लताओंमें अकाल-कुसुम उद्गत होते थे जब प्रेमी हारते थे तो उन्हे प्रियाका श्टंगार कर देनेकी सख्त सजा मिलती थी, और जव प्रेमिकायें हारती थीं तो सौतकी भाँति फूली हुई अनुरागभरी लताकों वारम्बार आग्रहपूर्वक निहारनेवाले प्रियवमकों देखकर उनका मुँह लाल हो उठता था- उद्दामोत्कलिकां विपाण्डुररुचं प्रारव्धजृम्भां क्षणात्‌ आयासं - झ्वसनोदुगमेरविरलैरातन्वतीमात्मनः

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अद्योद्यानततामिमां समदनां नारीमिवान्यां श्रुर्वे पश्यन्कोपविपाटलयुतिमु्ख देव्या: करिप्याम्यहम्‌ (रत्नावली, द्वितीय अच्ू) वृक्ष-त्राटिकाके अन्तिम किनारेपर बड़े-बड़े छायादार वृक्ष-जैसे अशोक, अरिप्ट पुन्नाग, शिरीप आदि लगाए जाते थे वयोंकि इनको मांगल्य वृक्ष माना जाता था (बृ० सं० ५५-३) और वीचों-बीच गृह-दीधिका हुआ करती थी इन दीधिकाओं (तालाबों) में नाना भाँतिके जल-पक्षियोंका रहना मंगल-जनक माता जाता था इनमें कृत्रिम भावसे कमलिची (पत्र-पुप्प-लतासमेत कमल) _ उत्पन्न की जाती थी। वराहमिहिरनें लिखा हैँ कि जिस सरोवर में नलिनी (कमलिनी ) रूप छत्रसे सूर्य-किरणें निरस्त होती हैं; हंसोंके कघोंसे धकेली हुई लह- रियाँ कल्हारोंसे टकराती है; हंस, कारण्डव, क्रॉंच और च॒क्रवाकगण कल-निनाद करते रहते है, और जिसके तटान्तकी वेत्रवन-छायामें जलचर-पक्षी विश्र/म करते हैं; ऐसे सरोवरोंक निकठ देवतागण प्रसन्न भावसे विराजते हूँ (बृ० सं० ५६-४-७) अनुमान किया जा सकता हैँ कि दीधिकाग्नोंके तट्पर बेंतके कुझऊ्ज जरूर रहते होंगे काव्योंगें ऐसे वेतस-कुण्जोंकी चर्चा प्रायः पाई जाती है इन्हीं दीघिकां- के वीचमें समुद्रगृह वनाए जाते थे कामसूत्र (पृ० २८३-४) की गवाहीपर हम कह सकते है कि समुद्रगृह पानीमें वता करता था, उसमें गुप्त भावसे पानीके संचारित हो जानेकी व्यवस्था रहा करती थी

शर्४ड दोला-विलास

वात्य्यायनसे पता चलता है (का० सू० पृ० ४४) कि इस वाटिकामें सघन छायामें प्रेंखा-दोला या झूला लगाया जाता था और छायादार स्थानोंमें विश्वामके लिये स्थंडिल-पीठिकाएँ (वैठनेके आसन) बनाई जाती थीं, जिनपर सुकुमार कुसुमदल विछा दिए जाते थे। ब्रेंखा-दोलाकी प्रथा वर्षा ऋतुमें ही अधिक थी सुभापितोंमें वर्षा ऋतुके वर्णनके अवसरपर ही प्रेंखा-दोलाओंका वर्णन

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पाया जाता है : आज भी सावनमें झूले लगाये जाते हैं वात्स्यायनने जो छाया- दार वृक्षोंकी घनी छायामें झूला लगानेको कहा है सो इसी वर्षासे बचनेके लिये ही वस्तुत: वर्षाकाल ही प्रेंखा-विलासका उत्तम समय हूँ द्युलोक और भूलोकमें समानात्तर क्रियाओंके चलनेकी कल्पना कवियोंने इस प्रेंखा-विलाससे की है, और कौन कह सकता है क्रि जब कमल-तयनाशञ्रोंकी आँखें दिशाओंकों कमल-फूलकी आरतीसे नीराजित कर देती होंगी, आनन्दोललासके हाससे जब चन्द्रिकाकी वृष्टि करती रहती होंगी और विद्युदुगौर कान्तिवाली तरुणियाँ तेजीसे झूलती रहती होंगी तो आकाशमें अचानक विद्युत चमकनेंका भान नहीं होता होगा ?--

दुशा विदधिरे दिशः कमलराजिनीराजिता:

कृता हसितरोचिषा हरति चन्द्रिकावृष्टयः

अकारि हरिणीदृशः प्रवलदण्डकप्रस्फुरदू-

वपुविपुलरोचिषा वियत्ति विद्युतो विश्रमः ॥।

श्र भवन-दीधिका, वृक्षवाटिका और कीड़ापर्व॑त

भवन-दीधिकाक अर्थात्‌ घरमें वनाए हुए तालाबके एक पाइवँ्में क्रीड़ा-

पव॑त हुआ करते थे, जिनके इदं-गिदं पाले हुए मयूर मँडराते रहते थे। यहाँ अन्तःपरिकाएँ नाता भाँतिकी बिलास-लीलाओंसे मनोविनोद करती मग्न रहती थीं। कामसूत्र जिन समुद्र-गृहोंका उल्लेख है वें संभवतः भवन-दीधिकाके पास ही या भीतर बना करते थे इन घरोंमें गुप्त मार्गसे निरन्तर पानी जाते रहनेकी व्यवस्था रहती थी, जिससे ग्रीष्मकालमें भी इनमें ठंडक बनी रहती थी कहते हैं, - विष्णु-स्मृति्मों (५ ११७) इन्हीं समुद्र-गृहोंकोी भेदनेवालोंको दण्ड देनेकी व्यवस्था हैँ कालिदासने रघुवंशमें जल-कीड़ाके प्रसंगमें कुछ गूढ़-मोहन-गृहों' का वर्णन किया है इन गूहोंमें भवन-दीधिकाका पानी सुप्त मार्गसे जाया करता था इन गूढ़-मोहन गृहोंमें सदा शीतलता बनी रहती थी, (रघु० १६-६) अनुमान

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किया जा सकता हूँ कि जिन लोगोंको नदी सुलभ रहती हैं वे लोग इस कार्यके लिये नदीके पानीका भी अवश्य उपयोग करते होंगे और संभवत “गंगायां घोष:” भुहावरेक मूलमें ऐसे ही घर हों इन्हीं दीधिकाओोंसे धारायंत्रको भी पोषण मिला करता था उनका स्थान तो वाटिकामें रहता था, पर उनके सदा जलोदुगारी होनेका सौभाग्य भवन-दीघिकाके जलके कारण ही हुआ करता था। वाटिकाके इस धारायस्त्र या फव्वारेसे अन्तःपुरिकाएँ होलीके दिनों अपनी पिचकारियोंमें जल भरा करती थीं और अबीर और सिन्दूरसें उसकी जमीनको लाल-लाल कीचड़से आच्छादित कर देती थीं ( रत्ना० प्रथक अंक ) इन फव्वारोंमें जल- देवताएँ हंस-मिथुन या चक्रवाक-मिथुन बने होते थे, जो जलघाराको उच्छवसित करते रहते थे अलकापुरीमें मेघदूतकी यक्षिणीके अन्तःपुरमें एक ऐसी ही वाटिका थी जिसमें यक्ष-प्रियाने एक छोटे-्से मन्दार वृक्षको-जिसके पुष्पस्तवक हाथ-पहुँच- के भीतर थे-पुत्रवत्‌ पाल रखा था (मेघ० २-८० ) इस उद्यानमें मरकत-मणि- योंकी सीढ़ीवाली एक वापी थी जिसमें वैदूर्यमणिके नालोंपर स्वर्ण कमल खिले हुए थे और हंसगण विचरण कर रहे थे इस वापीक तीरपर एक कीड़ा-पर्वत था। वह इन्द्रनीलमणिसे निर्मित था और कनक-कदलीसे वेप्टित था। क्रीड़ा- पवेत वर्षकालके लिये बना करते होंगे अग्निवेश वर्षाकालमें कुटज और शअर्जुन- की माला धारण करके और कदंब-रजका प्रसाधन करके कृत्रिम कीड़ा-पर्वतोंपर विहार किया करता था उन दिनों क्रीड़ा-पवंतपर रहनेवाले पालित मयूर मेघ- दर्शनसे प्रमत होकर नाच उठते थे- अंसलंबिकुटजाजु नस्रजस्तस्य त्तीपरसांगरागिण: प्रावृषि प्रमदबाहिणेष्वभूत्‌ क्ृत्रिमाद्विषु विहारविश्रमः ॥। (रघु० १६-३७) वाटिकाक मध्य भागमें लाल फूलोंवाले अशोक और बकुलके वक्ष थे; एक प्रियाके पदाधातसे और दूसरा वदन-सदिरासे उत्फुल्ल होनेकी आकांक्षा रखता था (मेघ० २-८६ ) इसमें माधवीलताका मंडप था जिसका बेड़ा (वृति) कुरबक या पियावसाके झाड़ोंका था कुरबकक्क झाड़ निश्चय ही उन दिनों उद्यानों और लता-कुंजोंके बेड़ेका काम करते थे शकुन्तला जब प्रथम दर्शनमें राजा दुष्य- न्तकी प्रेम-परवश हो गईं और सखियोंके साथ विदा लेकर जाने लगी तो जान- बूझकर अपना वल्कल कुरबककी काँटेदार शाखामें उलझा दिया था ताकि उसके सुल- झानेके बहाने फिरकर एक बार राजाको देखनेका मौका मिल जाय निरचय ही शकुन्तलाके उद्यानका बेड़ा कुरबक पुप्पोंके झाड़ोंका रहा होगा और बेड़ा पार करके चले जानेपर राजाका दिखाई देना सम्भव नहीं रहा होगा, इसलिये चलते- चलते मृस्धा प्रेमिकाने अन्तिम वार कौशलका सहारा लिया होगा इसी प्रकार-

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के कुरबकके वेड़ेवाले मंडपमें ही सोनेकी वास-यप्टिपर यक्षप्रियाका वह पालतू मयूर बैठा करता था, जिसे वह अपनी चूड़ियोंकी मंजुध्वनिसे नचा लिया करती थी। उन दिनोंक गृह-पालित पक्षी निश्चय ही बहुत भोले होते होंगे, क्योंकि मयूर चूड़ियोंकी झनकारसे नाच उठता था (मेघ० २-८७ ), भवन-दीघिकाका कलहंस नूपुरोंकी रुनझुनसे कोलाहल करने लगता था (कादम्बरी, पूर्वभाग) और मुग्ध सारस रसना (करधनी) के मधुर रसितसे उत्सुक होकर अपने क्रेंकारवसे वायु- मण्डल कॉपा देता था (काद० पूर्व०) बहुत भीतर जानेपर यक्षप्रियाके शयन- कक्षके पास पिंजड़ेमें मधुरभाषिणी सारिका थी, जिससे वह यदा-कदा भ्रपने प्रियकी बातें पूछा करती थी (मेघ० २-८७) साँची-तोरणपर जो ईसवी पूर्व दूसरी शताव्दीकी उत्कीर्ण प्रतिकृतियाँ पाई गई हैँ उनमें कनक-कदलीसे वेप्टित ऐसी भवन दीधिकाएँ भी पाई गई हो और वन्य-वृक्षके छायातले क्रीड़ा-पर्वत भी पाए गए हे जिनमें प्रेमियोंकी प्रेमलीलाएँ बहुत अभिराम भावसे दिखाई गई हैं। रेलिंगों और स्तम्भोंपर हस्तप्राप्प सतवक-नमित मन्दार वृक्ष भी हैं और पंजरस्था सारिकावाली प्रेमिका यक्षिणी भी इस प्रकार जिस युगकी कहानी हम कह रहे हूँ उस युगमें ये बातें बहुत अधिक प्रचलित रही होंगी, ऐसा अनुमान होता

हँ।

२६ बाग-बगीचों और सरोवरोंसे प्रेम

यही नहीं समझना चाहिए कि बड़े आादमियोंके अन्त:पुरमें ही बाग-बगीचे और सरोवर हुआ करते थे उन दिनोंके किसी भी नगरका वर्णन देखिए तो बाग़- बगीचों और सरोवरोंके प्रति जनताका अनुराग प्रकट होता है कपिलवस्तुके बाहर पाँच-सौ वगीचे थे, वाल्मीकिकी अयोध्या उद्यानोंसे भरी हुई थी और कालि- दासकी उद्यान-परंपरावाली उज्जयिनीका तो कहना ही क्या स्कंदपुराणमें अवन्ती-खंडमें भी इस उद्यान-परंपराका बड़ा मनोहर वर्णन है उद्यानोंकी इन

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लोभनीय शोभाने पुराणकारके चित्तमें भावावेगका कम्पन उत्पन्न किया था और उनके वर्णनमें पुराणकारकी कविप्रतिभा मुखर हो उठी है-“फूली हुई लताओ्रोंसे आच्छादित तरु-समूह प्रियाओंसे आलिगित सुभगजनोंकी भाँति ग्योभ रहे थे, पवनान्दोलित मंजरियोंसे सुशोभित आम और तिलकके तरु सुजनोंकी 'भाँति प्रेमालाप से करते जान पड़ते थे, पुष्प और फल-भारसे समृद्ध वृक्ष-समूह उन सज्जनोंकी भाँति लग रहे थे जो अपना सर्वस्व दूसरोंको देनेमें प्रसन्न बने रहते हूँ, अमृत-वल्लरियोंपर बैठे हुए-भ्रमर हवाह्वारा हिलाई लत़ाओ्रोंपर इस प्रकार नाच रहे थे मानो प्रियतमाके साहचर्यसे मदमत्त कोई प्रेमीजन हो ....] / इस प्रकार पुराणकारकी भाषा अवाध भावसे वन्-शोभाका वर्णन करती हुईं धकना नहीं जानती और फिर उज्जयिनीके हर वाजारमें वापियाँ, कुएँ, मनोहर सरोवर आदि जलाशय थे जिनमें अनेक प्रकार॒के जलजन्तु विहार कर रहे थे और लाल-तीले और इवेंत कमल खिलकर शोभा बढ़ा रहे थे नाना प्रकारके हंस क्रीड़ा कर रहे थे। भवन-दीधिकाओरंके जलकी सहायतासे फव्वारे बने हुए थे कहीं मदमत्त मयूर नाच रहें थे तो कहीं मदविह्लला कोकिला कूक रही थी | गृह- वाटिकाओोंके पुष्पस्तवकोंपर भ्रमरगण गुंजार कर रहे थे और सदाचारिणी कुल-वधुएँ कहीं किनारे वैंठकर, कहीं नीचेंसे और कहीं निकटवर्ती महलोंके छज्जोंसे इस झोभाका आनन्द उठा रही थीं सुनन्‍्दाने इन्दुमतीको लुभानेका एक प्रधान साधन उज्जयिनीकी उद्यान-परम्पराश्रोंको बताया था जो क्षिप्रा- तरंगसे शीतल बनी हुईं हवासे नित्य कम्पित हुआ करती थी --- अनेत यूना सह पाथ्थिवेन रम्भोरु कच्चिन्मनसो रुचिस्ते सिप्रातरद्धानिलकम्पितासु विहत्तुमुद्यानपरम्परासु ।। (रघु० ६३४ ) अवश्य ही, इन्दुमती इससे प्रलुब्ध नहीं हो सकी थी शायद इसलिये कि ऐसी उद्यान-परंपराएँ तो सभी राजघानियोंमें थीं और सिप्रा-तरंग कालिदासकों कितने भी प्रिय क्‍यों हो, सरयू-तरंगोंसे अधिक मोहक नहीं थे गंगा-तरंगोंसे तो एकदम नहीं !

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२७ ग्रन्त:पुरका सुरुचिपुर्णो जीवन

बाणभट्टकी कादम्बरीमें एक स्थानपर अन्तःपुरका बड़ा ही जीवन्त और

रसमय वर्णन है इस वर्णनसे हमें कुछ काम लायक बातें जाननेको मिल सकती है, वैसे यह वर्णन उस किन्नर लोकका है जहाँ कभी किसीको कोई चिन्ता नहीं होती वह उन वित्तेशोंका अ्न्त:पुर है जिनके विषयमें कालिदास कह गए हूँ कि वहाँ किसीकी आँखोंमें अगर आँसू आते हैँ तो आनन्दजन्य ही, भर किसी कारणसे नहीं; प्रेम-बाणकी पीड़ाश्रोंके सिवा वहाँ और कोई पीड़ा नहीं होती और यह पीड़ा होती भी है तो इसका फल अभीष्ट व्यक्तिकी प्राप्ति ही होता है। वहाँ प्रेमियोंमें प्रणय-कलह॒के क्षणस्थायी कालके श्रतिरिक्त और वियोग कभी नहीं होता और यौवनक सिवा और कोई अवस्था उन लोगोंकी जानी हुईं नहीं है --

आनन्दोत्यं नयनसलिलं यत्र नान्यैनिमित्तै:

नान्यस्ताप:. कुसुमशरजादिष्ट्संयोगसाध्यात्‌

नाप्यन्यस्मात्‌ प्रणयकलहाहदियग्रयोगोपपत्ति-

वित्तेशानां खलुच वयो यौवनादत्यदस्ति

(मेघ० २-४ ) तो ऐसे भाग्यशालियोंके भ्रन्त:पुरमें कुछ बातें ऐसी जरूर होंगी जो हमारी समझके बाहरकी होंगी उस अच्त:पुरमें कोई लवलिका केतकी (केबड़े) की पुष्प- धूलिसे लवली (हरफा रेवड़ी) के आलवालोंको सजा रही थी, कोई गन्ध-जलकी वापियोंमें रत्नवालुका निश्षेप कर रही थी, कोई मृणालिका कृत्रिम कमलनियोंके यन्‍्न्रचक्रवाकोंके ऊपर कुंकुमरेणु फेंक रही थी, कोई मकरिका कर्पूर- पल्‍लवक्के रससे गन्ध पात्रोंको सुवासित कर रही थी, कोई तमाल-वीथिकाके श्रन्धकारके मणियोंके प्रदीप सजा रही थी, कोई कुमुदिका पक्षियोंके निवारणके लिये दाड़िम फलोंको मुक्ताजालसे अवरुद्ध कर रही थी, कोई निपुणिका मणि-पुत्तलियोंके वक्ष:- स्थलपर कुंकुम रससे चित्रकारी कर रही थी, कोई उत्पलिका कदली-गृहकी मरकत वेंदिकाश्रोंको सोनेकी सम्मार्जती (झाड़ू) से साफ कर रही थी, कोई

(46437 [४६

केसरिका बकुल-कुसुमके मालागृहोंको मदिरा रससे सींच रही थी और कोई भालतिका कामदेवायतनकी हाथी दाँतकी बनी वलविका (भण्डप) को सिन्दूर- रेणुसे पाटलित कर रही थी। ये सारी बातें ऐसी है जिनका अर्थ हम दरिद्र लेखनी- धारियोंकी समझमें नहीं सकता हम श्राँखें फाड़-फाड़कर देखते ही रह जाते हैँ कि मधु-मक्खियोंके छत्ते की भी अपेक्षा अधिक व्यस्त दिखनेवाले इस भन्त:पुरके इन व्यापारोंका अथे क्या है खैर, भागे कुछ ऐसी बातें भी हैं जो समझमें जाती हूँ) वहाँ कोई नलिनिका भवन्के कल-हंसोंको कमलका मधु-रस पान कराने जा रही थी, कोई कदलिका मयूरकों धारागृह या फव्वारेके पास ले जा रही थी- शायद वलय-झज्लारसे नचा लेनेके लिये ! -कोई कमलिनिका चक्रवाक-शाव- कोंको मृणाल-क्षीर पिला रही थी. कोई चूतलतिका कोकिलोंको श्राम्र-मण्जरी- का अंकुर खिलानेमें लगी थी, कोई पल्‍लविका मरिच (काली मिचे) के कोमल किसलयोंकों चुन-चुंनकर भवन-हारीतोंको खिला रही थी, कोई लवड्िका पिजड़ोंमें पिप्पलीक मुलायम पत्ते निक्षेप कर रही थी, कोई मधुरिका पुप्पोंका श्राभ- रण बना रही थी और इस प्रकार सारा अन्‍्त:पुर पक्षियोंकी सेवामें व्यस्त था सबसे भीतर वचनमुखरा सारिक (मैत्ा) और विदग्ध शुक (तोता) थे जिनके प्रणय-कलहकी शिक्षा पूरी हो चुकी थी और कुमार चन्द्रापीडके सामने अपनी रसिकताकी विद्याका प्रदर्शन करके सारिकाशोंने कादम्बरीके श्रधरोंपर लज्जा- युक्त मुसकानकी एक हल्की रेखा प्रकट कर दी थी

सर्द विनोद के साथी--पक्षी

संस्कृत साहित्य में पक्षियोंकी इतनी अ्रधिक चर्चा है कि अन्य किसी साहित्यमें इतनी चर्चा शायद ही हो जिन दिनों संस्कृतके काव्य-नाटकॉोंका निर्माण अपने पूरे चढ़ावपर था, उन दिनों केलि-गृह और अन्‍्तःपुरके प्रासाद- प्रांगणसे लेकर युद्धक्षेत्र और वानप्रस्थोंके श्राश्नमतक कोई-न-कोई पक्षी भारतीय

भ्््यु

सहृदयके साथ अवच्य रहा करता था वह विचोदका साथी या रहस्वालापका दूत था, भविष्यके शुभाश्युभका द्वप्टा था, वियोगका सहारा था. संयोगका योजक था, युद्धका सन्देश-वाहक था और जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था, जहाँ-वह मनुप्यका साथ देता हो कभी सवन-वलभीमें च्ोए हुए पारावतके रूप में, कभी मानिनीको हँसा देनेवाले शुकके रूपसें, कमी अज्ञात प्रणयिन्रीके विरहोच्छ-

वातसको ०. जोल मा देनेचाली सारिकार्के कक रूपमे ५००१ कर्भ कक नागरकोंकी 7 2 गोष्ठोको 5 उत्तेजित वात्षका जाल दनंवाल रकाक हूपम, कंभा वागरकंका गाप्ठोको उत्तदित

|

7 योद्धा >हरज ८+त->ठ> ह्पमें, से झचर भवनदी धिका का (अणप्त प्रक डिलडत्रपक दववाल यांदछा कुंवकुंटर्क हूपसे, कंभा भसवनद्याघका (अतःपुरके तालाब )

कर नह मगालतनन्‍्तभर्भ अत छ--अका ०. 7] ह्पमें. न्क्म कभी + अनात प्रिय तन्देशवाहक वाहक राजहंसके का सृगालतत्तुभला कंलहुसक रूपन. कसा अज्ात पप्रयक तन्दंशवाहक राजहसकः रूपमें, कभी चूत-कपाय-कण्ठसे विरहिणीक दिलमें हुक पेंद्ा कर देनेवाले कोकिल-

रूपमें, कभी नूपूरकी झंकारसे क्रेकार ध्वनिकारी सारसके रूपमें, कभी कंकण-

3 3॥ [:॥|

की रुनझुनसे नाच पड़नेवाले मयूरके रूपमें. कभी चन्द्रिका-पानममें मद-विह्नल होकर मुग्धाके मसमें अपरिचित हलचल पैदा कर देनेवाले चकोरके रूपमें, वह प्रायः इस साहित्यसें पाठककी नजरोंसे टकरा जाता है इन पक्षियोंक्रो संच्छत- साहित्यमेंसे निकाल दीजिए, फिर देखिए कि वह कितना निर्जीव हो जाता है हमारे प्राचीन साहित्वको जिन्होंने इतना सजीव कर रखा हैँ, इतना सरस बना

उल्लेखयोग्य

रखा है, उनके विपयमें अभी ठक हिन्दीमें कोई विद्ये उल्लेखयोग्व अध्ययन नहीं

हुआ हैँ, यह हमारी उदात्तीनताका पक्‍का प्रमाज है महाभारतमें एक पश्लीने एक मनुष्यसे कहा घा कि मनुप्य और पश्षियों- में सम्बन्ध दो ही तरहके हँ-भक्षणका सम्बन्ध और छीड़ाका सम्बन्ध अर्थात्‌ ननुष्य था तो पश्षियोंकों खानेके काममें लाता हूँ या उन्हें फेचाकर उनसे मनोविनोद किया करता है - और कोई तीसरा सम्बन्ध इन दछोवोंगे नहीं हू ) एक वघका सम्बन्ध हू और दूसरा वन्घक्ा-- अक्षार्य क्रीड़ादार्थ वा मरा वांच्छन्तदि पशल्षिणम्‌ ततीयों चास्ति संयोगों वधवंधादुते क्षमः। ( म० सा० झान्तिये, १३६-६० ) परन्तु चमस्त चंस्क्ृद-साहित्य और स्वयं महाभारत इच वातका सबूत हैँ कि एक तीसरा सम्बन्ध भी है यह प्रेनका सम्दन्य हैं। अयर ऐसा होता तो कमल पत्रपर विर्तजमाद हुईं बंखशुक्तिके समान दीख रहे है अकारण सानव-हृदयबमे आतन्दोद्रेक पेंदा

्५+ हक

िरनक कप जो सपजिके पाजमें 2 चवलाका (वक-पंक्ति ), जा मरकंत स्राजक पावन रखा

कर सकता---

उच्च णिच्चल-णिप्फंदा लिसियीयत्तम्मि रेहइ दलाआ जिक्र -परिधिआा संखतत्तिव्व पिम्मल-मरगगञ्मनमानञ्मज-परि छिन्ना उंखसुत्तिव्व ॥!

(हाल उत्तस्नई. १-४)

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तपोनिरता पर्वत-कन्या जब कड़ाकेकी सर्दीर्में जल-वास करती होतीं, तो दूरसे एक दूसरेको पुकारनेवाले चक्रवाक-दम्पतिके प्रति अ्रहेतुक कृपावती हो जातीं (कुमार संभव ५-२६) ; घानसे लहराते हुए, मृगांगताशरोंसे अ्रध्युषित और क्रौंच पक्षीके मनोहर निनादसे मुखरित सीमान्तकेकार्के साथ मनुप्यके चित्तको इतना चंचल कर सकते (ऋतु० ३) और ऐसी नदियाँ, जिनकी कांची क्रौंचोंकी श्रेणी है, जिनका कलस्वत कलहंसोंका निनाद है, जिनकी साड़ी जलधारा है, जिनके कानके झाभरण तीर-दुमक पृपष्प हैं, जिनका श्रोणीमण्डल जल-स्थलका संगम हूँ, जिसके उरस्य उन्नत पु लिन हूँ, जिंनकी मुसकान हंसश्रेणी है, ऐसी नदि- योंके तटपर ही देवता रमण कर सकते हँ-यह वात ही मनुप्यर्क मनमें पाती :--

क्रौंचकांचीकलापाइच. कलहंसकलस्वना:

नद्यस्तोयांशुका यत्र. झफरीक्ृतमेखला: ॥।

फुल्लतीरदुमोत्तेसाः:. सज्भुमश्रोणिमण्डला:

पुलिनाम्युन्नतोरस्या: हंसहासाइ्चनिम्नगा:

वनोपान्तनदीशैलनिश्लेरोपान्तभूमिषु

रमन्ते देवता नित्यं प्रेपृद्यानवत्सु

(बृहत्संहिता, ५६-६६) अन्त:पुरसे बाहर निकलने पर राजकुलके प्रथम प्रकोप्ठमें भी बहुतेरे

पक्षियोंसे भेंट हो जाती है इसमें कुक्कुट (मुर्ग), कुरक, कपिजल, लावक और बातिक नामके पक्षी हैं, जिनकी लड़ाईसे नागरकोंका मनोविनोद हुआ करता था (कादम्वरी, पृ० १७३) इसी प्रकोष्ठमें चकोर, कादम्ब (एक हंस), हारीत और कोकिलकी भी आ्रावाज सुनाई दे जाती थी, और शुकसारिकाञ्रोंकी मजेदार वातें भी कर्णगोचर हो जाती थीं वात्स्यायनने कामसूत्र (पृ० ४७) में नागरकोंको भोजनके वाद शुक-सारिकाका आलाप तथा लाव कुक्‍्करुट श्रौर मैपोंके युद्धक देखनेकी व्यवस्था की है भोजनक बाद तो प्रत्येक प्रतिष्ठित नागरिक इन क्रीड़ाश्रोंको अपने मित्रोंसहित देखता ही था

५२]

श्र

उद्यान-यात्रा

उद्यान-यात्राओंके समय इसका महत्त्व बहुत बढ़ जाता था। निश्चित दिनको पूर्वाह्नमें ही नागरिकगण सज-धज कर तैयार हो जाते थे घोड़ोंपर चढ़कर जब वे किसी द्रस्थित उद्यानकी ओर-जो एक दिनमें पहुँचने लायक दूरीपर हुआ करता था-चलते थे, तो उनके साथ पालकियोंपर या बहलियोंमें वारवधूटियाँ चला करती थीं और पीछे परिचारिकाओं का झुण्ड चला करता भा। इन उद्यान-यात्राश्रोंमें कुक्कुट, लाव और सेष-युद्धका आयोजन होता था, हिडोल-विलासकी व्यवस्था रहा करती थी और यदि ग्रीप्पमका समय हुआ तो जलक़ीड़ा भी होती थी (कामसूत्र पृु० ४३ )

कभी-कभी कुमारियाँ और विवाहित महिलाएँ भी उद्यानन्यात्राओंयें या तो पूरुषोंके साथ या स्वतन्त्र रूपसे शामिल होती थी पर कामसूत्रपर अगर विश्वास किया जाय, तो इन यात्राओंमें लड़कियोंका जाना सब समय निरापद नहीं होता था-विशेष करके जब कि वे स्वतंत्र रूपमें पिकनिकर्के लिये निकली हुई हों असच्चरित्र पुरुष प्रायः बालिकाओंका अपहरण करते थे इन उद्यान- यात्राभोंमें जब दो प्रतिद्वन्द्दी नागरिकोंके मेष या लाव या कुककुट जूझते थे, तब प्रायः बाजी लगाई जाती थी और उस समय दोनों पक्षोंमें बड़ी उत्तेजनाका सञ्चार हो जाया करता था कभी-कभी छोटी-मोटी लड़ाइयाँ भी जरूर हो जाती रही होंगी कामसूत्रमें मेष, कुक्कुट और लावोंके युद्धको तथा शुक-सारिकाश्रोंके साथ आलाप करने-करानेको ६४ कलाओंमे गिना गया हैं ( साधारणाधिकरण,

तृतीय )

[४३

३० शुक और सारिका

शुक-सारिकाएँ केचल विलासी नागरकोंक वहिद्ारपर ही नहीं मिलती थीं, बड़े-बड़े पण्डितोंके घरोंकी शोभा भी वढ़ाती थीं झंकराचायेकों मण्डन मिश्चके घरका मार्ग बताते समय स्थानीय परिचारिकाने कहा था, जहाँ शुक- सारिकाएँ स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाण का श्ास्त्रार्थ कर रहीं हों, वही मंडन मिश्र- का द्वार है-* स्वतः प्रमाणं परत्त: प्रमाणं कीरांगवा यत्र गिरो गरिरक्ति / सु- प्रसिद्ध कवि वाणभट्टने अपने पूर्व-पुरुष कुबेरभट्टका परिचय देते हुए बड़े गव॑से लिखा हैँ कि उनके घरके शुकों और सारिकाझोंने समस्त वाहुमयका अभ्यास कर लिया था, और यजूर्वेद और सामवेदका पाठ करते समय पद-पदपर ये पक्षी विद्याधियोंकी गलतियाँ पकड़ा करते थे : जनुगृहेप्म्यस्तसमस्तवाडमय:, ससारिकि: पंजरवरत्तिभि: शुकेः निमृह्ममाणा: बटवः पढदे परदे है यजूंधि सामानि यस्य झंकिता: ॥। (कादम्वरी, १२ ) ऋषियोंके आश्रमममें भी झुक-सारिकाओंका वास था किसी वृक्षके सीचे शझुक-शावकर्क मुखसे गिरे हुए नीवार (वन्य-धान) को देखकर ही दुष्यन्त- को यह समझमनेमें देर नहीं लगी थी कि यहाँ किसी ऋषिका आश्षस हैँ (शकृन्तला, १-श्४ड ) वस्तुत: झुक-सारिका उस युगमें अन्तःपुरसे लेकर तपोवन तक सर्वत्र सम्मानित होते थे मनुष्यके सुख-दुःखके साथ उनका सुख-दुः:ख इस प्रकार गूँथा हुआ था कि एकको दूसरेसे अलग नहीं किया जा सकता अमरुकशतकसमें एक बड़ा ही मर्मस्पर्शी दृश्य है; जब कि मानवती यृहदेवीके दु:खसे दुःखी होकर प्रिय वाहर नखसे जमीन कुरेद रहा है, सखियोंने खाना बन्द कर दिया है, रोते- - रोते उनकी आँखें सूज गई है और पिजड़ेके सुग्गे अज्ञात वेदनाके कारण हँसना-

घ्४]

पढ़ना बन्द किए सारे व्यापारको समझनेकी चेप्टा कर रहे हैं :-- लिखन्नास्ते भूमिं वहिरवनतः प्राणदयितः निराहाराः सख्य: सततरुदितोच्छुननयना: परित्यवतं सर्व हसितपठितं पंजरशुकै: तवावस्था चेयं विसृज कठिने मानमधुना ॥॥ (अमरुक-शतक ) इसी प्रकार अमरुक-शतकमें एक अत्न्यत सरस और स्वाभ,विक प्रसंग आया है रातको दम्पतीने जो प्रेमालाप किया उसे नासमझ शुक ज्योंका- त्यों प्रातःकाल गुरुजनोंके सामने ही दुहराने लगा विचारी बहू लाजों गड़ गई ओर कोई उपाय देखकर उसने अपने कर्णफूलमें लगे लाल पद्मराग मणिको ही शुकर्के सामने रख दिया और वह उसे पका दाड़िम समझकर उसीमें उलझ गया इस प्रकार किसी भाँति उस दितकी लाज बच पाई और वा।चाल सुर्गेका वाग्रोध किया जा सका :-- दश्पस्योन्िशि जल्पतोगृ/हशुकेनाकशितं यह: तत्प्रातर्गुस्सब्रिधौ निगदतः श्रुत्वैव तारे वधू: कर्णालम्दितपद्रागशकलं विन्यस्य चडचूबवो: पुर ऋीड़ार्ता प्रकरोति दाड़िमफलब्याजेन वाग्रोधनम्‌ ।॥ शुभाशुभ जाननेके लिये उन दिनों कई पक्षियोंकी गति-विधिपर विशेष ध्यान दिया जाता था वस्तुतः शक्‌न (हिन्दी सगुन ) शब्दका अर्थ ही पक्षी हैँ इन शक्‌न-निर्देशक पक्षियोंके कारण संस्क्ृत-साहित्यमें एक अत्यंत सुकूमार भावका प्रवेश हुआ है और साहित्य इससे समृद्ध हो गया हैं वाराहमिहिरकी वृहत्संहितामें निम्नलिखित पक्षियोंको शकुन-सूचक पक्षी कहा गया हँ-श्यामा, इयेन, शहध्न, वंजुल, मयूर, श्रीकर्ण, चक्रवाक, चाष, भाण्डीरक, खंजन, शुक, काक, तीन प्रकारके कपोत, भारद्वाज, कुलाल, कुक्‍्कुट, खर, हारीत, पृत्न, पू्णे-

कूट और चटक (पृ० सं० ८८।१ ) संस्कृत-साहित्यसे इन पक्षियोंके शकुनके कारण बड़ी-बड़ी घटनाओंके

हो जानेका परिचय मिलता है कभी-कभी शक्‌ुन-मात्रसे भावी राज्यक्रान्तिका अनुमान किया गया है और उसपरसे सारे "्लाटका आयोजन हुआ है शकृन- सूचक पक्षियोंके कारण सूक्‍क्तियाँ भी खूब कही गई है

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३१ दकुन-सूक्ति

ऋतु विश्येयके अवसरपर पश्षी-विशेपका प्रादुर्भाव और उसका हृदय ढालकर किया हुआ वर्जन संस्कृत साहित्यकी वेजोड़ सम्पत्ति है भारतवर्पमें एक ही समय नाना प्रदेश्योंमें ऋतुका विभेद रहता है फिर गर्मी और सर्दीके घटते-बढ़ते रहनेसे एक ही वर्षमें कई वार ऋतु-परिवर्तंन होता है भिन्न-भिन्न ऋतुओंमें नये-नयें पक्ली इस देशमें छा जाया करते हैं। संस्कृतके कवियोंने इन अतिथियोंका ऐसा मनोहर स्वागत किया है कि पाठक उन्हें कभी भूल नहीं सकता ! वलाकाको उत्सुक कर देनेवाली, मयूरको मद विह्लल बना देनेवाली, चातकको चंचल कर देनेवाली और चकोरकी ह॒प॑-दर्पसे सेचन करनेवाली वर्षा गई नहीं कि खंजरीठ, कादम्व, कारण्डव, चक्रवाक, सारस तथा क्रौंचकी सेना लिए हुए शरद गई :-- सर्वंजरीटा: सपय:प्रसादा सा कस्य नो मानसमाच्चिनत्ति कादम्बकारण्डवचक्रवाकंससारसक्रींचकुलानुपेता (काव्यमीमांसा, पृ० १०१ ) फिर वसन्त तो है ही, शुक-सारिकाओ्रोंके साथ हारीत, दात्यूह, (महु- अ्रक) और अ्रमर श्रेणीके मदको वर्धन करनेवाला और पुंस्कोकिलके मधुर कूजनसे चित्त चंचल कर देनेवाला ! चंत्रे मर्दाद्धः शुकसारिकाणां हारीतदात्वृहमधुत्रतानाम्‌ पुंस्कोकिलानों सहकारवन्बु: मदस्य काल: पुनरेच एवं ॥॥ ( काव्यमीमांसा, पृ० १०५ ) ऋतुओंके प्रसंगमें कवियोंने बहुत अधिक पत्षियोंका वड़ी सहृदयताके साथ वर्णन किया है इन पक्षियोंमेंसे कुछ ऐसे थे जो प्रेम-संदेशके वाहक माने जाते थे हंससे यह काम प्राय: लिया गया है पर हंस वास्तवमें रोमांसको ओऔत्सू कक्‍्य- मप्डित करनेवाले कल्पित मूल्योंका पक्षी है

पारावत या कबूतर इस कार्यको

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सचम्‌च ही करते थे आज भी इन पक्षियोंकों इस कार्यके लिए नियुक्त किया जाता है विज्ञानने इनको और भी उपयोगी बना दिया हैँ पर पत्र ले जानेका

काम ये अवश्य करते थे।

शे२ सुकुमार कलाओ्लोंका आश्रय

जैसा कि ऊपर बताया गया है, ये अन्तःपुर सब प्रकारकी सुकुमार कलाश्रोंके आश्रय रहे है यह तो कहना ही व्यर्थ है कि साधारण नागरकोंके अन्त:पुर उतने समृद्ध नही होते होंगे पर सश्नान्त व्यक्तियोंके अन्तःपुर निरंचय ही सुकुमार कलाओंक आश्रयदाता थे मृच्छकटिक नाटकमें एक छोटा-सा वाक्य आता है जो काफी अभंपूर्ण हैं इस नाटकके नायक चारुदत्तका एक पुराना संवाहक या भृत्य था जिसने संवाहन-कला अर्थात्‌ शरीर दबाने और सजानेकी विद्या सीखी थी उसने दरिद्रतावश नौकरी कर ली थी यही संवाहक अपने मालिक चारुदत्तकी दरिद्वता- के कारण नौकरी छोड़कर जुआ खेलनेका अभ्यासी हो गया एक बार चाड- दत्तकी प्रेमिका गणिका वसन्‍्तसेनाने उसकी विद्याकी प्रशंसा करते हुए कहा कि भद्ठ, तुमने बहुत सुकुमार कला सीखी है, तो उसने प्रतिवाद करके कहा, नही आयें, कला समझकर सीखी जरूर थी, पर अब तो वह जीविका हो गई हैं | इस कथनका भ्र्थ यह हुआ कि जीविका उपाजनके काममे लगाई हुईं विद्या कलाके सवर्ण-सहासनसे विच्युत मान ली जाती थी यही कारण था कि धनहीन नागरिकगण सर्वकला-पारंगत होनेपर वागरकके ऊँचे आसनसे उतरकर विट होनेको वाध्य होते थे संवाहकका कार्य भी, जो एक कला हैं यह अच्तःपुरम ही प्रकट होती थी अन्‍्तःपुरिकाओंके वेश-विन्यासमें इस कलाका पूर्ण उपयोग होता था संज्ञान्त परिवारोंमे अनेक संवाहिकाएँ होती थी जो गृहस्वामिनीका चरण-सम्बाहन भी करती थी और नाना आभरणोसें उस छविगृहको दीपशिखासे

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जगमग करनेका काये भी करती थीं। नागरकोंको भी संवाहन आदि कर्म सीखने पड़ते थे वियोगिनी प्रियतमासे हठात्‌ मिलन होनेपर शीतल क्लम-विनोदन व्यजनकी, पंखेंकी मीठी-मीठी हवा जिस प्रकार आवश्यक होती थी उसी प्रकार कभी-कभी यह भी झ्रावश्यक हो जाता था कि प्रियाके लाल-लाल कमल जैसे कोमल चरणोंको गोदमें रखकर इस प्रकार दवाया जाय कि उसे अधिक दवावका क्लेश भी हो और विरह-विधुर मज्जातंतुओ्रोंको प्रियके करतलस्पशका अ्मृतरस भी प्राप्त हो जाय ! इसीलिये नागरककों ये कलाएँ जाननी पड़ती थीं! राजा दुष्यन्तने वियोगिती शक्न्तलासे दोनों ही प्रकारकी सेवाकी अनुज्ञा माँगी थी:-

कि शीतल: क्लमविनोदिभिराद्धंवाते:

संचारयासि नलिनीदलप्रतालवृन्तम

अच्छे निधाय चरणावुत पद्मताम्रो

संवाहयामि करभोरु यथासुखं ते

( शकृन्तला तृतीय अंक )

३३ बाहरी प्रकोष्ठ

तागरकके विशाल प्रासादका बहि:प्रकोष्ठ जिसमें नागरक स्वयं रहा करता था बहुत ही शानदार होता था उसमें एक शय्या पड़ी रहती थी जिसके दोनों सिरोंपर दो तकिया या उपाधान होते थे और ऊपर सफेद चादर या प्रच्छद- पट पड़े होते थे यह बहुत ही नर्म और बीचमें झुका हुआ होता था इसके पास ही कभी-कभी एक दूसरी शबय्या (प्रतिशब्यिका ) भी पड़ी होती थी, जो उससे कुछ नीची होती थी शय्या बनानेमें वड़ी सावधानी बर्ती जाती थी साधारणत: असन, स्यन्दन, हरिद्व, दे वदारु, चन्दन, शाल आदि वृक्षोंके काष्ठसे शय्याएँ बनती थीं, पर इस वातका सदा खयाल रखा जाता था कि चुना हुआ काण्ठ ऐसे किसी व॒क्षसे लिया गया हो जो वज्ञपातसे गिर गया था या बाढ़के धक्केसे उखड़ गया

भ््८ ]

था, या हाथीके प्रकोपसे धूलिलुण्ठित हो गया था, या ऐसी अवस्थामें काटा गया था जब कि वह फल-फूलसे लदा या पक्षियोंके कलरवसे मुखरित था, या चैत्य या एमशानसे लाया गया था या सूखी लतासे लिपटा हुआ था (वृ० सं० ७१-३) [ऐसे अमंगलजनक और अशुभ वृक्षोंको प्‌ राना भारतीय रईस अपने घरके सबसे अधिक सुकुमार स्थानपर नहीं ले जा सकता था वराहमिहिरने ठीक ही कहा है कि राज्यका सुख गृह है, गृहका सुख कलत्र है और कलत्रका सुख कोमल और मंगल- जनक शय्या है सो शब्या गृहस्थका सर्मस्थान है चन्दनका खाट सर्वोत्तम माना जाता था; तिदुक शिक्षपा, देवदारु, असनके काठ अन्य वृक्षोंके काठसे नहीं सिलाए जाते थे शाक और शालक मिश्रण शुभ हो सकता था, हरिद्रक भर पदुकाठ अकेले भी और मिलकर भी शुभ ही माने जाते थे। चारसे अधिक काष्ठोंका मिश्रण किसी प्रकार पसन्द नहीं किया जाता था | शबय्यामें गजदन्तका लगाना शुभ माना जाता था पर शय्याके लिये गजदन्तका पत्तर काटना बड़ा भावाजोखीका व्यापार माना जाता था उस दन्‍्तपत्रके काटते समय भिन्न- भिन्न चिह्नोंसे भावी मंगल या श्रमंगलका अनुमान कियाँ जाता था खाटके पायोंमें गाँठ या छेद बहुत अशुभ समझे जाते थे इस प्रकार नागरकके खाटकी रचना एक कठिन समस्या हुआ करती थी (बृ० सं० ७६ अ०) यह तो स्पष्ट हूँ कि आजक रईसकी भाँति आर्डर देकर कोच और सोफेकी व्यवस्थाको हमारा पुराना रईस' एकदम पसन्द नहीं करता होगा बृहत्संहितासे यह भी पता चलता है कि खाट सब श्रेणीके आदमियोंके लिये बराबर एक जैसे ही नही बनते थे भिन्न-भिन्न पद-मर्यादा के व्यक्तियोंके लिये भिन्न-भिन्न मापकी शय्याएँ बनती थीं शय्याके सिरहाने कूर्च-धानपर नागरकके इष्ट देवताकी कलापूर्ण मूर्ति रहती' थी और उसके पास ही वेदिकापर माल्य चन्दन और उपलेपन रखे होते थे इसी वेदिकापर सुगन्धित मोमबत्तीकी पिटारी (सिक्‍्थ-करण्डक ) और इत्रदान (सौगन्धिक पुटिका ) रखा रहता था मातुलुंगके छाल और पानके बीड़ोंके रखनेकी जगह भी यही थी नीचे फशेपर पीकदान या पतद्ग्रह रखा होता था ऊपर हाथीदाँतकी खूंटियोंपर कपड़ेके थैलेमें लिपटी हुईं वीणा रहती थी. चित्रफलक हुआ करता था, तूलिका और रंगके डिब्बे रखे होते थे, पुस्तकें सजी होती थीं और बहुत देरतक ताजी रहनेवाली कुरण्टक माला भी लटकती रहती थी दूर एक आस्तरण (दरी) पड़ा रहता था जिसपर यूत और शतरंज खेलने की गोटियाँ रखी होती थीं उस कमरेके बाहर कीड़ाके पक्षियों अर्थात्‌ शुक, सारिका, लाव, तित्तिर, कुक्‍्कुट आदिके पिजड़े हुआ करते थे शाविलक नामक चोर जब चारुदत्तके घरमें घुसा था तो उसने आश्चयेके साथ देखा थाकि उस रसिक नागरकके घरमें कहीं मृदंग, कहीं दर्दुर, कहीं पणव, कहीं वंशी और कही पुस्तकें

६० ]

एक मनोहर चित्र हूँ

पू रानी कहानियोंमें वीणासंबंधी रोमांसों और अद्भुत रसवाली कथाओं- की प्रचुरता है उदयनकी कुंजर-मोहिनी वीणा तो प्रसिद्ध ही है, वासवदत्तको उदयननें ही वीणा-वादनकी विद्या सिखाई थी बौद्ध जातक-कथाओंमें मूसिल नामक वीणावादक और उसके गुरु गुत्तिलकुमार नामक गंधर्वकी वीणा प्रतियोगिता- की बड़ी सुंदर कथा आती है शिष्यने राजासे कहकर गुरुको ही हरानेका संकल्प किया था पर इन्द्रकी कपासे गुत्तिलने ऐसी वीणा बजाई कि मूसिलको हारना पड़ा गृत्तिलकी वीणा में सात तार थे। वह एक-एक तार तोड़ता गया और बचें तारोंसे ही. मनोमोहक ध्वनि निकालने लगा तार तोड़ते-तोड़ते वह अच्तिम तार भी तोड़ गया और अन्तमें केवल काष्ठ दण्डको ही बजाता रहा उसमें उसने कमाल किया उस्तादकी सधी अंगुलियोंने काठमें ही झंकार पैदा कर दिया | फिर स्वर्गेलोकसे अ्रप्सराएँ उतरकर नाचने लगी इस, और ऐसी ही अन्य कथाओ्रों- से इस यंत्रकी मधुर विद्याकी महिमा और लोकप्रियता प्रकट होती है। सचमुच ही वीणा “असमुद्रोत्पन्न रत्त” हैँ

प्राचीन काव्य-साहित्यमें इसकी इतनी चर्चा है कि सबका संग्रह कर सकता बड़ा कठिन कार्य है। सरस्वती-भवनसे लेकर कामदेवायतन त्तक और सुहाग- शयनसे शिव मन्दिर तक सर्वत्र इसकी पहुँच हैँ पुराने बौद्ध साहित्यसे इस बातका भी सबूत मिल जाता है कि इस यंत्रके साथ गाया जानेवाला अत्यंत लौकिक शंगार रसकी गाथाश्रोंने बुद्धदेव जैसे वीतराग महात्माके मनको भी पिघला दिया था पंचशिव नामक गंधर्वने, जो तुबुरु-कन्या सूर्य- वर्चेसाका प्रेमी था परल्तु प्रेमिकाके अन्यत्र रम जानेसे प्रेमत्यापारमें असफल बन गया था, जब भगवान्‌ बुद्ध की समाधि भंग करनेके लिये अपनी वीणापर अपनी करुण वेदना गाई तो भगवानका चित्त सचमृच ही द्रवित हो गया, उन्होंने दाद देते हुए कहा था-पंचश्िव, तुम्हारे बाजेका स्वर तुम्हारे गीत के स्वरसे बिल्कुल मिला था और तुम्हारे गीतका स्वर बाजेके स्वरसे मिला था, वह इधर ज्यादा झुका था यह उधर ! पंचशिवने भगवान्‌की इस स्तुतिको सुनकर निरुछल भावसे अपती व्यथा की कहानी सुना दी थी (दीघंनिकाय) ! तो इस प्रकार इतिहास साक्षी है कि वीणाने वैरागीके चित्तको द्रवित किया था !

कामसूत्रसे जान पड़ता है कि उन दिलों गन्धर्वशालामें प्रत्येक नागरकके लड़केको जो बात सीखना जरूरी थी उनमें सर्वप्रधान है गीत, नाट्य, नृत्य और आलेख्य वाद्यमें वीणा, डमरू, और बंशीका उल्लेख हैं डमरू भारतवर्पका पुरातन वाद्य हैँ, उसीका विकास मृदंग रूपमें हुआ है कहते है कि मृदंग संसार- का सर्वोत्तम वैज्ञानिक वाद्य है

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३०

अन्त:प्रका शयन-कक्ष

ऊपर नागरकके बहि:प्रकोप्ठका जो वर्णन दिया गया हैँ वह वात्स्यायनके कामसत्रके आधारपर है ।! यह वर्णन वास्तविक है, पर उक्त आचार्यने अन्तः- प्रके भीतरक शयनकक्षका ऐसा ब्यौरेवार वर्णन नही दिया हैं इसीलिये उसकी जानकारी के लिये हमें कल्पना-प्रधान काव्यों और आखर्यायिकाश्लोंका सहारा लेना पड़ेगा सौभाग्यवश काव्यकी अ्रतिशयोवितयों और झ्रालंकारिकताओंको छाँटकर निकाल देनेसे जो चित्र हमारे सामने उपस्थित होता है उसका समर्थन कई और मूलोंसे हो जाता है प्राचीन प्रासादोंका जो उद्धार हुआ है उनसे यह चित्र मिल जाता है और उपयोगी कला सिखानेके उद्देश्यसे जो पुस्तकें लिखी गई है उनसे भी उसका समर्थन प्राप्त हो जाता है इस प्रकार निःसंकोच रूपसे कहा जा सकता है कि काव्योंके वर्णन तथ्यपर ही आश्चित है

अन्त:पुरके शयनकक्षमें जो शय्या पड़ी रहती थी उसके पास कोई और प्रतिशय्यिका या अपेक्षाकृत नीची शय्या रहती थी या नही इसका कोई उल्लेख हमें काव्योंमें नही मिला है कादस्वरीका पलंग बहुत बड़ा नही था, वह एक तीली चादर और धवल उपाधान (सफेद तकिया ) से समाच्छादित था काद- म्बरी उस दशय्यापर वास बाहुलताकों ईषद्‌ बक्र भावसे तकियापर रख अधलेटी ग्रवस्थारमें परिचारिकाओ्रोंको भिन्न-भिन्न कार्य करनेका आदेश दे रही थी यह तो नही बताया गया हैँ कि किसी इप्ट देवताकी मूर्ति वहाँ थी या नही, पर वे दिका- पर ताम्बूल और सुगन्धित उपलेपन अ्रवव्य थे दीवालोंपर इतने तरहके चित्र बने थे कि चन्द्रापीड़को अ्रम हुआ था कि सारी दुनिया ही कादम्बरीकी शोभा देखनेके लिये चित्र रूपमें सिमट आई थी दीवालोंके ऊपरी भागपर कल्पवलली- के चित्रका भी अनुमान होता है, क्योंकि सैकड़ों कन्याओ्रोंने उस कल्पवल्लीके समान ही कादम्बरीको घेर लिया था। छतम्में अधोमुख विद्याधरोंके मनोहर चित्र अंकित थे। नील चादरके ऊपर रेत तकियेका सहारा लेकर अ्ंशायित कादम्बरी महावराहके रवेत दन्‍्तका आश्रय ग्रहण की हुईं धरित्रीकी भाँति मोहनीय दीख

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रही थी। काव्य-ग्रन्थोंके पढ़नेसें स्पप्ट हो जाता है कि केवल नीली ही नहीं, नाना रंगोंकी और विना रंगकी भी चादरें शय्याके आस्तरणके लिये व्यवह्ृत होती थीं ताम्बूल और अलक्तकसे रँगी चादरें सखियोंके परिहासका मसाला जुटाया करती थो।

३६

कल्पवल्ली

भरहुतमें ( ह्वित्तीय शताब्दी ईसवी पूर्व ) नाना भाँतिकी कल्पवल्लियों- का संधान पाया गया है इसपरसे अनुमान किया जा सकता है कि दीवालों और छत्तोंकी घरनोंपर अंकित कंल्पवल्लियाँ कैसी बनती होंगी इन वल्लियोंमें नाना प्रकारके आभूषण . वस्त्र, पुष्प, फल, मुदता, रत्न आदि लटके हुए चित्रित हैँ उन दिलोंके काव्य-ताटकोंके समान ही शिलामें भी कल्पवल्लियोंकी प्रचुरता

है भरहुतकी कई कल्पवल्लियाँ इतनी अभिराम हैं कि किसी-किसीने यह अनुमान लगाया है कि किसी बड़े कल्प कविकी मनोरम कल्पनाको देखकर ही ये चित्र बने हैं वह कल्प कवि कालिदास ही माने गए है यह बात तो विवादा- स्पद हैँ, परन्तु कंठी, हार, कबकमाला, और कयविप्टनवाली कल्पलताओंको और कुरवकके पत्र-पुष्पों और क्षौम वस्त्रोंवाली कल्पलताओ्रोंको देखकर वरवस कालिदासकी कविता याद जाती है झकुन्तलाके लिये कप्वको वनदेंवताओं- ने जो उपहार दिए थे उनका वर्णन करते हुए महाकविने कहा हैँ कि किसी वुक्षनें शुभ मांगलिक वस्त्र दे दिया किसीने पैरमें लगानेकी महावर दे दी और वन देवियोंने तो अपने कोमल हाथोंसे ही अनेक आभरण दिए-कोमल हाथ, जो वृक्षोंके किसलयोंसे प्रतिद्ंद्वित कर रहे थे-- क्षौम॑ केनचिदिन्दुपाप्डुतरुणा माज्ुल्यामविप्कृतं निष्छ्यूतश्चरणोपभोगसुलभो लाक्षारस: केनचित्‌ू

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अन्येभ्यो. वनदेवताकरतरालैपार्बभागोत्वितै- दंत्तान्याभरणानि तत्‌ किसलयोडरेंदप्रतिदन्दिभि: ॥॥ | ( शकुन्तला ४.५ ) हर भरहुतकी एक कल्पवल्लीमें सचमुच ही एक वनदेवीका किसलयप्रति- हंढ्वी हाथ निकल आया है ऐसा जान पड़ता ह्‌ कि उन दिनों यह भावना बहुत व्यापक थी वोधगयासे भी इसी समयका अन्नपानदानशील हाथोंवाला एक कल्पवृक्ष मिला हैं जो मेघदूतके इस इलोककी याद दिलाता है : वासब्चित्र मधुनयनयोविश्रमादेशदक्षं पुष्पोदभेद॑ सह किसलयर्भूषणानां विकल्पान्‌ लाक्षारागं चरणकमलब्यासयोग्यं यस्या- मेक:सूते सकल ललनामण्डनं कल्पवृक्षः (मेघ २-१२ ) बाघकी गुफाओ्रोंमें-मुंडेरोॉंपर सुन्दर कल्पवल्लियाँ पाई गई है जिनकी शोभा अनुपम बताई जाती हैं उन दिनों इन वल्लियोंका अभ्यन्तर गृहमें होना मांगल्य समझा जाता था। विद्यावरोंके तो अनेक चित्र नाना स्थानोंसे उद्धार किए गए हैं। अभिलधि- तार्थचिन्तामणि आदि ब्रन्थोंमें इस भाँतिकी चित्रकारीका विज्वद वर्णन दिया हुआ है

३७ भित्ति-चित्र

समृद्ध लोगोंके घरकी दीवालें स्फटिक मणिके समान स्वच्छ और दर्पणके समान चिकनी हुआ करती थीं इनके ऊपर सूक्ष्म-रेखा-विश्ञारद! कलाकार, जो विद्युतू-निर्माण' में कुझल हुआ करते थे, पत्र लेखनमें कोविद होते थे, वर्ण- पूरण या रंग भरनेकी कलाके उस्ताद हुआ करते थे (३-१३४) नाना रसके

६४ |]

चित्र अंकित करते थे दीवालको पहले समान करके चूुनेसे बनाया जाता था और फिर उसपर एक लेप-दव्य लगाते थे जो भैंसके चमड़ेको पानीमें घोंटकर बनाया जाता था इससे एक प्रकारका ऐसा वज्जलेप बनाया जाता था जो गर्म करनेपर पिघल जाता था और दीवालमें लगाकर हवामें छोड़ देनेसे सूख जाता था (३-१४६) वज्जलेप््में सफेद मिट्टी मिलाकर या शंख-चूर्ण और सिता (मिश्री) डालकर भित्तिको चिकनी करते थे (३-१४) या फिर नीलगिरिमें उत्पन्न तग नामक सफेद पदार्थंको पीसकर उसमें मिलाते थे रंगकी स्थायिताके लिये भी नाना प्रकारके द्वव्योंके प्रयोगकी वात पुराने ग्रन्थोंमें लिखी हुई है विष्णु- धर्मोत्तरके अनुसार तीन प्रकारके ईंटक चूर्ण, साधारण मिट्टी, गुग्गुलु, मोम, महुएका रस, सुमक, गुड़, कुसुम तेल और चूनेको घोंटकर उसमें दो भाग कच्चे बेलका चूर्ण मिलाते थे फिर अन्दाजसे उपयुक्त मात्रामें बालुका देकर भीतपर एक महीने तक धीरे-धीरे पोतते थे इस प्रकारकी और भी बहुतेरी विधियाँ दी हुईं है जो सब समय ठीक-ठीक समझमें नहीं आती भीत टीक हो जानेपर उसपर चित्र बनाए जाते थे

बाघकी गुहाओंके प्रसिद्ध भित्ति-चित्रोंसे इस कौशलका कुछ श्रन्दाजा लग सकता है। चित्र बनानेके आध।र यहाँ पत्थर है पहले दीवारोंको छेनीसे खुरखुरा बताया गया है, फिर उनपर चूने और गारेका महीत पलस्तर चढ़ाया गया हू इसकी बारीकीका अन्दाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि ऊपरकी खिची आक्ृतियाँ प्रायः उसी प्रकार नीचे भी उतर आई है और जहाँसे पलस्तर हट गया है वहाँ भी आक्ृतियाँ स्पष्ट समझमें जाती हैं इन चित्रोंमें रंगकी ऐसी बहार है कि हजारों वर्ष बाद भी दर्शक देखकर अवाक्‌ हो जाता है अ्रजन्ता- के समान ही बाघकी गुहाओंक भित्ति-चि्रोंने कला-पारखियोंको आराकृष्ट किया

्ज। पा चित्रोंमें कई प्रकारके रंग काममें लाए जाते थे। घने बाँसकी नालिकाके आगे तामेका सूच्यग्र शंकु लगाते थे जो जो भर भीतर आर इतना ही बाहर रहता था इसे तिरदुक कहते थे तूलिकामें बछड़ेके कानके पासके रोएँ लगाए जाते थे और चित्रणीय रेखाशओओंके लिये मोम और भातमें काजल रगड़कर काला रंग बनाते थे वंदनालीके आगे लगे हुए ताम्रशंकुसे महीन रेखा खीचनेका कार्य किया जाता था चित्र केवल रेखाओरोंके भी होते थे और रेखाओ्ंमें रंग भरकर भी वनाए जाते थे। लाइट और शेड' की भी प्रथा थी। अमिलापितार्ेगें कहा गया है कि जो स्थान निम्नतर हो वहाँ एकरॉँंगे चित्रमें ब्यामलवर्ण होना चाहिए और जो स्थान उन्नत हो वह उज्ज्वल या फीके रंगका रंगीन चित्रोंमें नाना प्रकार-

के रंगींका विन्यास करते थे इ्वेत रंग शंखको चूर्ण करके बनाया जाता था,

[६४

दशोण दरदसे, रक्त (लाल) अलक्तकसे, लोहित ग्रेक्से, पीत हरितालसे, और काला र॑ंय काजलसे बनता था | इनके मिश्वणसे, कमल, सौराभ (?) घोरात्व (?) घूमच्छाय, कपोताइव, अतसी-पुप्पाभ, नीलकमलके समान, हरित, गौर, इयाम, पाटल, कबुँर आदि अनेक मिश्र रंग बनते थे

नाट्यशझास्त्र (२३-७३-७७) में नेपथ्य रचना के सिलसिलेमें वताया गया हैँ कि किन रंगोंके मिश्रणसे कौन-कौन से रंग बनते थे रवेत और नीलके मिश्रणसे पाण्ड', सित और रकक्‍्तवर्णक योगसे पद्म वर्ण बनता है, पीत और नीलके मिश्रणसे हरित वर्ण बनता है, नील और रक्‍तवर्णोके योगसे 'कबाय रंग वनता है रक्त और पीत वर्णोके योगसे गौर' वर्ण बनता है इस प्रकार भिन्न- भिन्न वर्णोके योगसे नये-नये रंग बनते है शास्त्रकारका मत है कि सब वर्णोर्मे बलवान वर्ण नील ही है

६27 चित्र-कर्मे

अन्तःपुरिकाओंके मनोविनोदके अनेक साधन थे, जिनमें चित्र-कर्मका (६३-६६) प्रमुख स्थान था। विष्णुषमोंत्तर पुराणके चित्र-सूत्रमें कहा गया है (३-४५-३८) कि समस्त कलाओं में चित्रकला श्रेष्ठ हैं वह घर्म, अर्थ काम और मोक्ष चारों पदार्थोको देनेवाली है जिस गृहमें इस कलाका वास रहता है वह परम मांगल्य होता है हमने पहले ही देखा है कि उन दिलों प्रत्येक सु- संस्कृत व्यक्तिके कमरेमें चित्रफलक और समुद्गक रंगोंकी डिवियाका रहना आवश्यक माना जाता था अन्त-पुरिकाएँ अवसर मिलनेपर इस विद्यार्के द्वारा अपना मनोविनोद करती थीं चित्र नाना आधारोंपर वनाए जाते थे-काठ या हाथी दाँतके चित्र-फलकपर, चिकने झिलापट्टपर, कपड़ेपर और भीतपर भीत- प्रके चित्रोंकी चर्चा ऊपर हो चुकी है पंचदशी नामक वेदान्त ग्न्धसे जान पड़ता हूँ कि कपड़ेपर वनाए जानेवालें चित्र चार अवस्थाओंसे गुजरते थे, घौत-

६६ ] मंडित, लांछित और रंजित कपड़ेका घोया हुआ रूप धौत हैँ, उसपर चावल आदिके माँडसे घोंटा।ई मंडित है, फिर काजल आदिकी सहायतासे रेखांकन लांछित है और उसमें रज्भु भरना रज्ज्जित अवस्था हैं (६-१-३) ॥.. शिष्ठ परिवार- में अन्त:पुरकी देवियोंमें चित्र-विद्याका कैसा प्रचार था इसका शअ्रन्दाजा इसी बातसे लगाया जा सकता है कि कामसूत्रमें जो उपहार लड़कियोंके लिये अत्यन्त आकर्षक हो सकते है उनकी सूचीर्मे एक पटोलिकाका स्थान प्रधान रूपसे है इस पटोलिकामें अलक्तक, मन:शिला, हरिताल, हिंगुल और द्यामवर्णक (राजा- वर्तका चूर्ण ? ) रहा करते थे जैसा कि ऊपर बताया गया है, इन पदार्थोसे शुद्ध और मिश्र रंग बनाए जाते थे संस्कृत नाटकोंमें शायद ही कोई ऐसा हो जिसमें प्रेमी या प्रेमिकाने अपनी विरह-वेदनाकों प्रियका चित्र वनाकर हल्की की हो कालिदासके ग्रन्थोंसे जान पड़ता हैं कि विवाह समय देवताओंके चित्र बनाकर पूजे जाते थे, बन्धुओंके दुकूल-पट्रके आँचलमें हंसोंके जोड़े आँक दिए जाते थे, और चित्र देखकर वर-वधूके विवाह सम्बन्ध ठीक किए जाते थे चार प्रकारक चित्रोंका उल्लेख पुराने ग्रन्थोंमें आता है विद्ध अर्थात्‌ जो वास्तविक वस्तुसे इस प्रकार मिलता हो जैसे दर्पणमेंकी छाया, अविद्ध या काल्पनिक ( अर्थात्‌ चित्रकारके भावोल्लासकी उमंगमें बनाए हुए चित्र, ) रस-चित्र और घूलि-चित्र सभी चित्रोंमें विद्धताकी प्रशंसा होती थी विष्णु- धर्मोतर उस उस्तादको ही चित्रविद्‌ कहनेको राजी हँ जो सोए आदमीमें चेतना दिखा सके, मरेमें उसका अभाव चित्रित कर सके, निम्नोन्नत विभागको ठीक ठीक अंकित कर सके, तरंगकी चब्न्चलता, अग्निश्चिखाकी कम्प्रगत्ति, धूमका तरंग्रित होना, और पृताकाका लहराना दिखा सके वस्तुतः उन दिनों चित्रविद्या अपने चरम उत्कर्पषको पहुँच चुकी थी

) [ द्र्छ

३६

/ चिन्नगत चमत्कार

पुरानी पुस्तकोंमें चित्रगत चमत्कारकी अनेक अनुश्नुतियाँ पाई जाती हैं कहते है कि काश्मीरके अनन्त वर्माके प्रासादपर जो आमके फल अंकित थे उनमें कौए ठोकर मार जाया करते थे उन्हें उनके वास्तविक होनेका भ्रम होता था शकुन्तला नाटकमें राजा दुष्यन्त अपने ही बनाए हुए चित्रकी विद्धतासे स्वयमेव मुह्ममान हो गए थे यद्यपि नाटककारका श्रभिप्राय राजाके प्रेमका श्रातिशय्य दिखाना ही है, परन्तु कई बातें उसमें है जो चित्रसम्बन्धी उस युगक आदर्शको व्यवत करती हैं इस आादशर्शका मूल्य इसलिये और भी बढ़ गया है कि वह कालि- दास जैसे श्रेष्ठ कविकी लेखनीसे निकला है भारतवर्षका जो कुछ सुन्दर है, भव्य है, सुरुचिपूर्ण पर कोमल है उसके श्रेष्ठ प्रतिनिधि कालिदास हैं। सो, शकुन्तलाके भाव-मनोरम चित्रको बनानेके वाद राजा दुष्यन्तको लगा कि झकु- न्तला अधूरी ही है थोड़ा सोचकर राजाने अपनी गलती महसूस की जिस शकुन्तलाको हम हिमालयके उस पवित्र आश्चममें नहीं देखते जिसमें मृग-गण बैठे हुए है, त्रोतोवह्ा मालिनी सिक्त कर रही है, उसके सैकत (बालू) पुलिनमें हँसमिथुन लीन है, आश्रम तस्झ्रोंमें तपस्वियोंके वल्कल टंगे है, कृष्णसार मृगक सीगोंमें मृगी अपने वामनयनोंको खुजलाती हुई रसाविष्ट है, वह शकु- न्तला अपूर्ण है मनुष्य अपने सम्पूर्ण वातावरणक साथ ही पूर्ण हो सकता है और जीवनमें जो बात सत्य है वही चित्रमें भी सत्य है। राजाने इस सत्यको अनुभव किया। उसने शकुन्तलाको उसकी सम्पूर्ण परिवेष्टनीमें अंकित करनेकी इच्छा प्रगट की :-- कार्या सैकतलीनहंसमिथुना ख्रेतोवहा मालिनी पादास्तामभितो निषण्णहरिणा गौरीगुरोः पावनाः: शाखालम्बितवल्कलस्य तरोनिर्मातुमिच्छाम्यध: शूंगे क्ृष्णमुगस्य वामनयन कण्ड्यमानां मृगीम्‌ (शकुन्तला, पृष्ठ अ्रंक)

द्ष्ष ]

केवल भावमनोहर शकुन्तला राजा दुष्यन्तका व्यक्तिगत सत्य है, वस्तुतः वह उससे बड़ी है वह विद्वप्रकृतिके सौ-सौ हजार विकसित पृष्पोंमेंसे एक है, वह सारे आश्रमको पवित्र और मोहन बनानेवाले उपादानोंमें एक है और इसी- लिये इन सबके साथ अ्रविच्छिन्न भावसे संश्लिष्ट है उस एक तारपर आधात करनेसे बाक़ी सब अपने आप झंकृत हो जाते है वहाँ शकुन्तला अपना अन्त आप नहीं, बल्कि इस समस्त दृश्यमान सत्ताके भीतर निहित एक अखण्ड अ्विच्छेद्य एक' की श्रोर संकेत करती है यही चित्रका प्रधान लक्ष्य है हमने पहले ही लक्ष्य किया है कि जो कला अपने आपको ही अन्तिम लक्ष्य सिद्ध करती है वह मायाका कंचुक हँ और जो उस 'एक' परम तत्त्वकी शोर मनुप्यको उमुख करती है वह मुक्तिका साधन है राजाका बताया हुआ चित्र अ्न्तमें जाकर इतना सफल हुआ कि वह खुद ही अपनेको भूल गया वह चित्रस्थ भ्रमरकों उपालम्भ करने लगा प्राचीन साहित्यमें ऐसे विद्ध चित्रोंकी बात बहुत प्रकारसे आई हैं रत्तावलीमें सागरिकाने राजा उदयतका चित्र बनाया था और उसकी सखी सु- संगताने उस चित्रकें बगलमें सागरिकाका चित्र बना दिया था सागरिकाकी आँखोंमें प्रणय-दुराशारक जो अश्रु थे वे इतने मोहक बने थे कि राजानें जब उस चित्रको देखा तो उसके समस्त अंगरोंसे विछल-विछलाकर उसकी दृष्टि बार बार चित्रके उन जललवप्रस्यन्दिनीलोचने' प्र ही पड़ती थी :-- कृन्छादूरुयुगं॑ व्यतीत्य सुचिरं भ्रान्वा नितम्बस्थले मध्येज्स्यास्त्रिवलीतरज्ूविषमें निष्पन्दतामागता ॥। मद्दृष्टिस्तृषितिव सम्प्रति शनरासरुह्म तुगस्तनौ साकांक्षं मुहरीक्षी!ी। जललवप्रस्यंदिगी लोचने ॥। (रत्नावली २-३५) संस्क्रत साहित्यमें शायद ही दो-तीन नाटक ऐसे मिलें जिनमें विद्ध चित्नों- के चमत्कारका वर्णन नहो। चित्र उन दिनों विरहीके विनोद थे, वियोगियोंके मेलापक थे, प्रौढ़ोंके प्रीति-उद्देचक थे, गृहोंके श्ंगार थे, मन्दिरोंके मांगल्य थे, संन्‍न्यासियोंके साधना-विषय थे, और राहगीरोंके सहारे थे। प्राचीन भारत चित्रकला का मर्मज्ञ साधक था |

है.

चित्रकलाकी श्रेष्ठता

विष्णुघर्मोत्तर पुराणके चित्रसृत्रमें कहा गया हैँ कि समस्त कलाओंमें चित्रकला श्रेप्ठ है वह धर्म, अर्थ काम और मोक्षको देनेवाली है जिस गृहमें यह कला रहती है वह गृह मांगल्य होता है (तृतीय खंड ४५४८ ) एक अत्ययन्त महत्त्वपूर्ण बात यह कही गई है कि नृत्य और चित्रका बड़ा गहरा सम्बन्ध है। मार्कप्डेय मुनिने कहा था कि नृत्य और चित्र दोनोंमें ही त्रैलोक्यकी अनुकृति होती है बृत्यमें दृष्टि, हाव, भाव आदिकी जो भंगी बताई गई है वह चित्रमें भी भ्रयोज्य है, क्योंकि वस्तुतः नृत्य ही परमपचित्र है-दृय॑ चित्र पर स्मृतम्‌

सोमेश्वरकी अभिलापितार्थ-चिन्तामणि नामक पुस्तकमें चार प्रकारके चित्रोंका उल्लेख है- (१) विद्ध चित्र, जो इतना अधिक वास्तविक वस्तुसे मिलता हो कि दर्पण्में पड़ी परछाईके समान लगता हो, (२) अविद्ध चित्र जो काल्पनिक होते थे, और चित्रकारकें भावोल्लासकी उमंगर्मे वनाए जाते थे. (३) रसचित्र जो भिन्न-भिन्न रसोंकी अभिव्यदितके लिये बनाए जाते थे और (४) घूलिचित्र इस ग्रन्थमें चित्रमें सोनेके उपयोगकी भी विधि दी हुई है शास्त्रीय ग्रन्थोंके देखनेसे पता चलता है कि उन दिनों चित्रके विपय अनेक थे केवल श्ूंगार-चेप्टा या धर्मा- स्यान तक ही उनकी सीसा नहीं थीं धामिक और ऐतिहासिक आख्यानोंके लम्बे-लम्वें पट उन दिनों बहुत प्रचलित थे कामसूत्रमें ऐसे आख्यानक-पटोंका उल्लेख है (प० २६ ) और मुद्राराक्षत नाठकर्में बमपटोंकी कहानी है देवता, असुर, राक्षस, नाग, यक्ष, किन्नर, वृक्ष-लता, पश्मु-पक्षी सब कुछ चित्रके विषय थे इनकी लम्बाई चौड़ाई आदिके विपयमें शास्त्र-ग्रंन्थोंमें विशेष रूपसे लिखा हुआ हैँ

स्थायी वाट्य-आलाओंकी दीवारें चित्रोंसे अवश्य भूषित होती थीं चित्र और नाट्यको मंगलजनक मान्रा जाता था। भित्तिको सजानेके लिये पुरुष, स्त्री और लतावन्वके चित्र होता आवश्यक माना जाता था (नाट्य- शास्त्र २-८५-८६ ) लतावन्धमें कमल और हंस अवश्य अंकित होते थे क्‍योंकि

तन (जि

छ० ]

कमलको और हंसको गृहकी समृद्धिका हेतु समझा जाता था। यह बताया जा चुका है कि भारतीय नाटकोंकी कथा-वरतुका एक प्रधान उपादान चित्र-कर्म था संस्कृत नाटकोंमें ज्ञायद ही कोई ऐसा हो, जिसमें प्रेमी या प्रेमिका अपनी गाढ़ विरह-वेदनाको प्रियके चित्र वन्ताकर हल्की करती हो मृच्छकंटिककी गणिका वसन्तसेना चारुदत्तका चित्र बनाती है, शकुन्तलता नाटकका नायक दुष्यन्त विरही होकर प्रियतमाका चित्र बनाकर मन बहलाता है, रत्नावलीमे तो चित्रफलक ही नाटकके हन्द्वको तीन्र और भावको सान्द्र बना देता है उत्तरशम- चरितमें रामजानकी अपने पूर्वकालीन चरित्रोंका चित्र देखकर विनोद करते हूँ काध्य-नाटकादिमे चित्रका जो प्रसंग आता हैं, उसमें सत्र विद्ध चित्रकी ही प्रशंसा मिलती है, अ्रथ/त्‌ जो चित्र देखनेमें ठीक हु-बहू मूल वस्तुसे मिल जाता था वही प्रशंसनीय समझा जाता थ। कालिदासकी शकुन्तलामें एक विवादास्पद अर्थवाला इलोक आता है, जिसमें शायद चित्रकी अपूर्णताकी ओर इशारा किया गया है। राजा दुष्यन्तने शकुन्तलाका जो चित्र बनाया था, जिसमें शकुन्तलाक दोनों नेत्र कान तक फैले हुए थे, भ्रूलता लीलाह।रा कुड्चितं थी, अधर-देश उज्ज्वल दसनछविकी ज्योत्स्नासे समुख्भासित थे, ओष्ठ-प्रदेश पक ककन्घूके समान पाटल वर्णके थे, विश्रम-विलासकी मनोहारिणी छविकी एक तरल धारा-सी जगमगा उठीं थी, चित्रगत होनेपर भी मुखमें ऐसी सजीवता थी कि जान पड़ता था अब बोला, अब बोला- दीर्घापांगविसारिनेत्रयुगलं लीलांचितअ्रूलतं दन्तान्त:परिकीर्णहासकिरणज्योत्स्नाविलिप्ताधरम्‌ कर्कन्धृक्ुतिपाटलोप्टदचिरं. तस्यास्तदेतन्मुखम्‌ चित्रेड्प्यालपतीव विश्रमलसतृप्रोद्धिन्नकान्तिद्रवम्‌ ॥१०२॥। मिश्रवकेशी मामक शकुन्तलाकी सखीने इस चित्रको देखकर आश्चयके साथ अ्रनुभव किया था कि मानों उसकी सखी सामने ही खड़ी है पर राजाको सन्‍्तोब नहीं था। इतना भावपूर्ण सजीव चित्र भी कुछ कमी लिए हुए था। राजा- ने कहा कि-चित्रमें जो जो साधु अर्थात्‌ ठीक नहीं होता, उसे दूसरे ढज्भसे (अन्यथा ) किया जाता है, तथःपि उसका लावण्य रेखासे कुछ अन्वित हुआ है -- यद्‌ यत्साधु चित्रे स्थात्‌ क्रियते तत्तदत्यथा तथापि तस्या लावण्यं रेखया किड्चिदन्वितम्‌ ॥॥१०३ इन वाक्‍्योंका अर्थ पंडितोंने कई प्रकारसे किया है शायद राजाका भाव यही है कि हजार यत्त किया जाय, मूल वस्तुका भाव चित्रमें नही पाता, या फिर यह हो कि कल्पित मूल्योंकी योजनाका कलामें प्राधान्य होनेंके कारण

७१

काँचकी भाँति चित्रमें भी मूल वस्तुको कुछ दूसरे ही रूपमें सजाया जाता है जिसमें अभिरामता वढ़ जाती हैँ श्सर अथका समथनद मालविकाग्निमित्रके इस इलोकसे होता हैं जिसके अनुसार वास्तविक मालविकाकों देखकर राजाने कहा था कि

चित्रम इसके रूपको देख आशंका हुईं थी कि ज्ञायद वास्तवमें यह उतनी सुन्दर वहीं होगी जैसा कि चित्रमें दिख रही है पर इसे प्रत्यक्ष देखकर लग रहा है

कि चित्रकारकी समाधि ही भिथिल हो गई थी-उसने चंचल चित्तसें चित्र बनाया था! -

चित्रगतायामस्या कान्तिविसंवादंकि मे हृदयम्‌ संप्रति शिथिलसमावि मस्ये बेनेयमालिखिता कालिदासक ग्रन्थोंसे जान पड़ता हैँ कि विवाहके समय देवताओंके चित्र वनाकर पूरे जाते थे, वघुओंके दुकूल-पट्टके आँचलसे हंसके जोड़े वनाए जाते थे और चित्र देखकर वर-वबके सम्बन्ध ठीक किए जाते थे ध्वस्त अयोव्या-नगरी-बर्णन- प्रसंगमें महाकविने कहा है कि प्रासादोंकी भित्तिपर पहले नाना भाँतिके पद्मवन चित्रित थे और उन्त पद्च-वनोंमें बड़े-बड़े मातंग (हाथी) चित्रित थे, जिन्हें उनकी प्रियतमा करेण-वालाएँ मणाल-लण्ड देती हुई अंकित की गई थीं। ये चित्र इतने सजीव थे कि उन्हें वास्तविक हाथी समझकर आजकी विध्वस्तावस्थामें बहींके रहनेवाले सिंहोंने अपने तेज नाखूनोंसे उनका कुम्भस्थल विदीर्ण कर दिया था ! बड़े-बड़े महलोंगें जो लकड़ीके खम्भे लगे हुए थे, उनपर मनोहर स्व्री-मृर्तियाँ अंकित थीं और उनमें रंग भी भरा गया था अवस्थाके गिरनेसे थे दारु मतियाँ फीकी पड़ नई थीं अब तो साँपोंकी छोड़ी हुई केंचलें ही उनके वक्ष:- स्थलक आवरणयान्य दुकूल वस्त्रका काय कर रहा हू चित्रह्विप: पद्मवनावतीर्णा: करेणुभिदंत्तमणालभंगाः नखांकुआधातविभिन्नकुंभाः संख्धर्सिहप्रहत॑ वहन्ति स्तंमेपु योपित्‌प्रतियातनानामुत्कान्तवर्णक्रमघूसराणाम्‌ स्तनोत्तरीयणि भवन्ति संयान्नि्मोकिपट्टा: फणिभिविमक्ष्ता ॥। -रघबंश १६-१६-१७ इस प्रकारके चित्र वहुत प्रचलित थे अजन्‍्तामें जैसा कालिदासने ऊपरके हाथीवर्णनके प्रसंगर्में कहा

ब्< हु

हे दुर्भाग्यवश्च कालके निर्मम ्ोतमें उस युगकी दारुमयी स्तम्भप्रतिमायें एक-

करते थे ऐसा हि भाव हमारे साहित्यमें भी मिलेगा ! एक कविने राजाकी स्त॒ति

्> राजन जट्एा तम्हार ">> >> सार जो

करत हुए कहा था कि हैं राजन तुम्हारे डरके मारे जो शत्रु भाग गए हूं उनक

७२ ]

घरोंमें उन्हींके सुर्गे चित्रोंको देख-देखकर यह समझ रहें हैं कि उनके मालिक घर- में ही है और राजाक चित्रको देखकर कह रहे हैँ कि, महाराज आपकी कन्या मुझे नहीं पढ़ाती, रानियाँ चुप हैँ, क्या मामला हैं ? फिर कुब्जा दासियोंके चित्र- को देखकर कहते है कि तू मुझे क्‍यों नहीं खिलाती ? इत्यादि--- राजन्‌ राजसुता पाठयति मां देब्योअपि तृष्णीं स्थिता: कुब्जे भोजय मां कुमार सचिवैनाद्यापि कि भुज्यसें इत्थं नाथशुकास्तवारिभवने मुक्तोउ्ष्वगै: पज्जरातू चित्रस्थानवलोक्यशून्यवलभावेकैकमाभाषते ॥। इतना तो स्पष्ट ही हैं चित्रकारका ध्यान शिथिल हो गया होता तो और भी सूंदर बनाता। परच्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि कालिदासने चित्रमें जो-जो गुण बताए है, वे निश्चत रूपसे उत्तम कलाक सबूत है यह जो वोलता-बोलता भाव है, या फिर ऊँचे स्थानोंका दिखाना, निम्न स्थानोंका निम्न दिखना, शरीर- में इस प्रकार रंग और रेखाका विन्यास करता कि मृदुता और सुकुमारता निखर आए, मुखपर ऐसा भाव चित्रित करना कि प्रेमदूष्टि और मुसुकान-भरी बाणी प्रत्यक्ष हो उठे-- अस्यास्तुंगसिव स्तनह्॒यमिदं निम्नेव नाभि: स्थिता दृश्यन्ते विषमोन्नताइ्च वलयो भित्तौ समायामपि अंगे प्रतिभाति मार्दवमिदं स्तिग्धप्रभावाच्चिरं प्रेम्णा मन्‍्मुखमीषदीक्षत इव स्मेरा वक्‍तीव समाम्‌ ।। (षण्ठ अंक) यह निस्सन्‍्देह बहुत ही उत्तम कलाका निदर्शन है किन्तु विष्णुधर्मो- त्तरके चित्रसत्रके आचार्यकों इतना ही काफी नहीं जान पड़ता वे और भी सूक्ष्मता चाहते हैं, और भी कौशल होनेघर दाद देना स्वीकारते हैँ जो चित्र- कार सोए हुए आदमीमें चेतना दिखा सके. या मरे हुएमे चंतनाका अभाव दिखा सके, निम्नोन्नत विभागको यथ।वत्‌ दिखा सके, तरंगकी चंचलता अग्निशिखाकी कम्प्रगति, घमका तरंगित होना और पताकाका लहराना स्पप्ट दिखा सके, असलमें उसे ही आचाये चित्रविद्‌ कहना चाहते हं : | वरंगाग्निशिखाधूमवैजयन्त्यम्वरादिकम्‌ वायुगत्या लिखेच्यस्तु विज्ञेयःस तु चित्रवित्‌ ।। सुप्त॑ चेतनायुक्त मृत॑ चैत्तन्यवजितम्‌ निम्तोन्नतविभागं यः करोति चित्रवित्‌ ।! ऐसा जान पड़ता है कि विद्ध चित्रोंके चित्रणमें उन दिनों पूरी सफलता . मिली थी राजा और रानियोंकी पुरुषप्रमाण प्रतिकृति उन दिनों नियमित रूपसे

[७३ शाजघरानोंमे सुरक्षित रहती थी हर्षचरितसे जान पड़ता है कि श्राद्धके बाद पहला कार्य होता था मृत व्यक्तिका आलेख्य वनाना यद्यपि अन्तःपुर और समृद्ध नाग- रकोंके वहिनिवासमें ही कलाका अधिक उल्लेख मिलता है, तथापि साधारण जनतामें भी इस कलाका प्रचार रहा होगा संस्कृत नाटकों और नाटिकाओं में परिचारिकाओंको प्रायः चित्र बनाते अंकित किया गया है प्राचीन ग्रन्थोंसे इस बातका सबूत भी मिल जाता है कि उन दिनों स्वयं लोग अपना चित्र भी बनाते थे भारतवर्ष ने उस कालमें इस विद्यार्में जो चरम उत्करष प्राप्त किया था उसका ज्वलब्त प्रमाण अजन्ता और बेलूर (एलोरा) आदिकी गुफाएँ हैं

४१

कुमारी और वध

अन्त:पुरकी कुमारियाँ विवाहिता वधुश्रोंकी अ्रपेक्षा अधिक कलाप्रवीण होती थीं वें वीणा बजा लेती थीं, बंशी-बादनमें निपुण होती थीं, गानविद्यार्में चक्षता प्राप्त करती थीं, चूत कीड़ाकी अनुरागिनी होती थी, श्रष्टापद या पासाकी जानकार होती थी, चित्रकर्ममें मेहतत करती थी, सुभाषितोंका श्रर्थात्‌ अ्रच्छे इलोंकोंका पाठ कर सकती थी, और अन्य अनेकविध कलाओंमें निपुण होती थीं अन्त:पुरकी वधुएँ पर्देमें रहती थीं, उनके सिर॒पर अवगुठन या घूँघट हुआ करता था और चार अवसरोंके अतिरिक्त अन्य किसी समय उन्हें कोई देख नही सकता था। ये चार अवसर थे यज्ञ, विवाह, विपत्ति और वन-गमन | इन चार अवस्थाओंमें वधूका देखना दोषावह नही माना जाता था | प्रतिमा नाटक्में इसी लिये श्री रामचन्द्रने कहा है -- स्वैरं हि. पर्यन्तु कलत्रमेतद्‌ वाष्पाकुलाक्षैवंदनैर्भवन्‍्तः निर्दोषदृश्या हि भवन्ति नार्यो यज्ञे विवाहें व्यसनें वने ञत् ॥॥

७४ ]

(प्रतिमा०_ १-२६)

परन्तु कुमारियाँ श्रधिक स्वतंत्र थीं | वे ब्रत, उपवास तो करती थीं

परन्तु उनके ग्रतिरिक्त अनेक प्रकारकी कलाओंमें भी रुचि रखती थीं | वे लिखती

पढ़ती थीं, चित्र वनाती थीं, गृह-द्वारकों अभिराम-मण्डनिकाश्रोंसे मंडित करती

थीं और यथावसर श्ास्त्रार्थीविचार भी कर लेती थीं। काव्यग्रन्थ लिख-

नेंका कार्य कुमारी कन्याएँ किया करती थीं और कभी कभी उनके प्रेमपत्र लिख- नेका सवृत मिल ही जाता है

४२ लेखन-सामग्री

पुस्तक और पत्र लिखनेके लिए साधारणत : भूज॑पत्रका व्यवहार होता था। कालिदासने हिमालयकी महिमा-वर्णनके प्रसंग्में बताया हैं कि विद्याधर-सुन्दरियाँ भूज॑पत्रोंपर धातुरससे अपने प्रेमियोंके पास पत्र लिखा करतीं थी जिनके अक्षर हाथीके सूँड़पर मिलनेवाले बिन्दुओंके समान सुन्दर होते थे न्यस्ताक्षराधातुरसंन यत्र भूजेत्वच: कुछ्जरविन्दुशणाः: ब्रजन्ति. विद्याधरसुन्दरीणा- मनजुलेखक्रिययोपयोगम्‌ (कुमार १.७) यह भोजपत्र हिमालय प्रदेशमें पैदा होनेवाले भू नामक वृक्षकी छाल हूँ | इनकी ऊँचाई कभी-कभी ६० फुट तक जाती हैं हिमालयमें साधारणतः १४००० फीटकी ऊंचाईपर बे बहुतायतसे पाए जाते हैं इनकी छाल कागजकी भाँति होती है इस छालको लेखक लोग अपनी इच्छानुसार लम्बाई-चौड़ाई- का काटकर उसपर स्याहीसें लिखते थे अब तो यह केवल यंत्र-मंत्रके काम ही आता हुँ, पर किसी जमानेमें काश्मीर, तथा हिमालय प्रदेशोंसें भूज॑पत्रपर ही पोथि-

[७५ याँ लिखी जाती थीं अधिकतर भूज॑पत्रकी पुस्तकें काश्मीरसे ही मिलती हैं भोजपत्रकी सबसे पुरानी पुस्तक खरोष्ठी लिपिमें लिखा हुआ प्राकृत (पालीवाला नहीं) धम्मपद नामक प्रसिद्ध ग्रंथ है, जो संभवतः सन्‌ ईंसवीकी तीसरी शताब्दी- का है सबसे पुरानी संस्कृत-पुस्तक जो भोजपत्रपर लिखी मिली है, वह संयुक्ता- गम सूत्र हैं। खरोष्ठीवाली पुस्तकका काल निश्चित झुपसे नहीं कहा जा सकता वह खोतानसे प्राप्त हुईं थी। काश्मीर और उत्तरी प्रदेशोंके सिवा अन्यत्र भूर्ज पत्रकी पोथियोंका बहुत-अधिक प्रचार नहीं था निचले मैदानोंमें ताड़के पत्ते प्रचुर मात्रामें उपलब्ध होते थे बे भूज॑पत्रकी अपेक्षा टिकाऊ भी होते है और सस्ते तो होते ही हैं। इस्तीलिए मैदानोंमें तालपत्रका ही अ्रधिक प्रचार थ।

तालपत्रको उवालकर हांख या किसी अन्य चिकने पदार्थत्रे रगड़कर उन्हें गेल्हा जाता था गेल्हनेके बाद लोहेकी कलमसे उनपर अक्षर कुरेद दिए जाते थे, फिर काली स्याही लेप दी जाती थी, जो गड्ढोंमें भर जाती थी और चिकने अंशपरसे पोंछ दी जाती थी लोहेकी कलमसे कुरेदनेकी यह प्रथा दक्षिण- में ही प्रचलित थी | उत्तर भारत और पूर्व भारतमें उनपर उसी प्रकार लिखा जाता था, जिस प्रकार कागजपर लिखा जाता हैं इन पत्तोंका आकार कभी- कभी दो फुट तक होता है संस्कृतमें 'लिख्‌' धातुका अर्थ कुरेदना ही है। लिपि! शब्द तो लिखावटके लिग्रे प्रचलित हुआ है, इसका कारण स्याहीका लेपना ही है इन पत्रोंमें लिखनेकी जगहके बीचोंबीच एक छेद हुआ करता थ।। यदि पत्र बहुत लम्बे हुए तो दो छेद बनाए जाते थे और इन छेदोंमें धागा पिरो दिया जाता था बादमें कागजपर लिखी पोथियोंमें भी छेद लिए जगह छोड़ दी जाती थी, जो वस्तुत: छिद्वित नहीं हुआ करती थी | सूत्रसे ग्रथित होनेके कारण ही पोथियोंके लिए ग्रंथ” शब्द प्रचलित हुआ भाषामें सूत्र मिलना जो मुहावरा प्रचलित है, उसका मूल पोथियोंक पन्नोंको ठीक-ठीक सँस।ल रखनेवाला यह ध।गा ही जान पड़ता है। हमने ऊपर तालपत्रकी सबसे पुरानी पोथीकी चर्चा की है काशनगरसे कुछ चौथी शताबव्दीके लिखे हुए तालपन्नके ग्रन्धोंके त्रुटित अंश भी उपलब्ध हुए हैँ सबसे मजेदार बात यह है कि तालपत्रकी लिखी हुईं जो दो पूरी पुस्तकें हैं, वे जापानके होरियूजि मठमें सुरक्षित है इनके नाम हैँ : प्रज्ञापारमिता-हृदय सूत्र और उदच्णीक्ष-विजय-धारिणी | इसकी लिखावटसे अनुमान किया गया है कि ये पोथियाँ सब्‌ इंसवीकी छठी शताव्दीके आस-पास लिखी गई होंगी

७६ |

४३)

प्रस्तर-लेख

प्रसंग है तो कह रखना उचित है कि भूजजपत्र और तालपत्रकी अपेक्षा भी अधिक स्थायी वस्तु पत्थर है नाना प्रकारसे पत्थरोंपर लेख खोद कर इस देशमें सुरक्षित रखे गए है। कभी-कभी बड़ी-बड़ी पोथियाँ भी चट्टानोंपर और भित्ति- गात्रोंकी शिलाओंपर खोदी गई हैं बहुतसी महत्त्वपूर्ण पोथियोंका उद्धार सिर्फ शिलालिपियोंसे ही हुआ हैं अशोकको शिला-लेख तो विख्यात ही हैं बहुत पुराने जमानेमें भी पर्वत-शिलाओंपर उट्टंकित ग्रंथोंसे ऋान्तिकारी परिणाम निकले है काझ्मीरका विद्ञाल अह्दत शैव मत जिस 'शिव-सूत्र” पर आधारित है, वह पव॑तकी शिलापर ही उट्टद्धित था। शिलागात्रोंपर उत्कीर्ण लिपियोंने साहित्यक इतिहासकी ञ्रांत धारणाओंको भी दूर किया है महाक्षत्रप रुद्रदामाके लेखसे निस्सन्दिग्ध रूपसे प्रमाणित हो गया कि सन्‌ १५०,ई० के पूव्व संस्क्ृतमें सुन्दर अलंकृत गद्यकाव्य लिखे जाते थे यह सारा लेख ही गद्य-काव्यका एक उत्तम नमूना है इसमें महाक्षत्रपने अपनेको स्फुट-लघु-मधुर-चित्र-कात्त-शव्द- समयोदारालंकृत-गद्य-पद्च! का मर्मजझ बताया था सम्नाठ समुद्रगुप्तने प्रयागके स्तंभपर हरिषेण कवि द्वारा रचित जो प्रशस्ति खुदवाई थी वह भी पद्य औौर गद्य- काव्यका उत्तम नमूना है हरिषेणने इसे संभवतः ५३० ई० में लिखा होगा। अ्रव तो सैंकड़ों ललित काव्य और कवियोंका पता इन शिला-लिपियोंसे चला है इन काव्यात्मक प्रशस्तियोंके अनेक संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं इस प्रसंगर्में राजा भोजके अपने प्रासाद भोजशालासे उद्धार की गई एक नाटिका और एक प्राकृत काव्यकी चर्चा मनोरंजक होगी इस भोजशालाकी सरस्वती-कंठाभरण नामक पाठ्शाला आजकल धारकी कमालमौला मस्जिदके नामसे वर्तमान है सन्‌ १६०५ ई० में एजुकेशनल सुपरिण्टेण्डेन्ट मिस्टर लेलेने प्रो० हचकों खबर दी कि धारकी कमालमौला मस्जिदका मिहराव टूट गया हैं और उसमें से कई पत्थर खिसककर निकल आए है, जिनपर नागरी अक्षरोंमें कुछ लिखा हुआ है इन पत्थरोंको उलटकर इस प्रकार जड़ दिया गया था कि

दे [७७

लिखा हुआ अंश पढ़ा जा सके जब पत्थर खिसककर टूट गिरे तो उनका पढ़ना संभव हुआ परीक्षासे मालूम हुआ कि दो पत्थरोंपर महाराज भोजके वंशज भ्र्जन- देव वर्माके गुर गौड पंडित मदत कविकी लिखी हुई कोई पारिजात-मंजरी' नामक नाटिका थी नाठिकामें चार अंक होते हूँ | अनुमान किया गया हैँ कि बाकी दो अंक भी निश्चय ही उसी इमारतर्म कहीं होंगे, यद्यपि मस्जिदके हिताचितकोंक आभश्नहसे उनका पता नहीं चल सका फिर कुछ पत्थरॉोपर स्वयं महाराज भोज लिखें हुए आर्या छद्॒के दो काब्य खोदे गए थे, जिनकी भाषा कुछ अपभ्रंशसे मिली हुईं प्रकृत थी इस शिलापटकी प्रतिज्छवथि एपिग्राथफिका इण्डिका' की आठवीं जिल्दममें छपी है चौहान राजा विग्रहराजका हरिकेलि नाटका और सोमेश्वर कविका ललित-विग्रह राज” नामक नाटक भी शिलापट्रोंपर खुदें पाए गए हैं एक सुंदर काव्य एक पत्थरपर खुदा ऐसा भी पाया गया है, जो किसी शौकीन जमींदारकी मोरियोंकी शोभा वढ़ा रहा था यद्यपि ब्रभी भी भारतवर्षके अनेक शिला-लेख पढ़े नहीं जा सके, हैँ, तथापि नाना दृष्टियोंसे इन लेखोंने भारतीय संस्कृति और सम्यताके अव्ययनमें महत्त्वपूर्ण सहायता पहुँचाई

डंडे

सुबर्ण और रजतपन्न

इस वातका प्रमाण प्राप्त है कि बहुत सी पुस्तकें सोने और चाँदी तथा अन्य धातु पत्तरोंपर लिखाकर दान कर दी गई थीं मेरे मित्र प्रो० प्रहलाद प्रधानने लिखा है कि कालक्रमसे बौद्ध भिल्लुकोंमें यह विज्वास जम गया था कि पुरानी पोथियोंको गाड़ देनेसे बहुत पुण्य होता है ऐसी बहुत सी गाड़ी हुईं पोधियोंका उद्धार इन दिनों हो सका है द्वेनत्सांगने लिखा हूँ कि महाराज कनिप्कने त्रिपिटक- का नूतन संस्करण कराकर ताम्रपत्रोंपर उन्हें खुदवाकर किसी स्तूपमें गड़वा दिया था। अभी तक पुरातत्त्व-वेत्ता लोग इन गड़े ताम्रपत्रोंका उद्धार नहीं कर सके हूँ। लंकामें कंडि जिलेमें हंगुरनकेत विहारके चैत्यमें हजारों रुपयोंकी बहुमूल्य

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पुस्तकें और अन्य वस्तुएँ गड़वा दी गई थीं रौप्य पत्रपर विनय-पिटकके दो प्रकरण, अभिधम्मके सात प्रकरण और दीर्घनिकाय तथा कुछ अन्य ग्रंथोंको खुदवा- कर गड़वानेमें एक लाख बानबें हजार रुपये लगे थे सोनेके पत्तरोंपर लिखे गए स्तोत्र झ्रादिकी चर्चा भी आती है तक्षशिलाक गंगू नामक स्तूपसे खरोष्ठी लिपिमें लिखा हुआ एक सोनेका पत्तर प्रसिद्ध खोजी विद्वान जनरल कनिघमको मिला था बर्माके द्रोस नामक स्थानसे पालीमें खुदें हुए दो सोनेके पत्तर ऐसे मिले हैं, जिनकी लिपि सन्‌ ईस्वी चौथी या पाँचवी शताब्दीकी होगी भट्टिप्रोलूके स्तूपसे और तक्षशिलासे भी चाँदीके पत्तर पाए गए है सुना है, कुछ जैन-मन्दिरों- में भी चाँदीक पत्रपर खुदे हुए पवित्र लेख मिलते है, ताम्बेके पत्तरोंपर तो बहुत लेख मिले हैं, परन्तु उनपर खुदी कोई बड़ी पोथी नहीं मिली है।

34

वधूका ज्ान्त-शोभन रूप

कुमारियोंके पत्र-लेखन और पुस्तक-लेखनके प्रसंगमें हम कुछ बहक गए थे अब फिर मूल विषयपर लौटा जा सकता है वधूके अनेक रूपोंकी चर्चा पहले हो आई है (पृ० ६६) हम अन्यत्र यज्ञ और विवाहके अ्वसरोंपर पौर वधुओँंको देखनेका अवसर पाएँगे व्यसन अर्थात्‌ विपत्तिके अवसरपर देखनेका मौका भी हमें इस पुस्तकें चही मिलेगा, परन्तु प्राचीन भारतकी भ्न्तःपुर-वधूको यदि हम व्यसनावस्थामें देखें तो उसका ठीक-ठीक परिचय पा सकेंगे वधूके व्यसन (विपत्ति) कई थे-रोग, शोक, सपत्नी-निर्यातल, पतिका औदा- , सीन्य, पत्तिके अन्यत्र प्रेमद्रवित होनेकी आशंका और सबसे बढ़कर पुत्रका होना इन अवसरोंपर वह कठिन ब्रत्तोंका अनुष्ठान करती थी, ब्राह्मणों और देवताओंकी पूजा करती थी, उपवास करके स्नानादिसे पवित्र हो गुग्गुल घूपसे धूपित चण्डी- मण्डपमें कुशासन विछाकर वास करती थी, गोशालाओंमें आकर सौभाग्यवती धेनुऔं-जिन्हें वृद्ध गोपिकाएँ सिन्दूर, चन्दन और माल्यसे पूज देती थीं-

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की छाबामें स्नान करती थी, रत्वपूर्ण तिलपात्र ब्राह्मणोंको दान करती थी, ओझोंकी शरण जाती थी और कृप्ण चतुर्दशीकी रातको चतुप्पथ (चौराहे) प्र दिक्‍्पालोंको वलि देती थी, ब्राह्मी आदि मातृकाओंकी पूजा करती थी, अवब्वत्यादि वुक्षेंकी परिक्रमा करती थी, स्तानके पदचात्‌ चाँदीके पात्रमें अल्षत दर्िमिश्चित जलका उपहार गौवोंको खिलाती थी, पुष्प धूप आदिसे दुर्गा देवीकी पूजा करती थी, सत्यवादी अपणक साघधुत्रोंको अ्न्नका उपढौकन देकर भावी मंगलकी विपयमें प्रदवत करती थी, विप्रश्निका कही जाबेवाली स्त्री-ज्योत्तिपियोंसे भाग्य गणना कराती थी, अज्जोंका फड़कना तथा अन्यान्य शुभाशुभ शक्‌नोंका फल दैवजसे पूछती थी, तांत्रिक साथकोंके बताए गुप्त मन्त्रोंका जप करती थी, ब्राह्मणोंसे वेदपाठ कराती थी, ग्रह्मचायोसे स्वप्तका फल पुछवाती थी और चत्वरमें शिवावलि (शुगालियोंकों उपहार) देती थी इस प्रकार यद्यपि वह अवरोधमें रहती थी (कादम्वरी), तथापि पूजा-पाठ और अपने विश्वासके अ्रनु- सार अन्यान्य मांगल्य अनुप्ठानोंकें समय वह वाहर निकल सकती थी

उत्सव वेशभूषा

पुरुष और स्त्री दोनोंके लिये यह आवध्यक था कि वे उत्सवोंमें पूर्ण अलं- कृत होके जाये केवल स्त्रियाँ ही प्राचीन भारतमें अलंकार नहीं घारण करती थीं, पुरुष भी नाना प्रकारके अलंकार धारण करता था। अयोध्याके नागरिकोंकी वात वतातें समय आदि कविने लिखा है कि-अयोध्यामें कोई ऐसा पुरुष नहीं था जो कुण्डल धारण किए हो, मुकुद पहने हो, मालासे विभूषित हो, काफी मसोगका अधिकारी हो, साफ-सुथरा रहता हो, अंगरागोंका लेप करता हो, सुगन्वि धारण करता हो, अंगद (वाहुका आभूषण), निप्क (उरोभूषण) और 'हाथके आमरणोंको धारण किए हो (बाल० ७-१०-१२) स्थियों तो सब

हक

देशमें सव समय भूषण वारुण करती ही है प्राचीन ग्रन्योंमें पुरुषोंके बाहुमूल

पघ० ||

कलाई और अंगूलियोंके घाये अलंकारोंकी खूब चर्चा है और कुप्डल हारकी भी चर्चा बरावर मिलती है ये अलंकार सभी पुरुष घारण करते थे अलंकार तीन प्रकार के माने गए हँ---त्वामाविक, अवत्वज और वाह्म ! लीजा, विलास, विच्छित्ति, विज्रम, किलकिडिचत, मोट्टायित, कृट्टमित, विव्वोक, ललित और विहृत ये स्त्रियोंके स्वाभाविक अलंकार है अलंकारके ग्रन्धोंमें इनका विस्तृत विवरण मिल्नेया अयत्नज अलंकार पुरुपोंके और स्त्रियोंके अलग-अलग माने जाते थे | शोभा, कान्ति, दीप्ति, माचुर्य, चैये, प्रगबल्मता और ओदार्य स्त्रियोंके अयत्न-साधित अलंकार हैं और झोभा, विलास, माथुये, स्थैये, माम्भीयं, ललित, ओऔदार्य और तेज पुरुषोंके झास्त्रोंमें इसके लक्षण बताए गए हैं ( नाट्य-शास्त्र श्४ं-२४-३६ ) उस्तुतः इन स्वाभाविक अलंकारोंसे ही पृ रुप या स्त्रीका सौन्दर्य खिलता है ! बाह्य अलंकार तो स्वाभाविक सौन्दर्यको ही पुप्ट करते हैं कालि- दासने ठीक ही कहा था कि कसलका पुष्य शैवाल जालसे अनुविद्ध हो तो भी सुन्दर लगता हैं, चद्धमाका काला वच्वा मलिन होकर भी झोभा विस्तार करता है, उसी प्रकार वल्कल घारण करनेपर भी झकुन्तलाका रूप अधिक मनोज हो गया है मधुर आकहृतियोंके लिए कौन सी वस्तु अलंकार नहीं हो जाती ?--- सरप्तिजमनुविद्धं जैवलेनापि रम्यं मलिनमपि हिमांगझोलंल्म लक्ष्मी तनोति | इयमधिकमनोजा वल्कलेनापि तन्‍्वी किसिव हि मवुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्‌ ।। परन्तु फिर भी यह आवश्यक माना जाता था कि नागरिक लोग देश कालकी परिपादी समझें, अलंकरणोंका उचित सन्नित्रेश जानें, और सामाजिक उत्सवोंके अवसरपर सुरुचि और सुसंस्कारका परिचय दें उस युगके शास्त्र- कारोंनें इस वातपर जोर दिया है कि युवक-युवतियोंको गुण, अलंकार, जीवित आऔर परिकरका न्ान होना चाहणि क्योंकि गुण शोमाका समुत्यादक है, अलंकार समुद्दीपक है, जीवित अनुप्राणक है, परिकर व्यंजक है ये एक दूसरेके उपकारक हैं, ओर इसीलिए परस्परके अनुग्राहक भी हैं गुण और अलंकारसें ही शरीरमें उत्कर्प आता है चोभा-विधायक घमोंके गुण कहते है वे ये हैं :--- रूप वर्ण: प्रभा रागः आशभिजात्य॑ विलासिता लावण्यं लक्षणं छावा सौभाग्य चेत्यमी गुणा: ॥॥ दबारीर अवयवोंकी रेखामें स्पष्टताको रूप कहते हैँ, गौरता-श्यामता आदि- को वर्ण कहते हैं सू्यकी भाँति चमक (काचकाच्य) वाली कान्तिको प्रभा कहते हैं, अधरोपर स्वभाविक हँसी खेलते रहनेके कारण सबकी दृष्टि आकर्षण करनेवाले धर्मको राग कहते हैँ, फूलके समान मृदुता और पेशलता नामक वह

[5३

गुण जो लचालादिके रूपमें एक विशेष प्रकारका स्पर्श या सहलाव होता है उसे आशभिजात्य कहा गया है, अंगों और उपांगोंसे युवावस्थ।के कारण फूट पड़तेवाली विभ्रम विलास नामक चेष्टाएँ, जिनमें कटाक्ष, श्रूक्षेप आदिका समुचित मान्नार्मे योग रहता है, विलासिता कहलाती है चन्द्रमाकी भाँति आह्लादकारक सौन्दर्य- का उत्कर्प-भूत स्निग्ध मधूर वह धर्म जो अवयवोंके उचित सचन्निवेशसे व्यंजित होता रहता है लावण्य कहा जाता है वह सूक्ष्म भंगिमा जो श्रग्राम्यताके कारण वक्तिमत्वख्यापिनी अर्थात्‌ वाह्य शिष्टाचार और परिपाटीकी प्रकट_करनेवाली होती है, जिससे तांवूलसेवन, वस्त्र, परिधान, नृत्य-्सुभाषित आदिके व्यवहारमें वक्‍ताका उत्कर्ष प्रकट होता है छाया कहलाती है, सूभग उस व्यक्तिको कहते हैं जिसके भीतर प्रकृत्या वह रंजक गुण होता है जिससे सहृदय लोग उसी प्रकार स्वयमेव आक्ृष्ट होते है जिस प्रकार पुष्पके परिमलसे भ्रमर उसी सुभग व्यक्तिके आन्‍्तरिक वशीकरण धम्म-विशेषकों सौभाग्य कहते हैं। सहृदयके अन्दर ये दस गुण विधाताकी ओरसे मिले होते है प्रत्येक व्यवित इच्छा करनेसे ही इन्हें नहीं पा सकता वे जन्मांतरके पुण्याज॑नसे प्राप्त होते है

४७३

अलंकार

सहृदयके अलंकार सात ही हैं रत्नं हेमांशुके माल्य॑ मण्डत्त द्वव्ययोजने प्रकीर्ण चेत्यलंकारा: स्वप्नैवेते मया मता: वज्ञ-मुक्ता-पद्मराग-मसरकत-इन्द्रनी ल-बैदुय-पुष्पराग-कर्कंतन-पुलक-रुध्राक्ष भीष्म-स्फटिक-प्रवाल ये तेरह रत्न होते हूँ वराहमिहिराचार्यकी बूृहत्सं- हितामें ( अध्याय 5०) इनके लक्षण दिए हुए हैं। भीष्मके स्थानमें उसमें विष- मक पाठ है शब्दार्थ-चिन्तामणिके अनुसार यह रत्न हिमालयके उत्तर प्र।न्तमें पाया जानेवाला कोई सफेद पत्थर हैं बाकीके बारेमें बृहत्संहितामें देखना

२]

चाहिए हेम सोनेको कहते हैं। यह नौ प्रकारका बताया गया है-जांबूनद, शातकौम्भ, हाटक, वेणव, श्वुज्भी, शुक्तिज, जातरूप, रसविद्ध और आकार-- (खनि) उद्गत | इन तेरह प्रकारके रत्नों और नौ प्रकारके सोनोंसे नाना प्रकारके अलंकार बनते हैँ ये चार श्रेणियोंक होते हैँं-"- (१) आवेध्य, (२) निबन्धनीय, (३) प्रक्षेप्य और (४) आरोप्य ताड़ी, कुण्डल, कानके बाले आदि अलंकार अंगमें छेद करके पहने जाते है' इसलिये आवेध्य कहलाते है अज्भद (बाहुमूलमें पहना जानेवाला अलंकार-विजायठ जातीय), श्रोणीसूत्र (करधनी आदि), चूड़ामणि, शिखा-दुढ़िका आदि झलंकार बाँधकर पहने जाते हैं इसलिये इन्हें निबन्धनीय कहा जाता है ऊरमिका, कटक, (पहुँचीमें पहना जानेवाला अलंकार ), मंजीर आदि अंग्मे प्रक्षेपपू्वंक पहने जाते है इसलिये प्रक्षेप्य कहलाते है, झूलती हुईं माला, हार, नक्षत्रमालिका आदि-आदि अलझृकार आरोपित किए जानेके कारण आरोप्य कहलाते है अलंकारोंके एक और वर्गीकरणकी चर्चा मल्लिनाथने मेघदूत (२-११) की टीकामें की हैं रसाकर नामक भ्रंथसे एक इलोक उद्धुत करके बताया है कि भूषण चार प्रकारके ही होते हैं -(१) कचघार्य अर्थात्‌ कंशरमें धारण करने योग्य, (२) देहधार्य अर्थात्‌ देहमें धारण करने योग्य, (३) परिधेय या पहननेके वस्त्रादि (४) विलेपन भ्र्थात्‌ चन्दन अगुरु आदिसे बने हुए अंगराग ये सब स्न्रियोंके श्रलंकार हैं देश विशेषमें ये भिन्न-भिन्न हैं--- कचधाय देहधार्य परिधेयें विलेपनम्‌ चतुर्धा भूषणं प्राहुः स्त्रीणामत्यर्थदैशिकम्‌ ॥। वस्त्र चार प्रकारके होते है, कुछ छालसे, कुछ फलसे, कुछ कीड़ोंसे और कुछ रोंझोंसे बनते हैं, इन्हें क्रमश" क्षौम, कार्पास (रूईक ), कौषेय (रेशमी), राझुकव (ऊनी) कहते है। इन्हें भी निबन्धनीय, प्रक्षेप्य और आरोप्यके वैचित्य- वश तीन प्रकारसे पहना जाता है पयडी, साड़ी आदि निबन्धनीय है, चोली झ्रादि प्रक्षेप्प है; उत्तरीय (चादर) आदि आरोप्य हू वर्ण और सजावटके भेदसे ये नाना भाँतिक होते हैं। सोने और रत्नसे बने हुए अलझूकरोंकी भाँति माल्यके भी आवेध्य-निबन्धनीय-प्रक्षेप्य-आरोप्य ये चार भेद होते हैं। प्रत्येकर्मे ग्रथित और अग्रथित दो प्रकारक माल्य हो सकते है इस प्रकार कुल मिलाकर माल्यके आठ भेद होते हैं--- वेष्टित अर्थात्‌ जो समूचे अद्भको घेर ले (उद्दत्तित ) एक पारवेमें वितारित माल्यको वितत कहते हैं, अनेक पुष्पोंके समूहसे रचित माल्यको संघाद्य कहते हैं, बीच-बीचमें विषम याँठवालोंको ग्रन्थिमत्‌ कहा जाता हैं, स्पष्ट ऋलते रहने वाले को अवलम्बित, केवल पुष्पवालेको मुक्तक, अनेक पुष्पमयी लताको मंजरी और पुष्पोंके गुच्छेको स्तबक कहते हैं कस्तूरी-कुंकुम-चन्दन-कर्पू र-

[८३

अगुर-कलक-दन्तसम-पट्वास-सहकार-तलन्ताम्वूल-अंल क्तक-अबज्जन-गोरोचना

प्रभात सण्डन द्रव्यवाल अलछकार हात हू अ़धदठना, कशरचना, जड़ा

बाँवना, आदि योजनामय अलछकार हैं प्रकीर्ण अलछकार दो ग्रकारके होते डे अअटार पड मदिरिाका ->+८८्ः मंद आदि रॉ ज्न्य ब््ः आर ञ््द्र््ी हैं, जन्य और निवेर्य श्रमजल, मदिराका मद आदि जन्य हैं, और दूर्वा,

५;

ग्रगोफक पलल्‍लव यवांकर 7 तालदल दन्तपत्रिका ई>>टमदा मणालवलब,

अनगाक पलल्‍लव यवाकुर, रजत, त्रुपु, गले, तालदल, दल्तपात्रका, मृगालवलयब, करक्रीडनादिककों न्‍्+ निरदेदय ख्््ल्ज् ->+ समवायकों जज +ज््+ 4 >ऋ सच रीाडनादकका चदरय कृहत हू, इस सबक समदायका वर कंहत हु वहू वश

झोभनीय जे

देशकालकी प्रकृति और अदस्याके सामंजस्थको दृष्टिमें रखकर झोभनीय होता

कक,

7 क्‍्ल्‍्ज्लनत््स 557 मात्रामें सा >क्िनिक्तद रमणीयताकी वद्धि १“ हु। इनक सजावद्स उाचत मात्राम सान्नवेशस रमणायताका दाद हाता हू

स््िज््ट्ज उअलस्त्ज अलजड तीज असकचलसडजल अनप्राणक जीवित

यबावत नामके वस्तु हा भामाका अनुशाणक हू उसका जावत कहते [०-२ अवस्थामें कल अख्ममे विपलता आर ्ीस्ल्चन्‍ अजनिचओओ सकी नमयजममस्‍ननयुण पारस्परिक 2 ०० हैं। इस अवस्थामें अज्भोंमें विपुलता और सौप्ठव आते हूँ, उनका पारस्परिक विभेंद स्पष्ट हो जाता हैं। वह पहले वयःसन्बिके रूपसें आरम्भ होता है और

अआंह्क रूपम मव्यावस्थाका प्राप्त हाता हू | प्रथम अदस्थाम धम्मिल्ल (जड़ा)

०० नै चतंमान >> होती 7: जयूंगारातभ

चब्दाए वतमान हाता हू दूसरा अवस्थाम खुनाराजुभावका तारतम्य हा श्रष्ठ

१] झोमाका निकट्से ल्‍्ल्ज्स- उक्त परिकर ब््ल्त्ञ्त अनदचचाा 35

ढ4॥ भानाका िकट्स उयपकारक हाचक कारण पारकर उसका व्यजक हु | ऊपर जिन वाह्य हव अलककाराकी चचा हू, उत्तका दाना भावस साहित्यमें

सा ह्डै प्राचीच मतियों बहविघ

वर्यंच आता हूँ प्राचीन मूर्तियों, चित्रों और काव्योंमे -इनका वहुविध प्रयोग

कि

पाया जाता है। भास्वत्रोर्मे उनके नाम भी पाये जाते हैं। (दे० नाट्यबास्त्र, विस्तार-

है.

वज्न्र या हीरा

झलंकरण के लियें भ्रकेला रत्न असहाय है उसे सोने का सहारा चाहिए इसीलिये गहनों की चर्चा करते समय सहृदंयों ने दोनों को साथ-साथ रेखना पसेनंद किया है

ऊपर राजानक रुय्यक के बताएं तेरह रत्न गिनाए गए हैं कौटिल्य के शर्थशास्त्र में भी इतका विस्तृत विवरण है वज्ञ् हीरे को कहते हैं इनके छ: भेद बताए गए है जो तत्ततादेशों में उत्पन्न होने के कोर भिन्न-भिं्च नंमों से पुकारे जाते थे कौटिल्य के अनुसार समाराष्ट्रक विदर्भ से, मंध्यमराप्ट्रक कोसले से, कश्मीरराष्ट्रक कश्मीर से, श्रीकटनक इसी नाम के पर्वत से, मणिकान्तं मणिमान पवव॑त से, इन्द्रवानक कलिंग देश से प्राप्त होता था। कालिदास ने इनके भेदों की कोई चर्चा नहीं की है वज्जके एक गुण की उन्होंने चर्चा की हैं, मणि को छेदने का सामथ्य, 'मणौ वज्समुत्कीर्ण' कौटिल्य ने अच्छे हीरे के गुणीं में स्थूलता, गुरुता, प्रहार सहने की क्षमता, समाव कोण वाला होना, भाजन अर्थात्‌ वतंत पर लकीर खीच सकने की योग्यता, कुअग्नि होना श्रर्थात्‌ तकुए की तरह घूमकर छेद कर सकने वाला और आ्राजिष्णु या चमकदार होना मणि को समुत्कीर्ण करता वज्ञ वा हीरे का गुण है रघुवंश में (६-१६) बज्ञ (हीरे) की जगमगाती किरणोंवाले किरीट की चर्चा हैं कौटिल्य हारा बताया गया आजिष्णु गुण यही चमकता रूप हैं

४6

मोती या मुकक्‍ता

मुक्ता कालिठास का अ्रधिक प्रिय रत्न हैं वस्तुतः सुन्दरियों के उभरे स्थलों पर कंपमान मुक्ता-दाम कवि को सौन्दर्य के मोहक लोक के निर्माण

भी थे। कौटिल्य ने इस प्रकार के मोतियों की चर्चा की हैं, जो वस्तृत: उदय स्थान से पकारें जाते थे

(१) कुछ ताम्रपर्णी नदी से निकलते श्रे, (२) कुछ मलब कोठि के निकट्स्थ सरोवर्री से, (३) कुछ पटना के पास से बहने वाली पाशिका नदी से, (४) दछुछ सिंहल की उला नदी से, (५) कुछ केरल की चूर्ण नदी, से, (६) कुछ महेद्ध पर्वत के निकट समूद्र से. (७) कुछ ईरान की कर्दमा नदी ये, (5) कुछ वर्बर (वेविलोनिवा था बाबुल ) की जोतसी नदी से (€) कुछ बावुल की श्रीबंट नामक झील से, और (१० ) कुछ हिमालव पर्वत से कालिदास को इनमें किसी प्रकार के विद्येष मोती पर झुकाव नहीं जान पड़ता | उन्हें कौटिल्ब द्वारा बताए चुक्िति, ंख और प्रकीर्णक (गजमुक्ता आदि) की जानकारी अवच्य थी वे प्रझस्त मोतियों को ही उल्लेख के बोग्च मानते थे कौटिल्य के अनुसार स्थल बृत्त, निल्चल जअआजिष्णू, ब्वेत, स्तिग्व और देश-विद्ध (ठीक स्थात पर छेद

हाई ल्‍ >> ल्‍्जञा कक िसजकममटी का ध्रटी नर न्ध् हि (७ लत बन +॥ $ 35६

ब्ध्७ / , ४. जय: कह आय. या # के; 3 मोतियों की लड़ी की प्‌ राने जमाने में यप्टि कहते थे यही तो यह है कि ा. ठाव्द का कापस्सभ+े 5 यष्टि: लट्ठि- लटी-लर कौटिल्य लड़ी या सर, वष्दि बब्द का ही रुगान्तर हैं | बषप्डिललट्निलड़ी-लर कौटिट्ट

द्य मोतियों संख्या दर अनसार जज अगनेत मौक्ति डरा >>755 र्मों ८. चर्चा 5 माधिया का खख्या के अतुसार अतक माकिलक-आमरखणा का बचा का हू इन्द्रत्छद में १००८, विजयच्छद में ५०४, देवच्छठ में १००, अर्द्धहार में ६४

हाध्यकताय ४४ सयक्छक्तू ३२, नक्षत्रमालम २७, अ्रद्धगन्छक मे २४, सामवक में ००, अद्धमागवक में १० मोती होते थे कालिदास भारी गहनों

का पसन्द नहीं करत | जो कंवल सम द्वि के विज्ञापन मात्र हो, उसपर उनके

८६]

सुरुचिपूर्ण दुप्टि टिकती नही थी वे सूत्र में पिरोए हुए (कौटिल्य के अनुसार शुद्ध ) हारों की चर्चा करते हैं; या फिर मणि-मुक्ता की हार-यप्टि या चित्र- हारों की शोभा पर प्रसन्न होते है, या सोने के सूत्र में पिरोई हुई मणि-मुक्ता की माला रत्नावली पर मुग्ध होते है कालिदास को पतली और हिलती रहने वाली लड़ी (यप्टि) अधिक पसंद है; इतनी चंचल कि वक्षस्थल के चन्दन को पोंछ डालती हो (विलोलयप्टिप्रविलुप्तचन्दनमम्‌ कुमार श-5८ ) अनुमान किया जा सकता है कि कलाप' नक्षत्र-मालिका' और गुच्छकों' में उनकी रुचि रही होगी कालिदासने मणियों में लाल-लाल पद्मराग जिसे कौटिल्य पारसामुद्रिक (समुद्र पार से प्राप्त ) तृषाझकुर के समान वैदूर्य, नीलवर्ण इन्द्रनील, हरित वर्ण के मरकत मणि (उ० मे० ) सुर्दरियों के अधर से स्पर्द्धा करने वाले विद्र॒म, सूर्यकिरणों से समृद्ध-राग पुप्पराय सणि, प्रभा-बहुल पृष्प-राग, लाल-लाल प्रवाल, स्वच्छ स्फटिक, तथा सूर्यकान्त, और चन्द्रकान्त मणियों का नाम लेकर उल्लेख किया हूँ बाकी रत्नों या मणियों को सामान्य रूप से ही स्मरण किया है। वैसे तो शास्त्रकार प्रशस्त मणियों के अनेक गुण बताते हैं; उनमें जो छः या चार कोने वाली, सुवृत्त या गोल, तीज रंगवाली, निर्मल, स्तिग्प, भारी अधि- प्मानू (किरण युक्त ), अस्तर्गत-प्रभ (भीतर प्रभावली), और प्रभानुलेपी (दूसरे को चमकाने वाली ) हों, वो अच्छी मानी जाती थी; पर कालिदास अंतिम तीन गृणों की ही चर्चा अधिक करते है

प्0 हेस या सोना हेम या सोना के कई नाम ग्रन्थों में आए है। हेम, सुवर्ण, कनक,

शातकुंभ, जातरूप, स्वर्ण, हिरण्य, काञ्चन आदि शास्त्रकारों ने इन कई के भिन्न-भिन्न पारिभाषिक अर्थ बताए हूँ परन्तु परवर्ती काल में ये

[5७

सभी समानार्थक मात लिए गए थे कौटिल्य ने जाम्बूनद (जम्बू नामक नदी से उत्पन्न), झातकुंभ (शतकुंभ परत से प्राप्त), हाटक (खान से प्राप्त) बैणव (वेणु पव॑त से प्राप्त), श्द्ध-शुक्तिज (सीग या शुवित से प्राप्त), जातरूप (जातरूप पर्वत से उत्पन्न शुद्ध सोना), रसविद्ध विभिन्न रसो (पारद आदि) और उपरसो (माक्षिक आदि) से मिले हुओं और आकरोद्यत (खान से प्राप्त सोनो की चर्चा की है सभी की शुद्धता समान नही होती ! अनेक प्रकार की प्रक्रि- याओ से इन्हे गुद्ध किया जाता है सबसे उत्तम सोने को षोड़श वर्णक (सोल- हवानी) कहते है खाद की मात्रा इसमे प्रायः नही होती खाद की अधिकता कम होने के अनुसार एक वान, दो वान, तीन वान.....सोलह वान तक का सोना कौटिल्य के समय मे शुद्ध किया जाता था ईरान मे दस वान मे शुद्ध सोना बनाया जाता थ,, उसे 'दहदही' कहते थे इसीसे हिंदी का डहडही' शब्द बना है, वाद में पठान काल में बारहवान की शुद्धि होने लगी थी जायसी ने इसी को 'कनक दुवादस बारह वानी” कहा है जायसी पुरानी परपरा के सोलह बानी सोने की भी चर्चा करते है मध्यकाल के सोने के इन दो परिनिष्यित रूपो, के संबन्ध में डॉ० वासुदेव शरण जी अग्रवाल ने जर्नेल आफ न्यूमेस्मेटिक सोसायटी” (१६ वा जिल्द भ।ग २) में विस्तार पूर्वक लिखा है। लेकिन सोलह वान की परंपरा बहुत पुरानी है कम-सें-कम वह कौटिल्य काल की तो है ही परन्तु जब कालिदास जैसे कवि सुवर्ण के अनेक नामो का प्रयोग करते हैं, तो प्रायः सामान्‍य सोने के अर्थ में करते है परन्‍्त्‌ गहना बनाने के लिये चमक लाने और स्थिरता के लिये अनेक क्रियाओं का प्रयोग किया जाता था। चादी भी मिलाई जाती थी और तावा भी कौटिल्य ने सोना चुरानेवालो की अनेक धूर्तत्ताओं के प्रसंग में एक हमापसारण' विधि की भी चर्चा की है (२. १४-१४) उससे पता चलता है कि सोने मे कुछ तॉबा मिलाने से जो चमकदार सोना बनता था, उसे हेमन” कहा जाता था कालिदास जब हेमन्‌' शब्द का प्रयोग करते है, तो इस खा।द- वाले सोने की ही शायद चर्चा करते है उन्होने रघुवंश में कहा है कि आग से तपाने के वाद ही पता चलता है कि हे मे कितनी विशुद्धि हैं और कितनी इयामि- का (खाद) है कालिदास स्वर्ण! या जातरूप' की अपेक्षा हेम' के अलंकारो की अधिक चर्चा करते है 'काञ्चन' भी अनिदरिचित मात्रा मे खाद मिलाए हुए सोने को कहा जाता होगा; दीप्ति के कारण ही इसे काज्चन कहते थे इसकी व्युत्प्ति 'काचि दीप्तौ' धातु से बताई जाती हूँ अक्षगालाओ में सोने के तीज्त प्रकार के कर्मो का उल्लेख मिलता है- क्षेपण अर्थात्‌ मणियो या काच आदि के जडने का काम, गुण-कर्म अर्थात्‌ स्वर्ण की कडियो को जोडकर या पीट कर सूत्र बनाना, और क्षुद्रक अर्थात्‌ धन (ठोस)

थ८],

या छिद्र-युक्‍्त (सुष्रि) गुरियों का गढ़ना (कौटिल्य २-१४) गुण कर्म से ही सोने का गुण या सूत्र बनता है, जिसका कालिदास ने बहुश: वर्णन किया है गुण शब्द का अर्थ योजन या जोड़ना हैं। एक में एक कड़ियों की जोड़ कर जो लर बनती होगी, वही प्रारंभ में गुण कहलाती होगी बाद में सूत्र के अर्थ में सामान्य रूप से 'गुण' शब्द रूढ़ हो गया

भ१ रत्न और हेसके योगसे बने हुए चार श्रेणीके श्रलंकार

क्षोपण, गुण और क्षुद्रक विधियों के द्वारा हेम और रत्न के सैकड़ों श्रा- भूषण बनने लगे इन गहनों की चार मोटी जातियां हैं राजानक रुय्यक के अनुसार (१) आवेध्य, (२) निबन्धनीय, (३) भ्रक्षेप्प, और (४) आरोप्य ताटंक, कुंडल आदि अलंकार शरीर के अंगों को बेधकर या छेद कर पहने जाते हूँ, इसीलिये ये आवेष्य कहे जाते हैं! कालिदास ने कर्णभूषण, कर्णपूर, कुण्डल, मणिकुण्डल आदि आवेध्य अ्रलंकारोंका वर्णन किया है ! जब कानों में प्राकृतिक प्रसाधन का प्रसंग आता है तो कालिदास उसका उल्लेख प्रायः निबन्धीय के रूप में करते हैं शकुन्तला के चित्र में कुछ कमी महसूस करने के बाद दुष्यन्त ने ग्रागण्डविलम्बित केसरवाले शिरीष पुष्प को कर्णापितवंधन' बताया था, श्र्थात्‌ उसे कान में वांधा हुआ कहा था, छेद कर पहना हुआ नही ऋतुसंहार में जहाँ कानों में पहने हुए पृष्पों की चर्चा आई है, वहां 'दत्तम्‌' (दिया हुआ) कहा है कर्णेषु दत्त नव करणिकारम्‌ू ) जिससे अनुमान किया जा सकता हूँ कि ये सूते में गृंथ कर ऊपर से डाल लिये जाते थे | तपोनिरता पाती के कपोल-स्थल, को जिस पर कान पर लटकनेवाले उत्पल-पत्र चिरकाल से नहीं दिखाई दे रहे थे और धान की पकी बालों के समान पिंगल वर्ण की जठाएं झूल रही थीं, देखकर ब्रह्मचारी वेशधारी शिव को बड़ा कष्ट हुआ था | हाय, वह हृदयहीन प्रेमी कौन होगा जो मोहन रूप की इस दुर्गति को वर्दाश्त करके स्थिर बैठ हुआ है ---

अहो स्थिर: कोएपि त्वेप्दितों यवा चिराय कपॉत्पलगन्पतां सा अहा स्थरः: काञझद तदाप्दता युदा चिराय कथनांसलगन्पता गत

०. का, लक अप आप का... +-“ तल हि, आम आय 5 कप ०. कर कि. कान न्‍ उपल्षद्ध य- इरलयतलादनाजटा: द्यादद कलमापग्रापनदा: ॥॥। ( कुमार० धन्ड७ ) कराता विाद्मल मन परद्न्ताऊातंदाला अलंदार आऑंप्रै-सच करवनी अगद (वाहुमूल पहुाऊाददाला अलंकार ) घ्धिन्छूत्र र्‌ नी)

हे 2 [क] बच

बज +ज्रा> डअडक्‍ओयिज+।. अिल्‍िजओ उलपिज>ज दइचातं पे ्ः बच ७5७३, 3त७।545/, 4६ए5॥।-5१४१५:॥> ४॥॥५ व्एद। धछाधदः पहन जात ढ्ः

कद ५०-2० “पक लक 23 रन चल फििडनरजः इसाॉलिय निवन्घदचाय कहलात हू काठलद्यमस्

अगद का चउचा प्राय: दलय के साथ दी हैं ( प्रयान्ति अन्न 5 >> 5 श्र अप मकर साथयकाह [ यान्त चाजड़ू दलयजडूदाना ऋतु० ४-३) (जुजेप चंद बलयाजू-

घप्ड्ला पु ०० प्रकार दाद ऋतु 5) इससे जान पडता हू [के ऋगद दाहुरूस ने उसा प्रकार

हू रुजनुल का कृत्तक जकड लता था। यह

द्‌ लन्ड पाः्छ्धि था स्ट्ड्ड्तडलचान मी ७०-नकआ आजम क्य पारबंध था कालनदाथ का अनगद्ाबच्लष्टड्श्ज कहा

सिख मीट अकल जप ८2०20 0800%« हज »०-अ पु 4220-०० गया एकावलासा राजा का ह्वार कछ रु जा सरका ता कंस हुए ऋअगद के कचार ुमनननमन+.पममकक्‍०न्‍लकनक०, नया नदी फन्सस दस्त सन कटनसान च््ड्च्त् मणि से 5 खअखटक गया ( स्लाइाव्डाड्रुदकांटलब्दनम्‌, रधु ६-१४) इसमे माण जड़ा

नल अं ी+ 2० 23 कक ली. जल कम कर अल पड. अम्रकोप

हाता था। सायार-त्: केयर अर अचद एक हा गहन माद झात हू | अमरकाय

(0 छुसा जी मत. व्ं+ मल पर लक) +»-मना- अर शतक मकी2०- 2० जल आल निवन्धनीय

ने छुद्धा हा दंताया नया हू पर कालिदास कंदूर के स्पन्ठ रूप से नवन्धचनाय . हि. ।।त 5 5 5 6.

अलंकार माना हू (कथयूरदन्वाच्छदासतनूचाद रचु० इ-६८) | अऊअगद

|७... न... के विकप 5 2. # शब्द मे हा अप से अवंपाडद दा कंसकर पकंडद का ध्दाद

+- >> पीछे व्ट्रीज 5-5 -. उप लिंदांस द्तप द्राझ+-ः हाफ फ्र्यि चक्ज्द्र दाला आर पाछ का आर हझूलता हुई करवदा कांददास का बहुत हा द्रव ऋल-

दर जः न्ज्ल्च््-ा २० बिन कलल्‍लअडानज हु.) अआ >> इलद-कांदी। (६-७) दहेन-रसना (६-२४) आदि कहुकर वार-वार स्मरण ध्-जल अन्त | लय साणि ब्प्ची - +- ८4 ध्टॉलन द्चिफि डा किया बदा हू इसने साध ना ऊड़ा जाता था, जिसके कारण माझ-नंखला

< 3. अ्ी+ २5 अजञा5 से “5दर उभानल को ऑल (६-२४) झऔर क्ांचन-रत्त-चित्रा (४-४) नो कहा गया हैं उस काल के शिल्प डे दरक- + द्ड््ज णन: स्घोग ्दः रू इस अंदकार का नर: अबाप च्लिदा हा

श्ल्ल्ल्डि्न्िधानिदज चना अचल > रण च्डा च्थ। दननुबमणदनणत दीइडनाइनन कि विक्रदादिभोद मे चुइानाथ अथात्‌ चूड़ा रू वारण कए जाने दाल सथि-

2 तमिल से हर में पहने जानेदाले रत्सः

ये अलंकार की चर्चा हू नघदुत ने सिर में पहने जादेदाले रत्द-दाल (पृदेनेंघ >ूछ से 5 5८ 5 स्् पंख हैं जो मिवनन्‍्यनीय ६६) और मूृक्‍ता-जाल [( पूर्दद्ेंध ) का उल्लेख है जो निवन्‍न्चदीय अलंकार >- 7 की ०- दिलक ब्नज अजय छ्घरः ब््स्जः >> डे अन और इज ॥ै+ 5: >> हूं। रघुरबधश ने तिलक की नंजरी पर नारों के बेठने और झोस की बूंद के पड़ने 5 5 3 पनीकी 2 5 स्स्यो के केदा-पाक मे उसे सं ऊा चघाना उत्पन्न हाता हूँ उस सुन्दारया के कंझझपास ने बच हुए मोक्तिकेजाल कब शा ये बिक तसुलचाय दादा चंदा हु (नव पर क्गलिदास केइा-रच पुष्पू-

8 स्लम >>

व... पलल्‍लदा का ऋाध्रक नहुत्द दत हू। चाल अलका गादमान अश्चाक पृणष्प, (व्य्तु

कि रू जग

६० ]

वम्मिल्ल या जूड़े को घेरकर झोभित होनेवाली मालती-माला, चम्पक-कुसुम,

कदंब पृष्प आदि को वे अधिक रुचि से चित्रित करते है ! उमिका, कटक, मंजीर (नृपुर) आदि अलंकार तरंग में प्रल्िप्त होते है

इसलिये प्रक्षेप्य कहलाते हैँ इनमें मंजीर या नपुर कालिदास का प्रिय गहना है

कालिदास >> बन ग्राय: कक ननननपनम पन्ने नपरों 23! है आल हंस- अंतानंकारी ््ा अर्थात ०० कालिदास ने प्राय: पर मे रुन-झुव करनंबाल नृपूरा को हत्तन-ह्तानुकारी अयात्‌

वीक ध्वनि का अनकरण ऋरचनेवाला कल. लक... मसचघर ध्वनि 85०. बक्गरण हंस की व्वन्ति का अनुकरुण करनंवाला कहा है इसकी मधुर ध्वनि के कारण

इसे कलनपर रघ ग-नननन-कनफत कहा गया जे च्ञ्जजा इसे कलनूपुर (रघु० १६-१२), ऋतु० (३-२०) आदि कहा गया है हाथ या सैज जे सफ्त्ता (>्ले कालिदास तल इसने कम आक्रप्ट कर वक्त पर वलय या पंर्‌ के कठक (कड़े ) कालिदास का कम आक्लषप्ट कर सके हूं पर वल ढ. हल ०-३ र्त्राः का का पर्पों ०] कनक: चलय की 55 उन्होंने की डे (क्रकण ) उन्हें अधिक प्रिय है पृरपा के कनक-वलय का चचा उन्हान का हू की अंगलीयक दल बज के भी पी अनजान चर्चा ह-] से ्च्ट अड पहननेवाले किन नल बपने अंगूलीय, अंगुलीयक (अ्रगूठी) की भी वहुत चर्चा हैँ अंगूठी में पहननेवाले के ष् च् ष्ज ६5 तामाक्षर नी अंकित रहते थे दृप्बन्त की अंगूठी में उसका नाम खुदा हुआ था |

झूलती हुई हेम-माला, हेम-हार, रत्त-हार, वलत्र-मालिका आदि अलंकार आरोपित किए जाने के कारण आरोप्य कहलाते हँ हार कालिदाच का सर्व- प्रिय अलंकार हँ भारी हारों को वे बहुत पसन्द नहीं करते हलके, कान्तिमान्‌ और स्तिग्व हार उन्हें प्रिय हैं हेम और मुक्ता हार के सर्वोत्तम उपादान हैं स्त्री-सौंदय को सर्वाधिक आकर्षक वनानेवाले अंग का अलंकार होने के कारण यह कालिदास को इतना प्रिय हँ कि हार की चर्चा आते ही वे उमरे हुए वक्षज्थलों की चर्चा करते हँ | हास्यप्टि और श्रोगी-सूत्र नवन्यौवन के सर्वाधिक आकर्पक धर्म वयुविभिन्न॑ के अलंकारकारक, उद्दीपक और मोहक घनाने के कारण कालिदास को बहुत प्रिय हैं

/९

है |

3॥

श्र

झंश्ुक या वस्त्र

हि

अंधुक ' झब्द का प्रयोग वस्त्र के सामान्य अथ्थे में होता है कमी-कमी कालिदास आँचल के अर्थ में मी इसका प्रयोग करते हैं राजानक वुव्यक वस्चों

[68१

के चार भेद बताते है (१) कुछ छाल से बनते है (२) कुछ कपास की रई से, (३)कुछ कीड़ों से (४) कुछ जीव-जन्तु के रोझों या ऊन से इन्हें क्रमशः क्षौम, कार्पास, कौशेय, और रांकव कहते हैँ क्षौम' क्षुमा या तीसी के छाल से बनता था और चन्द्रमा के समान पाए डर वर्ण का होता था अन्य वृक्षों की छाल से भी सुंदर महीन वस्त्र बनते थे नागवृक्ष (नागफनी), वक्रुच (वड़हर), वकुल (मौलसिरी), और वट (वरगद) की बनी हुई क्रमशः पीले, गेंहुए, सफेद और नवनीत (मक्खन) के रंग की पत्रोर्णाश्रों की चर्चा कौठिल्य ने की हैं पत्रोर्णा (पत्ते का ऊन) निश्चय ही वहुमूल्य वस्त्र था। मालविका पटरानी होने योग्य थी, पर उससे दासी का काम लिया जाता था | राजाने दुःख के साथ कहा था, कि यह ऐसा ही है जैसे कोई पत्रोर्णा से देह पोंछने के गमछे का काम ले कौशेय रेशम बनानेवाले कीड़ों के कोष (कोए) से बनता है कालिदास को कौशेय वस्त्र भी श्रिय है हेमत्त-काल में रंगीन कौरोय वस्त्र स्त्रियों की साड़ी के कास आते थे (सरागकौशेयविभूषितों यः ) रांकव या ऊन के वस्त्र कालिदास की दृष्टि आक्ृष्ट कर सके है कार्पास या रुई के कपड़े तो प्रसिद्ध ही हैं। कौटिल्य के समय में बंग देश में वांगक दुकूल इवेत स्निग्ध होते थे, पौंण्डू (उत्तरी बंगाल) के इयाम और मणिपृष्ठ के समान चिकने होते थे, सौवर्ण-कुड्यक नाम के दुकूल लाल बनते थे। ये सभी ऊन के या रेशम के हुआ करते थे। काशिक या बनारसी रेशमी दुकूल भी बहुत प्रसिद्ध थे काशिक और पौण्डुक क्षौम वस्त्र भी बहुत सुदर माने जाते थे कालिदास चीन के बने रेशमी वस्त्र (चीनांशुक) की भी चर्चा करते है

इन सभी बस्त्रों से परिधेय वस्त्र तीन प्रकार के बनते हैँ, हेमालंकारों में कुछ अलंकार जैसे आवेध्य या अंग छेदकर पहनने योग्य होते हैं वैसे वस्त्रों में नहीं होते बाकी तीन प्रकार अर्थात्‌ निन्‍वधनीय , प्रक्षेप्प और आरोप्य जाति के पहनावे वस्त्रों के भी होते हैं

... पणड़ी साड़ी आदि निबन्धनीय है ये बाँधकर पहने जाते है कालिदास में पुरुषों के वेश में वेष्टन या उष्णीष (पगड़ी) और दुकूल-युग्म (दो दुकूलों) का उल्लेख मिलता है दिलीप जब वन को जा रहे थे तो उन्होंने सिर पर वेप्टन या पगड़ी बाँध ली थी। और उनके पुत्र रघु जब अपने पुत्र को राज्य देकर जाने लगे तो वेष्टन-शोभी सिर से पुत्र (अज ) ने झुक कर प्रणाम किया था। दो दुकूल पुरुष्के पहनावेमें होते थे इनमेंसे एक तो उत्तरीय या चादर था जो कभी-कभी रत्न-ग्रथित भी होता था (रघु० १६४४३) दूसरा अधोवस्त्र या धौत-वस्त्र

(धोती) परन्तु कालिदासने स्पप्ट रूपसे इसका कोई नाम नहीं लिया है उस

सच

कालके चित्रोंमें राजाके अंग पर केवल ये ही दो वस्त्र दिखाई देते है। स्त्रियोंके पह-

६२]

नावेमें दुकूलकी बहुत भाँतियाँ कालिदासने बताई है कालिदासको झीने-महीन दुकूल अधिक रुचिकर लगते है उभरे पीन वक्ष:स्थल; सलीक के साथ, सुकुमार भाव से ओढ़े हुए तन्वंशुक अर्थात्‌ महीन वस्त्र का आँचल (ऋतु १७) ; श्रोणी विब पर अलस-विलसित दुकूलप्रान्त; उनकी दुष्टि अधिक आकषित कर सके है ये सित या रवेत भी हो सकते है, कुंकुम के समान पीली गोराई लिये भी हो सकते हैं (तन्वंशुके: कुंकुमरागगौरै: ६-५), कुसूभी रंग के भी हो सकते है, लाख के रंग के रंगे हुए लाल-लाल और चित्र-विचित्र भी हो सकते है पर कालिदास उनका बहुत भारी भरकम होना पसन्द नही करते जाड़े के दिनो मे गुरूणि- वासांसि' आवश्यक थे, पर कालिदास प्रायः उनकी चर्चा तभी करते है जब वे शरीर पर से उतार कर फेक दिए जाते (ऋतु० ६।७) हेमन्त-वर्णन के प्रसंग में एक बार उन्होने खिड़की दरवाजा बन्द करके मोटे-मोटे कपड़े पहनने वालों की चर्चा कर अवश्य दी है पर ये पुरुष है उन्तके शरीर पर मोटा कपड़ा कालिदास बर्दाश्त कर सकते है सुकुमार शरीर पर तो वे कालिदास के बर्दाश्त के बाहर है यहाँ भी उन्होने स्त्रियों को मोटे लबादें में नही देखा अ्धोगुक या परिधान, साडी का पूर्व रूप हैं यह निबग्धनीय वस्त्र नीचे की ओर पहना जाता था उत्तरीय या ऊपर के दुकूल की अपेक्षा यह्‌ कदाचित्‌ छोटा होता था इसलिये इसे उपसंव्यान (अमर ६-११७) और उत्तरीय दुकूल को संव्याव कहते थे संव्यान' अर्थात्‌ आवरण और उपसंब्यान श्रर्थात्‌ छोटा आवरण | उत्तरीय दुकूल को वृहतिका' (बड़ा आवरण ) (अमर० ६-११७) कहना भी इसी तश्य की ओर इंगित करता है। इस अधोवस्त्र या परिधान को सूत्र से बाँधते थे शिवजी जब वर-वेश मे नगर मे पहुँचे तो स्त्रियो में देखने की उत्सुकता बढ़ गई थी उतावली में एक के परिधान का सूत्र टूट गया, पर वह नीवी वॉधे बिना ही दौड़ पड़ी (प्रस्थानभिन्ना बबन्ध नीवीमू ) ठीक यही बात इसी प्रकार के प्रसंग में रघुबंश मे भी आई हैं (रघु० ७।६) नीबीबंध की चर्चा कालिदास आदि कवियोने कई स्थलो पर की हैं। इससे स्पट कि अधोगुक या परिधान बाँध कर पहना जाता था एक और वस्त्र बॉध कर पहना जाता था कालिदास ने इसे कूर्पासक (चोली) कहा है (ऋतु० ४॥१३) हारावली कोष मे कूर्पासक को अ्रद्धचोली कहा है; पर अमर कोष में यह चोल का ही पर्याप्य वन गया है वधू के लिये अवगुंठन या घूँघट का होना आवश्यक हैं ऐसे समय में एक भ्रकार का भ्रवरण (वड़ी चादर) का व्यवहार होता था जिससे सारा शरीर ढक जाय शकुन्तला में इसी प्रकार की ढकी वधू शकुल्तला का वर्णन है ५।॥१३) राजानक रुग्यक चोली को प्रक्षेप्प कहते है

डा

[६३

उत्तरीय दुकूले आरोप्य वंस्त्र है। ऊपर इसकी चर्चा हो चुकी है

श्र

साल्य

जिस प्रकार हेमरत्नालंकारों के चार भेद हैं, उसी प्रकार मालयों के भी चार ही भेद है पर माल्य ग्रथित और अग्रथित भेद से दो प्रकार के होते हैं; इसलिए ये वस्तुत: आठ प्रकार के हो जाते हैं राजानक रुय्यक ने पुप्पप्रसाधन के विविध रूपों के नाम इस प्रकार गिनाए हुँ-(१) वेप्टित जो झंग विशेष को घेर ले (२) वितत, जो एक पाश्व में ही विस्तारित हो; (३) संघाठय, जो अनेक पुष्पों के समूह से खचित हो, (४) ग्रथिमत्‌, जो बीच-बीच में विषम गाँठ- वाला हो, (५) अवलम्बित, जो विशेष भाव से स्पष्ट रूप में उम्भित श्रर्थात्‌ एक साथ जुड़ा होकर भूल रहे हो, (६) मुक्तक, जो केवल एक पुष्प से बना हो; (७) मंजरी भअ्रर्थात्‌ अनेक छोटे पुप्पों की लता (८) स्तबक (पुष्प गुच्छ) कालि- दास पृप्पमाल्य के आभरणों का जम के वर्णन करते हैं पावती पर्याप्त पुष्प- स्तबक के भार से झुकी हुई संचारिणी लता के समान शिव के पास गई थीं कवि ने वसन्त-पुप्पों के आभरण-जिसमें पद्मराग को निर्मंद करनेवाला लाल-लाल अशोक-पुप्प, हेम की युति को आहरण करनेवाला पीला-पीला कर्णगिकार और मोतियों की शोभा को उत्पन्न करनेवाला सिन्दुवार पुप्प भी था-की पृष्ठ- भूमि के लिये उदन्त सूर्य की आभावाले लाल-लाल गअंशुक का सन्निवेश किया द> ४! अशोकनिरभ त्सितपद्मरागमाकृप्टहेमद्युतिकणिका रम्‌। मुक्ताकलापीकृतसिन्दुवार वसच्त-पुप्पपाभरर्ण बहन्तीमू ॥। आवर्जिता किड्चिदिव स्तनाभ्यां वासो वसाना तरुणाकेरागम्‌ पर्याप्तपुप्पस्तवकाचन्ञ्रा संचारिणी पललविनभी लतेव

(कुमार० ३-५३,५४)

€४ ]

उन्होंने सुन्दरियों के सिर पर पहनी जानेवाली कद्म्ब, नवकेसर और केतकी की (ऋतु० २॥६), तथा मालती प्ृष्प सहित मौलसिरी या खिले हुए अन्य नदीत्त पुष्पों के साथ जूही की कलियों की माला का मनोहर अलंकरण पसन्द किया था (ऋतु० २२५) और केवल बे ला के प्रफुल्लित पुष्षों के गजरे को देखकर आह्वाद अनुभव किया था (ऋतु० ६६) यद्यपि मृणाल सूत्रों की माला कालिदास को बहुत प्रिय है; शकुन्तला का चित्र राजा दुष्यन्त को तबत॒क अपूर्ण लगा था जब तक उन्होंने उसके कानों में गरण्डस्थल तक झूलने योग्य केसरवाले शिरीष को नहीं पहनाया और वक्षःस्थल के ऊपर झूलनेवाले मृणाल सूत्रों का हार नहीं रच दिया-- कृर्त कर्णापितमण्डनं॑ सरख्खें शिरीषसागण्डविलम्बिकेसरम्‌ वा शरच्चद्धमरीचिकोमलं मृणालसूत्र रचित स्तनात्तरे ॥। तथापि राजनक रुग्यक इस मृणालसूत्र की गणना माल्य में नहीं करते माला में फूल अवश्य चाहिए !

श्४ड

सण्डस-द्वन्य

कस्तूरी, कुंकुम, चन्दन, कर्पूर, अगुरु, कुलक, दन्तसम, सहकार, तैल, ताम्बूल, अलक्तक, अंजन, गोरोचना, कुशीर, हरिताल, श्रभूति उपकरण मंडन हैं। ये कालिदास को प्रिय हैं। इनमें कुछ की प्रकृति शीत है, कुछ की उष्ण, कुछ की सम | कुछ गर्मियों में काम आते हैं, कुछ सर्दियों में और कुछ सब ऋतुओं में

स्नान करने के बाद ही मंडन द्वव्यों का उपयोग होता है स्नान के पूर्वे श्रम्यज्ध अर्थात्‌ औषधि मिला तैल या आँवलों का कल्क आदि से शरीर में मालिश की जाती थी कालिदास ने अभ्यद्भ क्रिया का उल्लेख शाबुच्तल में किया है पावंती के विवाह में पहले लोध् कल्क से उत्सादन या उह्ठ्तन (उबटन) किया गया था पुराने ग्रन्थों में तैलाम्यंग और उत्सादन के लिये अनेक स्वास्थ्यकर

[६५ औषधों की चर्चा आती है चरक, सुश्रुत, बृहत्संहिता आदि ग्रंथों में स्वास्थ्य और सौंदर्य बढ़ानेवाली औषधियों का भूरिश:ः उल्लेख हैँ, कितु कालिदास ने केवल इंगितमात्र कर दिया हैं स्नान के जल को प्रस्तुत करने की विधियाँ भी शास्त्र में दी हुई हूँ कालिदास को उसकी जानकारी अवश्य थी, पर बहुत विस्तार से उन्होंने उसका कोई उल्लेख नहीं किया है नदी या सरोवर में स्तान उन्हें अधिक प्रिय जान पड़ता है कृताभिषेक' पार्वती की कठिन तपस्या का हृदयाग्राही चित्रण करते समय ब्रह्मचारी वेश में शिव आकर जो आवश्यक वातों की जान- कारी प्राप्त करना चाहते है उनमें एक यह भी है कि तुम्हारे स्तान के लिये पर्याप्त जल मिल जाता हूँ कि नहीं-जलास्यपि- स्नान-विधिक्षमाणि ते विवाह के अवसर पर सोने के घड़े से मंगल-स्तान की चर्चा है। परन्तु ऋतुसंहार में विला- सियों के स्तान-कपाय-शिरोरुहों की चर्चा से अनुमान किया जा सकता हूँ कि स्तान के जल में किसी प्रकार सुगंधित कपाय का प्रयोग होता था एक और स्थान पर पाटलामोद-रम्य-सुख-सलिल-निपेक कहकर उन्होंने सुगंधित जल से स्तान का उल्लेख किया है जान पड़ता हैँ कि माघ की भाँति स्वच्छाम्भ:स्वपन- विधौतमड्भयप्टि:' होना, और श्रीहर्पदेव की भाँति प्रत्यग्रमझ>जनविश्येप-विविवत- कान्ति-भाव ही कालिदास को भी रुचिकर था स्नान के उपरान्त अंगराग

(अरगजा) जिसमें कस्तूरी, चन्दन, आदि सुगन्धियों का समावेश है कालिदास को अधिक आकर्षक जान पड़ते हैं। मतलब से मतलब है ! कालिदास ग्रीप्मऋतु में चन्दन, की खूब चर्चा करते है घिसे हुए चन्दन पंक' की शीतलता भारत- बपं में दीघंकाल से समादुत है, उसे पयोधर-देश पर चचित करने की चर्चा भी बरा- वर मिलती हैं कालिदास इसका कई प्रकार से उल्लेख करते है 'पयोधराश्च- दनपंकचर्चिता:,' में ग्रीष्म ऋतुका विलास है चन्दन के पानी से भिगोए हुए ताल -व्यजन के वायु में भी ग्रीप्म-ताप निवारण की विधि हैँ कितू विरह की उष्णता के शामक रूप में मी उन्होंने इसका स्मरण किया है वर्षाऋतु में कालागुरु अधिक मात्रा में मिला कर चन्दन के साथ लेप करने की वात्त कही गई है जैसे-जैसे सर्दी बढ़ती जाती है और गर्मी कम होती जाती हैं बैसे-बसे कालागुरु और कस्तूरी का प्रयोग भी वढ़ता जाता है हेमन्त में शरीर कालेयक से अधिक चचित किया जाता था (ऋतु ४५ ) कालागुरु घृूप-घूम का मान बढ़ जाता था | कालीयक के अनुलेपन की धूम मच जाती थी इस ऋतुमें पयोधर कुंकुम-राग-पिंजर होने लगते हैँ, अगुरु-सुरभि-धूम से केश-पाश आ्रामोदित करने की प्रक्रिया वढ़ जाती है और फिर जब वसन्तकाल में सर्दी और गर्मी का घप- छाँही मौसम जाता है तो प्रियंगु-कालीयक-कुंकुम के पन्न-लेखों के साथ मय- नाभि या कस्तूरी मिले हुये चन्दन और फिर केवल सित चन्दन से आउे हार वक्ष-

४६] हे

देश को मंडित करने लगते है'। इस प्रकार स्नानोपरान्त विविध सौगन्धिक मंडनों का विधान कालिदास ने किया है अंगराग और अनुलेपन का शब्दशः उल्लेख कई बार आया हैं भारतवर्ष का सहृदय जाने कब से गंध-माल्य का महत्त्व स्वीकार करता आया है चरक ने कहा है (सुत्र अ० ५-६६) कि गन्ध- माल्य का सेवन बल-व़्क हैँ, आयु बढ़ाने वाला है, पुष्टि-बल-प्रद है, चित्त- प्रसन्न रखनेवाला हैं, दारिद्र्य को नप्ट करने वाला है और काम्य वो है ही-

वृष्यं सोभाग्यमायुष्यं काम्यं पुष्टिबलप्रदमू

सौमनस्यमलक्षमीष्न॑ गन्धमाल्यनिषेवणम्‌ू ॥।

गृहस्थ को और चाहिए क्या !

श्र

योजनामय अलंकार

अूघटना, केशरचना, जूड़ा बाँधता, सीमन्त-रचना इत्यादि योजनामय अलंकार हैं। कालिदास के युग में पुरुषों के भी लम्बे-लम्बे केश रखे जाते थे दिलीप जब बन गए थे तो उनके केश लताओं की छोटी-छोटी टहनियों से गूँथ गए थे लोग-विशेपकर बच्चों के-बड़े-बड़े केशों का ऐसा संस्कार करते थे, जो कौए की पाँख की तरह मुड़े दिखते थे उसे काक-पक्ष कहते थे '्पुरुषों में ब्मश्रु (दाढ़ी ) रखते की प्रथा केवल तपस्थियों में थी, जो विना संस्कार के कभी-कभी झाड़ू को तरह बड़ी और अस्त-व्यस्त हो जाती थी परन्तु कालिदास ने अधिक रुचि के साथ सीमन्तिनियों के केशों की चर्चा की है ये लम्बे केश घृप-धूम से सुगन्धित किये जाते थे उज्जयिनी की सुन्दरियों के केशों को सुगंधित करने में इतना धघुआँ होता था कि विरही यक्ष ने मेघ को इस घुएँ से मोटे हो जाने का प्रलोभन दिया था। कपड़े भी सुगंधि के लिये कालागुरु के धुएँ से घूषित किए जाते थे केशों का घन विकुड्न्चित होना सौभाग्य का लक्षण माना जाता था | प्राचीन ग्रन्थों में केशों को कुडिन्चत करने की विधियाँ भी बताई गई हैं कालिदास नितान्त

[६७

चुँघराली लटों में मालती माला की शोभा से नितान्‍त उललसित होते हैं। शिक्षिर और हे मन्त में स्त्रियाँ कालागुरु के धूम से विशेष रूप से केशों को धूपित करती थीं ऋतु० ४४५) शीतकाल में फूल की माला केश-पाश से हट जाती थी, और उन्हे सुगन्वित और कुड्च्चित करने की प्रक्रिया चल पड़ती थी (ऋतु० ५॥१२) सुग- न्वित केशों को सलीके से दो हिस्सों में विभकत करके सीमन्त-रचना की जाती थी | कालिदास तो सुन्दरियों को सीमन्तिनी' कहना अधिक पसन्द करते है सीमन्त में कुसुम-स्वच्छ सिन्द्र धारण करना तो सौभाग्य का लक्षण ही था। कितु सीमन्त पर कदम्ब-पुप्प को घारण करना सुरुचि का चिक्तु समझा जाता था सजाने के लिए अन्य पुष्प और आभरण भी काम में लाए जाते थे

सुसंस्कृत केशों को अनेक प्रकार से बाँध कर धम्मिल्ल या जूड़ा बाँधा जाता था कालिदास ने इसकी बहुत अधिक चर्चा नहीं की है। उन्हें लहराते हुए केश या गुंथी हुईं चोटी अधिक आकर्षक लगे हैं। अलक-राजि को गुंथ कर पीठ पर लहराना प्रसिद्धी कहलाता है। पार्वती 'मंगल-स्वान-विशुद्धगात्री' हुई तो स्त्रियों ने पहले-पहल घूप-धूम से उन्तके केशों को सुखाया; फिर लहराते हुए केशों की फुंगनी में पृप्पों का ग्रथन किया; फिर पीले-पीले महुए की माला उसमें बाँध दी इस प्रकार प्रसिद्ध अलकों की शोभा तो भौंरा-उलके पत्र-पृष्प में मिलती हैँ, समेघलेखा चन्द्र-कला में (कु० ७।१६) विरहावस्था में संस्कारों की उपेक्षा से केश एकवेणी हो जाते थे यक्ष-प्रिया के इन उपेक्षित केशों को कालि- दास ने बड़ी ही करुण भाण में चित्रित किया है

अूघटना” की प्रथा केवल नगर की विलासितियों में प्रचलित थी जानपद वधुएँ अूबविलासानभिन्न' हुआ करती थी 4 कालिदास सुश्रुओं से बहुत अ्रधिक परिचित जान पड़ते हू अ्रूमंगका उन्होंने जम के वर्णन किया है, सुन्दर बने हुए श्रुवों के क्षेप में ही अपांग-वीक्षण की कुटिलता झाती है (श्रूक्षेपजिल्ञानि वीक्षितानि ६-१३) मेघदूत में कहा है कि गंगाजी पार्वती की अ्रकुटि-रचना की, फेन रूपी हास से, उपेक्षा करती थीं

६८]

शव प्रकीएें-अलंकार

प्रकीर्ण अलंकार दो प्रकार के होते हैं (१) जन्य, (२) निवेश्य श्रम-जल, मदिरा-मद आदि जन्य है ।. दोनों का कालिदास ने जमकर प्रयोग किया है ग्रीप्मकाल में भी प्रियामुखोच्छूवासविकम्पितं मधु” को नहीं मूलते वर्षा में भी ससीवु' वदनों का स्मरण करते हैं सदियों में भी उसके आनन्द से अभिभूत होते हैँ, और वसन्‍्त का तो कहना ही क्या ? इसमें मदिरालस नेत्र (ऋ० ६-१२), मदिरालस वावय (ऋ० ६-१३) मधूसुरभि मुर्ख (ऋ० ३६), निशिसीबुपानं (ऋतु० ६-३५). इनके सथे हुए प्रयोग हूँ जिन चरित्रों को उन्होंने आदर रूप में चित्रित किया है, वहाँ इसे घुसने की आज्ञा नहीं है वहाँ यौवन ही मद का साधन होता है, मदिरा नहीं---“त्रनासवारुयं करणं मदस्यथ और कम-से-कम एक जगह उन्हें स्पष्ट रूप से पष्यस्नियों और उद्ध।मयौवन नागरों का सेव्य कहकर इसके प्रति अनास्था भी प्रकट की हूँ

निवेश्य अ्रलंकार तो दूर्वा, अशोक, पल्‍लव, यवांकुर, तमाल-दल, मृणाल- बलय, करक्रीडनक आदि हैं कालिदास के ग्रन्थों में इनका बहुत हृदय-ग्राही वर्णन हैं सच पूछा जाय तो कालिदास को ये प्राकृतिक सुकुमार प्रसाधन जितने रुचिकर हैँ उतने हेमालंकार, रत्नाभरण भी नहीं ।अ्रलका में कल्पवृक्ष जिन समस्त अवलावमंडनों को अकेले ही उत्पन्न करताः रहता हैं उनमें निम्नलिखित वस्तुएं है-- अनेक रंगों के वस्त्र (चित्र वस्त्र ),मव्‌ या मदिरा, पुप्प, किसलय, अनेक प्रकार के आभूषण, लाक्षारस या महावर | अलका की विलासिनिर्याँ हाथ में नीला कमल. केश में नये कुन्द के फूल, चूड़ा-पाश में ताजे कुरबक के पुष्प, कपोल देश पर लोध फूलों का पराग (पाउडर के स्थान पर), कानों में शिरीप-पुप्प श्रीर सीमन्त में कदम्ब पुप्पों को घारण करती थीं सब प्रकार से सुन्दरियों का प्रेम जब अपनी चरम-सींमा पर होता था, उस अभिसार-रात्रि में भी अलकों में मन्दार पुष्पों को पहनना नही भूलती थीं, कान में कनक-कमलों का पत्रच्छेद्य अवश्य घारण करती थीं विदिशा की फूल चुनने वाली पुप्प-लावियाँ भी कान में कमल का कर्णफूल

6६

ब्ाजदा5 न्‍ी- दह+ रे द्गनों + जे जडि्प्राज्ितड >प्द घारण स्ज्ज्फे अम्यत्ता बारण करता था | जदादा काया छुवलय-दल धारण करत की ही अभ्यस्त का पर पत्रप्रेम कक पक 5 2 नल मीट कक डन्प>ल पच्छ कर जज कक करती ख्ट शकन्तला ड् हूं, पर पुत्श्म से कानकना मयूर-पुच्छ भा वारण करता हूं शकुन्तला के

हा कक, विक- ७... # ६. मणालवलय झूलता रहता था। पादता के जूड़ जो मब॒क की माला पहनाइ श् 5 डी दल -र >>-5 «० 5 दर्वालतायाण्ड प-- मधकदामा लय सडा ड्स्त्े क्पोल भ्फ्स्ट गई था उदस्म दूंदा नाथा (दृदालतायाष्युमदृकदासा कु० ७.१४) / उसके कपाल गा लोधघकायाय या स्ट्डल 5 पराग य्च अलयथ धन बारे जिस छघ्र काने न्द जा पद्दना ह्आ लाब्रकापाय या लाबछ पराग से रूल दन हुए थ, जिस पर काना मे पहना हुआ शोमि 2 मन ही. 5 जाम स्वयं 2८55८ अि चि रक ह> नील यदश्राह (यवाडकुर ) झाशम्तद हां रहा था | सवय रात ददा के काना भी नील ०-2 ०. चोर पा ड्ल्त् दे ख्््ड्चिच ऑजल अप अजय दंधाकॉलं कप > कमल के नहन भासा दंत कंकुस द्रव का मजारया दपाकालद कयावदस जनक ८. अटल या फिर छूदम्द का पयप ज््तीक्ज्ज >> लिये उपयगेक्‍त माना का काम करता था। दा।फ्र कदम्वब का पुष्प कपल लिय उपयुक्त माना मी 22० -अक मु "पाता च्् >> ज्-कञ्ा-+ आमपरसा थक भंनोहरतसा व्ट्ो--+5- + जाताया। कप्-पाग्च पुष्या ऋवतस ओआनूपषरा चाहरता का चार-चाद लगाया तर ल्‍््जजजः चने नितानत घननील विकुचिताग्र जज डद्रनच्िसन तय ध्टआ मालती १7० करतथ | दध्रत्‌ काल सर ।दतान्त्र घचनचाल वछकुचतताशत्र कशा चदन्यालता का अं >> ढ+ इज जज अजय लोत्यल। वसन्‍्तकाल डे रे कसम गंदा बारुएद का दादा था आर काना नालातटल वदसन्तकाल ने मनाहर कुंचु

दल्षज्थल मे हार का जनह्‌ विराजमान होतें थे। कानों में नवीन कंणिकार का पुष्प

2 “की मय 33+०.०% ब्रेमोद्दीपक 3 33, कक ०४. एृष्प हा उन्हे प्रमाद्पक नहा ०० किसलय अप सिद्ध ता उसके किसलय भी मादक सिद्ध होते थे -+-

कसममंद ्ट था केवलमातंद॑ ध्ट अभाउजतनो:->उ स्मरदीपनम माप कुसुममद कंदलमातद नवमभाकतरा: स्मसदापनम्‌

किसलयग्रसदोषधि >> विलासिनां “रे क्‍नन्‍प्ॉफ्ितलः पका पितन किचलयजअसदाअप वलासना भदायता दायताशअ्रवगापतन

(रघु० ६-२८)

फिर फाता- काली दो हो ऊ. का क्को मात करनेवाली महीन कि की... 02०० | साथ खार अमात-कालान घूध के रंग का मात करनवाला महान साड़ा के सा जज प्षण. का आसन ग्रह्मण करता था. झ्ज्-+ फिर श््््ल्ल्ि्ल यदाड्कुर कादा मे आाजलुपण का आसन अहन करता था. आर फिर कजरार

आरुगराननियेधिधिर 5 डै संदाहकओ अटहजराजातफादाभरभक: शवणलब्चपदरच यदाहइ्क्रर च्ड चर जज जल

परभता £>-> 5 विलासिन ज्च्ड्ल्ड्ेंि>लले5-72०---+- कूता पृ ष्चूय ॥5एएदच वलाचनः स्मरव॒लरबलकरसा: छता ॥।

सही दर कॉलिदास नल सम कस आओ नसचडल दी >> ज्+ कप शा दे सहारा दा, कालदादस के मत स, यह हू कि दहकत हुए अपर के समाव दाउन्ती जप अज-न्‍--िडडनचि चलना अपन प्रत्तेनिधि £त >+ मसझना ब्-+पा7०>- अगर गवतियाँ डे दासन्ता पुस्ला का कनकाभरण का श्राद्ानाव हा रुमननना ज्ञाहुए ! ऋभर युवातया बन स्शोलथिा दया दधनफणन ध्याः तन क्प्म ब्ल्ज उपयोग करती जे कसक्ाय रण का छाड़ कर इन दंग असावन रूप उपयाग करता ह्‌ च्य

माना भ्ह विक्रमोवचीय च्ड डक करनेबाली न्जणनू०> पक, केच्ों का पवित्र सादाह विक्रमाव्ाय (३-१२) डरते कु्ददादा राया कशा मन पांवदर 3 «मन दो नकामाबाक अर, च्चाः सफेद स्य्क 2 व््पोल अआनर ,वकन्कन५ण्क»»्न>... >>“. >> इवाहइझुर नातनत हा रहा था हूफद काड़प कार मयलमादतर सूपण की पृप्ठ- पक! >> 0-8 शर्ट 45 सहनीयदा 258 डे 5 आल

हु | दुवाऊुर का महनायटा कालदइतनद हा वा सकत $ ---

१०० ]

सिर्तांशुका मंगलमात्रभूषणा पवित्रदर्वाडकुरलक्षितालका

कहाँ तक कहा जाय, कालिदास प्राकृतिक प्रसाधनों के बहुत बड़े धनी हूँ शकुन्तला भप्रिय-मंडना थी, परन्तु आश्रमवक्षों के प्रति स्नेहाधिक्य के कारण उनके पल्‍लवों को तोड़ने में संकोच अनुभव करती थीं मंडन द्रव्यों से अनेक प्रकार के पत्रलेंख बनाने की वात कालिदास में मिलती है कोश में कई प्रकार के पन्रलेखों की चर्चा हँ - पत्रलेख, पतन्नांगुली, त्मालपन्न, तिलेक, चित्रक, वैशिपिका अन्यत्र मकरिका और नवमंजरी आदि की चर्चा मिलती हैं जान पड़ता है शुरू- शुरू में पत्रों को काटकर अनेक प्रकार की चित्र-विचित्र आकृति बनती थी, जिससे बाद में उन्हें मंडन द्रव्यों में गिना जाने लगा कुरबक के पीले-पीले पुष्पों पर काली भ्रमर-राजि को देखकर कालिदास को पत्र-विशेषकों का स्मरण हो आता है जब पावेती जी के गोरे शरीर पर शुक्ल अगुरु का विलेपन करके गोरोचना से पत्रलेख लिखा गया, तो शोभा,गंगा के सैकत-यू लिन पर चत्रवाकों के बैटने से बनी कान्ति को भी मात दे गई

वेश

इन रूप और अलंकारों के समवाय का नाम वेश हूँ स्त्रियों के समूच बेश की सफलता इस बात में है कि प्रिय उसे दे खे और देख कर प्रसन्न हो जाय इसीलिये कालिदास ने कहा- स्त्रीणां प्रियालोकफलो हि वेश:

कालिदासने इन सुगंधित द्वव्यों के उदुगम और आयात का स्थान भी कभी-कभी इश्चारे से बता दिया है कस्तूरी या मृगनाभि हिमालय से, कुंकुम-केसर वाह्नलीक (वलख) से, कालागुरु प्राग्ज्योतिष (आसाम) से, लोप हिमालय से, चन्दन मलयगिरि से, ताम्बूल-दल कलिय से, सालद्रम और देवदारद्रुम हिमालय से, एला कावेरीतट से, पुन्नाग केरल से प्राप्त होता था

कालिदास नें ताम्बूल, विलेपल और माला धारण करने की वात लिखी

[१०१

अवश्य हैँ; पर ताम्वूल पर उनका अधिक ध्यान नहीं है लाक्षारस या अलक्तक को वे अधिक उत्तम अलंकरण के रूप में चित्रित करते हैं। सच पूछिए तो कालि- दास ने लाक्षारस को प्रमुख प्रसाधन द्रव्य के रूप में इतनी प्रकार से और इतनी वार चित्रित किया हूँ कि संदेह होता है कि कहीं अधर की रंगाई के लिये भी इसीका उपयोग तो नहीं बताते वस्त्रों को तो वे लाक्षा-रस-रंजित कह ही चुके हैं (ऋतु० ६) वात्स्यायन में अधरों को रंगने के लिये अलक्तक और मोम (सिक्‍्य) का जो प्रयोग है, वह शायद उन्हें भी रचता था अस्तु गन्ध-युक्ति की विद्या इस देश में वहुत पुरानी हैं कालिदास के पूर्व से ही इसका प्रयोग चला आता है उत्सादन, अनुलेपन, अंगराग, केश और वस्त्रों का सुगन्धीकरण और ताम्बूल में अनेक प्रकार की सुगन्बित वस्तुओं के योग से नि:श्वास को सुगंधित बनाना कलाओं में गिना जाता था 'ललित-विस्तर' में जिन कलाओं की चर्चा हैँ उनमें भी इनकी गणना है भगवान्‌ बुद्ध के युग में यह बात इतनी प्रचलित थी कि भिक्ष्‌ और भिक्षुणियों तक में इनका बहुत प्रवेश था

प्र्द

स्‍त्री ही संसारका श्रेष्ठ रत्न है

भूषणोंका विधान नाना भाव से झास्त्रोंमें दिया हुआ है अभिलापितार्थ चिन्ताणि में 'माल्यभोग और भूषाभोग नामक अध्यायोंमें (प्र० अ० ७-८) भाँतिके माल्यों और भूषणोंका विधान किया गया है, परन्तु वराहमिहिर ते स्पष्ट रूपसे बताया है कि वस्तुतः स्त्रियाँ ही भूषणोंकों भूषित करती हैं भूषण उन्हें भूषित नहीं कर सकते : रत्तनानि विभूषयन्ति योपा भूप्यन्ते वनिता रत्नकान्त्या। चेतो वनिता हसर6चतत्यरत्ता नो रत्नानि विनांगनांगसंगात्‌ (वृ० सं० ७४२) वराहमिहिरने दृढ़ताक साथ कहा है कि "ब्रह्माने स्त्रीके सिवा ऐसा

१०२]

दूसरा बहुमुल्य रत्न संसारमें नहीं बनाया है जो श्रृत, दुप्टे, स्पष्ट और स्मृत होते ही आह लाद उत्पन्न कर सके स्त्रीके कारण ही घरमें अर्थ है, धर्म है, पुत्र- सुख है इसलिये उन लोगोंको सदैव स्त्रीका सम्मान करना चाहिए जिनके लिये मान ही धन हैं। जो लोग वैराग्यका भान करके स्त्रीकी निन्‍दा किया करते हैं, इन गहलध्मियोंके गुणोंको भूल जाया करते है, मेरे मनका वितक यह है कि वे लोग दुर्जन हैं और उनकी बातें मुझे सम्ड्भाव-प्रसृत नही जान पड़ती सच बताइए, स्त्रियोंमें ऐसे कौन दोप है जो पुरुषोमें वही हैं ? पुरुषोंकी यह ढिठई है कि उन्होंने उनकी निन्‍दा की है मनुने भी कहा है कि वे पुरुषोंकी अपेक्षा अधिक गुणवती हैँ ..्त्रीक़े रूपमें हो या माताके रूपमें, स्त्रियाँ ही पुरुषोंके सुखका कारण है वे लोग क्ृत5न है जो उनकी निन्‍दा करते हैं दाम्पत्यगत ब्रतके अतिक्रमण करनेमें पुरुषोंको भी दोष होता है और स्त्रीको भी, परन्तु स्त्रियाँ उस ब्रतका जिस संयम और निष्ठाके साथ पालन करती हैं, पुरुष वैसा नहीं करते ! आइचये हैं इन असाधू पृरुषोंका झ्राचरण, जो सत्यक्रता स्त्रियोंकी निन्‍दा करते हुए उलटे चोर कोतवालें डांट! की लोकोक्तिको चरितार्थ करते हूँ अहो धाष्टर्यमसाधूनां निनद्तामनघाः स्त्रियः मूंचतामिव चौराणां तिष्ठ चौरेति जल्पताम्‌ ॥। ([ ब० सं० ७४।१५) वारहमिहिरकी इस महत्त्वपूर्ण घोषणासे प्राचीन भारतक सद्गृहस्थोंका मनोभाव प्रकट होता है इस देशमें स्त्रियोंका सम्मान बराबर बहुत उत्तम कोटिका रहा है, क्‍योंकि जैसा कि शक्ति-संगम तमन्‍्त्र के ताराखण्ड में शिवजीने कहा है कि नारी ही त्रैलोक्यकी माता है, वही त्रैलोकका प्रत्यक्ष विग्रह है नारी ही त्रिभुवनका आधार है और वही शक्तिकी देह है : नारी त्रैलोक्यजननी नारी त्रैलोक्यरूपिणी नारी त्रिभुवनाधारा नारी देहस्वरूपिणी (१३-४४) शिवजी ने झागे चलकर बताया है कि नारीके समान सुख है, गति है, नभाग्य है, राज्य है, तीर्थ है, योग है, जप है, मन्त्र और धन है वही इस संसारकी सर्वाधिक पूजनीय देवता है क्योंकि वह पार्वतीका रूप है उसके समान कभी कुछ था, ही है और होगा : नारीसमं सौरू्यं नारीसमा गति: नारीसदूशं भाग्यं भूतं॑ भविग्यति नारीसदूश राज्य नारी सदृशं तपः नारासदुश ती्य भूत॑ भविष्यति।।

[१०३

नारीसदृशों योगो नारीसदृशो जप: ॥।

न॑ नारीसदृक्षो योगो भूतं॑ भविष्यति ॥।

नारीसदृशो मन्त्र: नारीसदूश तपः

नारीसदूशं वित्त भूतों भवरिष्यति

( १३-४६-४८ ) इसीलिये भारतवंषंकी सुकुमार साधनाका सर्वोत्तम, अ्न्तःपुरको केन्द्र

करके प्रकाशित हुआ था वहीसे भारतवर्षका समस्त माघुय और समस्त मृदुत्व उद्भासित हुआ हैं !

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उत्सव और प्रेक्षागह

प्राचीन भारतीय नागरिक नाच, गान और उत्सवोंका आनन्द जमकर लिया करते थे। यह तो नही कहा जा सकता कि उन दिनों पेशेवर नतेकोंका अभि- नयगृह किसी निश्चित स्थानपर होता था या नही, क्योंकि प्राचीन ग्रन्थोंमें इसका कोई उल्लेख नही मिलता पर इतना निश्चित है कि राज्यकी ओरसे पहाड़ोंकी गुफाशोंमें दुम जिले प्रेक्नागृहू बनाए जाते थे और निश्चित तिथियों यग अवसरोंपर उनमें नाच गान और नाटकाशिनय भी होते थे छोटा नागपुरके रामगढ़की पहाड़ी- पर एक ऐसे ही प्रेक्षागूहका भग्नावशेष आविप्कृत हुआ है फिर खास-खास मन्दिरोंमें भी धारमिक उत्सवोंके अवसरपर नाच, गानकी व्यवस्थ। रहा करती थी। शादी-ब्याह, पृत्र-जन्म या अन्य आनन्दव्यंजक अवसरोंपर नागरिक लोग रज़्शाला और नाचघर बनवा लेते थे नाट्यशास्त्रमें स्थायी रज्भशालाओंकी भी चर्च है राजभवनके भीतर तो निश्चित रूपसे रद्भशालाएँ हुआ करती थी प्रायः ही संस्कृत नाटिकाओंमें अन्त-पुरके भीतर अन्‍्तःपुरिकाश्रोंके विनोदके लिये नृत्य-गान-अ्रभिनय आदिका उल्लेख पाया जाता हैँ नाट्यशास्त्रमें ऐसे प्रेक्षगृहोंका माप भी दिया हुआ है साधारणत: ये तीन प्रकारके होते थे जो बहुत

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2०४ ] बड़े होते थे वे देवोंके प्रेज्ञागह कहलाते थे और १०८ हाथ लम्बे होते थे दूसरे ६४ हाथ लम्बे वर्गाकार होते थे और तीसरे त्रिभुजाकार होते थे, जिनकी तीनों भुजाएं बत्तीस-बत्तीस हाथोंकी होती थीं दूसरे तरहके प्रेक्षागृह राजाके कहे जाते थे। ये ही साधारणत: अधिक प्रचलित थे ऐसा जान पडता है कि राजा लोग और अत्यधिक समृद्धिशाली लोगोंके गृहोंमें तो इस प्रकारकी रज्भशालाएँ स्थायी हुआ करती थीं। प्रतिमा' नाटकके आरम्भमें ही नेपथ्यशालाकी बात झ्ाई है। रामके अन्त:पुरमें एक नेपथ्यशाला थी, जहाँ रज्जभूमिके लिये वल्कलादि सामग्री रखी जाती थी पर साधा रण नागरिक यथा अवसर तीसरे प्रकारकी श्रस्थायी शालाएँ बनवा लेते थे ऐसी शालाग्रोंके बनवानेमें बड़ी सावधानी बर्ती जाती थी सम, स्थिर और कठित भूमि, काली या गौर वर्णकी मिट्टी शुभ समझी . जाती थी भूमिको पहले हलसे जोतते थे उसमेंकी अस्थि, कील, कपाल, तृण-गुल्म आदिको साफ करते थे और तब प्रेक्षाशालाके लिये भूमि मापी जाती थी। मापका कार्य काफी सावधानीका समझा- जाता था, क्योंकि मापते समय सूत्रका टूट जाना बहुत बड़ा अमंगलका कारण मात्ता जाता था। सूत्र कपास, बेर, वलकल और मूजमेंसे किसी एकका होता था। यह विश्वास किया जाता था कि भ्ाधेमेंसे सूत्र टूट जाय तो स्वामी की मृत्यु होती है, तिहाईमेंसे टूट जाय तो राजकोपकी आशंका होती है, चौथाई से टूटे तो प्रयोकता का नाश होता है, हाथभर पर से टूट जाय तो कुछ घट जाती है। सो, रज्जुग्रहगका कार्य अत्यन्त सावधानीसे किया जाता था। यह तो कहना ही बेकार है कि तिथि, नक्षत्र झ्दिकी शुद्धिपर विशेष रूपसे घ्यान दिया जाता था | इस बातका पूरा ध्यान रखा जाता था कि काषाय-वस्त्रधारी, हीनवपु श्रौर विकलांग लोग मंडप-स्थापनाके समय दिखकर अशुभ उत्पन्न कर दें। खंभोंके स्थापनमें भी इसी प्रकारकी सावधानी बर्ती जाती थी। खंभा हिल गया, खिसक गया, काँप गया तो नाना प्रकारका उपद्रव होना संभव माना जाता था वस्तुतः रंगगृहके निर्माणकी प्रत्येक क्रिया घुभाशुम फलदायिनी मात्ती जाती थी पद पदपर पूजा, वलि, मन्त्रपाठ और * ब्राह्मयण-भोजन की आवश्यकता समझी जाती थी भिकत्तिकर्म ,चूना पोतना, चित्र बनाना, खंभा गाड़ना, भूमि समान करना आवि क्ियाओंमें भावाजोखीका डर रहता था ( नाटच शास्त्र १) इस भ्रकार प्रेक्षाशालाओंका निर्माण अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता था राजाओंकी विजय-ब्यात्राश्रोंके पड़ावपर भी अस्थायी रज्भशालाएँ बना ली जाती थीं। इन शालाओंक दो हिस्से हुआ करते थे एक तो जहाँ अभिनय हुआ करता था वह स्थान और दूसरा दर्शंकोंका स्थान जिसमें भिन्न-भिन्न श्रेणीके लिये उनकी मर्यादार्के अनुसार स्थान नियत हुआ करते थे जहाँ श्रभिनय होता

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१०६ ] |

के गर्भगृहँ परम शिखर होता है शिखरके ऊपर सबसे ऊँचे एक प्रकारका बड़ाआंवला नुका चक्र या ग्रोला होता है जिसे झामलका (+-अआंवला) कहते हैं। इसी आमलकके- ऊपर कलश होता है और मन्दिरोंमें गर्भगृहंकं ऊपर कई उसके ऊपर ध्वज-दण्ड द्वविड़ शैलीके मंजिलोंका चौकोर मण्डप होता हैं जिसे विमान कहा जाता हैं। यह ज्यों-ज्यों ऊचा होता जाता है त्यों-त्यों उसका फैलाव कम होता जाता है जहाँ उत्तर भारतम शिखर होता है वहाँ दक्षिण भारतीय शैलीमें विमान होता है गर्भगृहके श्रागे बड़े-बड़े स्तम्भोंवाला विस्तृत स्थाल (मण्डप) होता है और मन्दिर के प्राकारके द्वारोंपर अनेक देवी देवताओ्रोंकी मूतिवाला ऊँचा गोपुर होता है दक्षिणके चिदां- बरम्‌ आदि मन्दिरों पर नाटच-शास्त्रके बतलाए हुए विविध अंगहार चित्रित हुए है कोणार्क और भुवनेश्वरके मन्दिरोंमें भी नाना प्रकारके शास्त्रीय आसन उत्कीर्ण हैं। इनमन्दिरोंपर उत्कीर्ण इन चित्रोंसे बहुत-सी लुप्त अभिनय भंगिमाशोंको जानने में सहायता मिलती है ।इसी प्रकार गुफाश्रोंमें श्रंकित चित्रोंने नाना दृष्टिसे भारतीय समाजको समझनेमें सहायता पहुँचाई है उनकी कला तो श्रसाधारण है ही एक प्रसिद्ध श्रंग्रेज शिल्प-शास्त्रीने आइचर्यके साथ कहा था कि गुफाओंके काटनेमें कही भी एक भी छेनी व्यर्थ नही चलाई गई है भारतीय वास्तु- कलाकी दृष्टिसे इन गुफाशओों और मन्दिरों की प्रशंसा संसारक सभी शिल्प-विशार- दोने की है अ्रदूभुत घैयें, विशाल मनोबल और आइचर्यंजनक हस्त-कौशलका ऐसा सामंजस्य संसारमें बहुत कम मिलता हैं. आलोचकोंने इस सफलताका प्रधान कारण कलाकारोंकी भेक्तिको ही बताया है या

६१ दर्शक

-इन प्रेक्षागृहोंमें-चाहे वे स्थायी हों या अस्थायी-अ्रभिचय देखनेके लिये जानेवाले दशकोंमें छोटे-बड़े, शिक्षित अ्रशिक्षित सभी हुआ करते थे, पर ऐसा जान पड़ता हूँ कि अधिकांश दर्शक रस-शास्त्रके नियमोंके ज्ञाता हुआ करते थे

पृ ०७

कालिदास, हर्ष आदिक नाटकोंमें अ्भिरूप-भूयिप्ठा और गुणग्र।हिणी परिपद- का उल्लेख हैँ भारतीय जीवनकी यह विशेषता रही है कि ऊंचीसे ऊंची चिन्ता जन- साधारणमें घुली पाई जाती है यद्यपि ज्ञास्त्रीय विचार और तकं-शैली सीमित क्षेत्रमें ही परिचित होती थी; किन्तु सिद्धान्त स्वत्ाधारणमें ज्ञात होते थे नृत्य और अभिनयसम्बन्धी मूल सिद्धान्त भी उन दिनों सर्वेसाघारणमें परिचित रह होंगे संस्कृत नाटकों और शास्त्रीय संगीत और अभिनयके द्रप्टाको कैसा होना चाहिए, इस विपयमें नाट्यशास्त्रनें स्पप्ट रूपमें कहा है (२७-५१ और आगे) कि उसके सभी इद्रिय दुरुस्त होने चाहिए, ऊहापोहमें उसे पट होना चाहिए (अ्र्थात्‌ जिसे आजकल ्रिटिकल ऑडिएंस” कहते हैँ, ऐसा होना चाहिए), दोपका जानकार और राग्री होना चाहिए जो व्यवित शोकसे शोकान्वित हो सके और आनन्दजनक दृष्य देखकर आनन्दित हो सके अर्थात्‌ जो संवेदन- शील हो, उसे नाट्यशास्त्र, प्रेक्षक या दर्शकोंका पद नहीं देना चाहता (२७-५२) यह जरूर हूँ कि सभीकी रुचि एक-सी नहीं हो सकती वयस, अवस्था और शिक्षा- के भेदसे नाता भाँतिकी रुचि और अवस्थाके अनुसार भिन्न विषयके नाटकों और अभिनयोंका प्रेक्षकत्व निर्दिप्ट किया है जवान आदमी श्यृंगार रसकी बातें देखना

चाहता है, सहृदय कालनियमों (समय) के अनुकूल अभिनयको पसन्द करता है, : अर्थपरायण लोग अर्थ चाहते है, वैरागी लोग विरागोत्तेजक दृश्य देखना चाहते है, शूर लोग वीर-रस. रौद्र आदि रस पसन्द करते हैं, वृद्ध लोग धर्माख्यात और पराणके अभिनय देखनेमें रस पाते हैं (१७-५७-५४८ ), फिर एक ही तमादेके सभी तमाशवीन कैसे हो सकते है ! फिर भी जान पड़ता है कि व्यवहारमें इतना कठोर नियम नही पालन किया जाता होगा और उत्सवादिक अवसरपर जो कोई अभिनयको देखना पसन्द करता होगा, वही जाया करता होगा परन्तु कालिदास आदि जब परिषद्की निपुणता और गृणग्राहकताकी बात करते है, तो निश्चय ही कुछ चुने हुए सहृदयोंकी बात करते हैं

१०८ ]

श्र

लोक-जोवन ही प्रधान कसौटी है

जैसा कि शुरूमें ही कहा गया है, भरत नाट्चज्ास्त्र नाटचर्धर्मी रूढ़ियों- का विशाल संग्रह ग्रन्थ है परन्तु नाट्यशास्त्रकारने कभी इस बातको नहीं भुलाया कि वास्तविक प्रेरणाभूमि लोक-जीवन है और वास्तविक कसौटी भी लोकचित्त है बादके अ्लंकार-शास्त्रियोंते इस तथ्यपर उतना ध्यान नहीं दिया जितना भरत मुनिने दिया था। नाट्यशास्त्रके २६ वें अध्यायमें उन्होंने विस्तार- पूर्वक अभिनय-विधियोंका निर्देश किया है बहुत विस्तारपूर्वक कहनेके बाद उन्होंने कहा है कि, मैंने सब तो बता दिया पर दुनिया यहीं नही समाप्त हो जाती; इस स्थावर, जंगम, चराचर सूप्टिका कोई भी शास्त्र कहाँतक हिसाब बता सकता है। सैकड़ों प्रकारकी भाव-चेष्टाओंका हिसाब बताना असंभव कार्य है लोकमें जाने कितने प्रकारकी प्रकृतियाँ हैं; इसलिये _नाटचप्रयोगके लिये लोक ही प्रमाण है, क्योंकि साध।रण जनताके आ्ाचरणमें ही नाटककी प्रतिष्ठा है ! (२६- ११८-११६) वस्तुतः जो भी शास्त्र और धर्म और शिल्प और आचार लोक- धर्म-प्रवृत्त है वही नाटच कहे जाते है यानि झ्षास्त्राणि ये धर्मा यानि शिल्पानि याः क्रिया: लोकधमंप्रवृत्तात॒ तानि नाट्य॑__प्रकीतितम्‌ ॥। लोकके अतिरिष्त दो और बातोंको शास्त्रकारने प्रमाण माना है बेद और अध्यात्म वेदसे उनका मतलब नाटबवेद अर्थात्‌ नाट्यशास्त्रसे है और अध्यात्मसे मतलब उस अन्तर्निहित तत्त्ववादसे है जो सदा कलाकारकों सचेत करता रहता है कि वह जो कुछ कर रहा है वह खेल नहीं है बल्कि पूजा है, परम शिवको तृप्त करनेकी साथना है नाट्यकी सफलता भी लोकरंजनमें ही है नाट्यशास्त्रकार सिद्धि दो प्रकारकी भानते है, मानुषी और दैवी। दैवी बहुत कुछ भाग्याश्रित है। भूकंप हो जाय, वर्षा ढरक पड़े, आँधी तूफात फट पड़ें, तो नाटक निविश्न होता है उस अव- स्थामें समझना चाहिए कि देवताश्रोंने सारी बातें स्द्रीकार कर लीहैं

[१०६

कहीं कोई दोप नहीं हुआ है पर मानुपी सिद्धि अभिनयकी कुशलतासे प्रप्त होती हैं जव जनता हँसानेके अभिनयक समय हँस पड़े, रुलानेके समय रो पड़े, भावानूभूतिके समय रोमाज्चगद्गद्‌ हो पड़े तो समझना चाहिए कि नाटक सफल हैँ नाट्यशास्त्र सहज ही नाटककी सफलता नहीं मानता वह दर्शकके मुँहसे अहो', साधु-साधु, हा कष्टम्‌ आदि मनिकलवा लेना चाहता है वह सिर हिलवा देनेमें, आँसू निकलवा लेनेमें, लंवी साँस खिचवा लेनेमें, रोमाञ्चगद्गद्‌ करा दे नेमें, भूम -झूमकर वाहवाही दिलवा लेनेमें नाटककी सिद्धि मानता है बह लोक-जीवनको कभी नहीं भुलाता और ऊपरके देवताओंकी ही अवहेलना करता हूँ दोनों ही ओर उसकी दृष्टि है देवताको असन्तुष्ठ करना संभव भी तो नहीं हैं उन दिनोंके देवता अभिनयकी त्रुटियोंकी श्रोर सदा श्रांख लगाए रहते थे जरा-सी न्रूटि हुई नहीं कि आँधी भेज दी, आग लगा दी, पानी बरसा दिया, साँप निकाल दिया, वज्थ गिरा दिया, कीड़ोंकी पल्टन दौड़ा दी, चींटियोंकी सेना चढ़ा दी, साँढ़-मैंसा दौड़ा दिया ! इनकी उपेक्षा करना क्या मुमकिन था ? - वाताग्निवर्धकुंजर-भुजंग-संक्षोभ-वज्पातानि

कीटव्यालपिपीलिकपशुविशसनानि दैविका घाता: ॥।

वर

पारिवारिक उत्सव

साधारणतः विवाहक अवसर पर या किसी राजकीय उत्सवके अ्वसरपर ऐसे आयोजनोंका भूरिश: उल्लेख पाया जाता है जब नयगरमें वर-वधू प्रथम बार रथस्थ होकर निकलते थे, तो नगरमें खरभर मच जाती थी पुस्सुन्दरियाँ सव-कुछ भूलकर राजपथके दोनों ओर गवाक्षोंमें आँखे बिछा देती थीं केश बाँवती हुई बहू हाथमें कबरीवन्धके लिए सम्हाली हुईं पुष्पत्नाक्‌ (माला) लिए

ही दौड़ पड़ती थी, महावर देनेमें दत्तचिता कुलरमणी एक पैरके महावरसे घरको लाल वनाती हुईं खिड़कीपर दौड़ जाती थी; काजल बाई आँखमें पहले लगानेका

११० |

नियम भूलकर कोई सुन्दरी दाहिनी आँखमें काजल देकर जल्दी-जल्दीमें हाथमें अज्जन-शलांका लिए ही भाग पड़ती थी, रसनामें मणि गृंथती हुईं विलासिनी आधे गँथे सूत्रको अँगूठेमें लिए हुए ही दौड़ पड़ती थी ( रघुवंश ७-६-१०, और कुमारसंभव ७-५७-१० ) और इस प्रकार नगर-सौधोंक गवाक्ष सुन्दरियोंकी वदन-दीप्तिसे दमक उठते थे जब कुमार चन्द्रापीड़ समस्त विद्याप्नोंका अध्ययन समाप्त करके विद्या-गृहसे निर्गत हुए थे और नगरमें प्रविष्ट हुए थे, तो कुछ इसी _ प्रकारकी खरभर मच गई थी प्रतिष्ठित परिवारोंमें, जिनका आपसमें सम्बन्ध होता था, उनके घर उत्सव होनेपर एक घरके लोग बड़े ठाट-बार्टसे दूसरे घर- जाया करते थे राजा, मन्‍्त्री, श्रेष्ठी आदि समृद्ध नागरिकोंमें यह श्राना-जाना विशेष रूपसे दर्शनीय हुआ करता था मन्त्री शुकनासके घर पृत्र-जन्म होनेपर राजा तारापीड़ उसका उत्सव मतानेके लिए गए थे उत्तके साथ श्रन्त:पुरकी देवियाँ भी थीं बाणभट्टकी शक्तिशाली लेखनीक इसका जो घचिवरण दिया हैं, उससे उस युगर्क ऐसे जुलूसोंको बहुत मनोरंजक परिचय मिलता है राजा तारा- पीड़ जब शुकनासके घर जाने लगे, तो उनके पीछे अन्त:पुरकी परिचारिका रम- णियाँ भी थी उनके चरण-विघट्टत (पदक्षेप )--जनित नूपुरोंके क्वणनसे दिगन्त शब्दायमान हो उठा था, वेगरपूर्वक भुज-लताश्रोंके उत्तोलनके कारण: मणि- जटित चूडियाँ चंचल हो उठी थीं, मानो आकाश गंगामेंकी कमलिनी वायु-विलु- लित होकर नीचे चली आई हो; भीड़क संघर्षसे उनके कानोंके पल्‍ललव खिसक रहे थे, वे एक दूसरेसे टकरा जाती थीं और इस प्रकार एकका केयूर दूसरीकी चादरमें लगकर उसे खरोंच डालता था, पसीनेसे घुले हुए अ्ंगराग उनके चीन-वसनोंको रंग रहे थे, भीड़के कारण शरीरका तिलक थोड़ा ही बच रहा था, साथ-साथ चलनेवाली विलासवती वारवनितश्रोंकी हँसीसे वे प्रस्फुटित कुमुद वनके समान सुशोभित हो रही थी; चंचल हार-लताएँ जो र-जोरसे हिलती हुईं उनके वक्षोभागसे टकरा रही थीं, खुली केशराशि सिन्दूर-विन्दुपर आकर पड़ रही थी, श्रबीर की निरन्तर झड़ी होते रहतेके कारण उनके केश पिगल वर्णक हो उठे थे, उन दिचोंके - संभ्रांत परिवारोंके अन्तःपुरमें सदा रहनेवाले गूंगे, कुबड़ें, बौने और मूर्ख लोग उद्धत तु त्यसे विह्ुल होकर आगे आगे चले जा रहे थे, कभी-कभी किसी वृद्ध कंचु- कीर्के गलेमें किसी रमणीका उत्तरीय वस्त्र अटक जाताथा और खींचतानमें पड़ा हुआ वह वेचारा खासे मजाकका पात्र बन जाता था। साथमें वीणा, वंशी, मृदंग और कांस्यताल बजता चलता था, और अत्स्पष्ट किन्तु मधुर गान सुनाई दे रहा था। राजाके पीछे-पीछे उनके परिवारकी संभान्त महिलाएँ भी जा रही थी, उनका मणिमय कुण्डल आन्दो लित होकर कपोल-तलपर निरन्तर आघात कर रहा था, कानके उत्पल-पत्र हिल रहे थे, शेखर-माला भूमिपर गिरती जा रही थी,

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वक्ष:स्थल-विराजित पृप्पमाला निरन्तर हिल रही थी, इनके साथ भेरी, मूदंग, मर्देल, पटह आदि वाजें बज रहे थे, और उनके पीछे-पीछे काहल और शंखके नाद हो रहे थे, और इन शब्दोंकेसाथ राज-परिवारकी देवियोंके सनूपुर चरणोंके झ्राघात से इतना भारी शब्द हो रहा था कि धरतीके फट जानेका अन्देशा होता था इनके पीछे राजाके चारणगण नाचते चले जा रहे थे, नाना प्रकारके मुखवाद्यसे कोलाहल करते जा रहे थे, कुछ लोग राजाकी स्तुति कर रहे थे, कुछ विरुद पढ़ रहे थे और कुछ यों ही उछलते-कदते चले जा रहे थे जो उत्सव पाविरिक नही होते थे, उनका ठाट-बाट कुछ और तरहका होता था। काव्य-प्रन्थोंमें इनका भी उल्लेख पाया जाता है। साधारणतः राजाकी सवारी, विजय-यात्रा, विजयंके बादका प्रवेश, बारात आवदिके जुलूसोंमें हाथियों और घोड़ोंकी वहुतायत हुआ करती थी स्थान-स्थानपर जुलूस रुक जाता था और घूृड़सवार नौजवान धोड़ोंकों नचानेकी कल्लाका परिचय देते थे नगरकी देवियाँ गवाक्षोंसे धानकी खीलों और पुृष्पवर्षासे राजा, राजकुमार या वरकी अभ्यर्थना करती थीं जुलूसके पीछे बड़ी दूर तक साधारण नागरिक पीछे पीछे चला करते थे जान पड़ता है कि प्राचीन कालके ये जूलूस जन- साधारणके लिए एक विशेष आनन्‍्ददायक उत्सव थे राजा जब दीर्घ प्रवासके बाद अश्रपनी राजधानीको लौटते थे, उत्सुक जनता प्रथम चन्द्रकी भाँति अत्यन्त उत्सुकतापूर्वक उनकी प्रतीक्षा करती रहती थी और राजाके नगरद्वारमें -पधारनेपर तुमुल जयघोषसे उनका स्वागत करती थी महाकवि कालिदासने रघुवंशमें राजा दिलीपक वन-अ्रवासके अवसरपर भी यह दिखाया है कि किस प्रकार त्रनके वृक्ष और लताएँ नागरिकोंकी भाँति उन्तकी अभ्यर्थेना कर रही थीं। बाल-लताएं पृष्पवर्षा करके पौर-कन्याओंद्वारा अनुष्ठित खीलोंकी वर्षाकी कमी पूरी कर रही थीं, वृक्षोंके सिरपर वैठकर चहकती हुई चिड़ियाँ मधुर शब्द करके आलोक-शव्द या रोशनचौकीके अ्रभावकों भलीभाँति दूर कर रही थीं, और इस प्रकार वनमें भी राजा भ्रपने राजकीय सम्मानको पा रहा था जुलूस जब गन्तव्य स्थानपर पहुँच जाता था तो वहाँ के आनुष्ठानिक कृत्यके सम्पादनके बाद नाच, गान, अभिनय आदि द्वारा मनोर॑जनकी व्यवस्था हुआ करती थी दर्शंकोंमें स्ली-पु रुष, वुद्ध-बालक, ब्राह्मण-शूद्र सभी हुआ करते थे सभीके लिये अलग-अलग वँठनेकी जगहें हुआ करती थीं

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६४ विवाहके श्रवसरके विनोद

बाणभट्टके हर्षवरितर्में विवाहुके अवसरपर होनेवाले आमोद उल्लासोंका बड़ा मोहक वर्णन मिलता है अन्तःपुरकी महिलाएँ भी ऐसे झवसरोंपर नृत्य- गानमें हिस्सा लेती थीं उनके सुन्दर अंगहारोंसे महोत्सव मंगल-कलशोंसे सुसज्जित-सा हो जाता था, कुट्टिम-सूमि पादालक्तकोंसे लाल हो जाती थी, चंचल चक्षुओंकी किरणसे सारा दित्त कृष्णसार मृगोंसे परिपूर्णकी भाँति दिखते लगता था, भुजलताओंके विक्षेप-क्रों देखकर ऐसा लगता था मानो भुवतसंडल मृणालवलयोंसे परिवेष्ठित हो जायगा शिरीष-कुस्ुमक स्तवकोंसे ऐसे अ्वसरोंपर अन्तःपुरकी धूप शुक (तोते) के पक्षके रंगमें रँगी हुई-सी जान पड़ने लगती थी, शिथिल धम्मिल्ल (जूड़े) से खिसक कर गिरे हुए तमाल-पत्रों से श्रंगशभूमि कज्जलायमान हो उठती थी श्रौर श्राभरणों के रणत्कार से ऐसी मुखर ध्वनि दिशाओंमें परिव्याप्त हो जाती थी कि श्रोताको भ्रम होने लगता था कि कहीं दिशाओरोंके ही चरणोंमें नूपुर तो नहीं बाँध दिए गए हैं ! समृद्ध परिवारोंके बाहरी बैठकखानेसे लेकर अन्तःपुरतक नाच-गानका जाल बिछ जाता था। स्थान स्थानपर पण्य-विलासिनियों (वेश्याओं ) के नृत्यका आयोजन होता था उनके साथ मन्द-मन्द भावसे आस्फाल्यमान आलिग्यक नामक वाद्य बजते रहते थे, मधुर शिजनकारी मंजुल वेणु-निनाद मुखरित होता रहता था, झनझनाती हुईं झल्लरीकी ध्वनिके साथ कलकांस्य और कोशी (कॉसेके दण्ड और जोड़ी, ) का क्वणन अपूर्व ध्वनि-माधुरीकी सृष्टि करते थे, साथ-साथ दिए जाने वाले उत्ताल तालसे दिझमण्डल कल्लोलित होता रहता था, निरन्तर ताड़न पाते हुए तंत्रीपटहकी गुज्जारसे और भृदु-मन्द झंकारके साथ झंकृत झलावु- वीणाकी मनोहर ध्वनिसे वे नृत्य अत्यन्त आकर्षक हो जाते थे युवतियोंके कानमें ऋत्‌ विशेषके नवीन पृष्प झूलते होते थे,-कभी वहाँ कर्णिकार, कभी अरद्योक,, कभी दिरीप्र, केभी नीलोत्मल और कभी तमालपतन्नकी भी चर्चा आती है- कुंकुम-गौ रकान्तिसे वे वलयित होती थी-मानो काश्मीर-किशो-

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रियाँ हों ! नृत्यके नाना करणोंमें जब वे अपनी कोमल भुजलताओोंकी ग्राकाशम' उत्क्षिप्त करती थी तो ऐसा लगता था कि उनके कंकेण सर्य-मण्डलको वन्दी बना लेंगे। उनकी कनक-मेखलाकी किकिणियोतते कुरप्टकमाला उनके मध्य देशको घेरती हुईं ऐसी शोभित होती थी मानो रागारिन ही प्रदीप्त होकर उन्हें वलयित किए है उसके मुखमण्डलसे सिद्र और अवीरकी छठा विच्छरित हो! जाती थी और उस लाल कान्तिसे अरुणायित कुण्डल-पत्र इस प्रकार सुझशोभित हुआ करते थे, मानों चन्दन द्रुमकी सुकुमार लताभ्ोंके विलसित किसलय हों उनके नीले वासन्ती, चित्रक और कौसुम्भ वस्त्रोंके उत्तरीय जब नृत्यवेगके घृर्णनसे तरंगायित हो उठते तो मालम पड़ता था कि विक्षुव्ध शज्।र-सागरकी चटुल वीचियाँ तरंगित हो उठी हैं वे मदकों भी मदमत्त बना देती थी, रागको भी रोग देती थीं, आनन्दको भी आनन्दित कर देती थीं, नृत्यको भी नचा देती थी और उत्सवको भी उत्सुक कर देती थी (हर्पचरित, चतुर्थ उच्छूवास ) एक इसी प्रकारके नृत्य उत्सवका दृश्य पवाथा (ग्वालियर राज्य) के तोरणपर अंकित पाया गया है डा० वासुदेवशरणजी अग्रवाल इसे जन्मोत्सव- कालीन (जातिमह' ) आनन्‍्द-ृत्य मानते है पर यह विवाहकालीन भी हो सकता है हर्षे-चरितके वर्णनसे तो वह बहुत अधिक मिलता है दुर्भाग्यवश इसका वायाँ हिस्सा खंडित मिला है १० हरिहरनिवास हिवेदीने इस चित्रका विवरण इस प्रकार दिया है, “इस दृश्यमें एक स्त्री मध्यभागमें खड़ी हुई अत्यन्त सुंदर भावभंगीसे नृत्य कर रही है स्तनोंपर एक लंबा वस्त्र बंघा हुआ है, जिसका किनारा एक ओर लटक रहा है वाएँ हाथमें पोंहचेसे कोहनी तक चूड़ियाँ भरी हुई है दाहिने हाथमें संभवत: एक-दो ही चूड़ियाँ हैँ कमरके नीचे अत्यन्त चुस्त घोती ( या पायजामा ) पहले हुईं हैँ जिसपर दोनों ओरकी किकिणियोंकी झालरें लटक रही है ! पैरोंमें सादा चूड़े हैं। कानोंमें झूमरदार कर्णाभरण है यद्यपि इस स्त्रीक चारों ओर नौ स्त्रियाँ विविध वादन बजाती हुई दिखाई गई है, परच्तु उनका प्रसाधव इतनी बारीकी और विस्तारसे नही वतलाया गया है ये वाद्य बजानेवाली स्त्रियाँ गद्दियोंपर बैठी है टूटे हुए कोनेमें एक स्त्री-मूदिका केवल एक हाथ बचा हैं वाद्योंमें दो तारोंके वाद्य है। दाहिनी ओरका वाद्य समुद्र- गप्तकी म॒द्रापर अंकित वीणाके समान हैँ। बाँयी ओरका वाद्य आजके वायो- लिनकी वनावटका हैं एक स्त्री ढपली जैसा वाद्य वजा रही हैं उसके पश्चात एक स्त्री संभवतः प॑खा अथवा चमटी लिए है फिर एक स्त्री मंजीर बजा रही हु और एक विना वाद्यके है इसके पदचात्‌ मुदंगवादिनी है कोनेकी टूटी भूतिक बादकी स्त्री वेणु बजा रही है बीचमें दीपक जल रहा है इच सबके केश-विन्यास पूथक-पृथक्‌ प्रकारके हूँ ऐसा लगता है कि इसी प्रकारके किसी

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द्‌ ब्यका वर्णन हर्षचरितरमों बराणभट्टने किया है

विवाहादिके अवसरपर अच्तःपुरोंमं जिस मनोहर नृत्यगानका आयोजन होता था वह संयत, मोहक, शिष्ट होता था उस समय पद्म-किजल्कोंकी धूलिसे दिशाएँ पिजरित हो उठती थीं, कुरंटक मालाओंसे सजी हुईं भित्तियाँ जगमग करती रहती थीं, म्रालती मालासे वलयित सुन्दरियाँ मणाल-वलयमे बन्दी चन्द्रमण्डलका स्मरण दिला देती थी, वीणा वेणु और मुरजके झंकारसे अच्त:पुर कोलाहलमय हो उठता था संगीत इस प्रकारके उत्सवोंका प्रधान उपादान होता था बाण- भट्टकी गवाहीपर हम कह सकते हँ कि विवाहकी प्रत्येक क्रियाके समय पुरोहितकी मन्त्रगिराके समान ही कोकिलकंठियोंका गान आवश्यक माना जाता था ऐसे अवसरोंक गान महज मनोविनोद या आमोद-उल्लासके साधन नही होते थे बल्कि, विश्वास किया जाता था कि वे देवताओंको प्रसन्न करेंगे, श्रमंगलोंको दूर करेंगे और वर-वधूको अशेष सौभ.ग्यसे अलंक्ृत करेंगे

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यहाँ यह कह रखना उचित हूँ कि कामसूत्रसे हमें कई प्रकारकी ताच, गान आर रसालाप सम्बन्धी सभाओ्रोंका पता मिलता है एक तरहकी सभा हुआ करती थी, जिसे समाज कहा करते थे यह सभा सरस्वतीके मन्दिरमें नियत तिथिको हर पखवारे हुआ करती थी इसमें जो लोग आते थे, वे निश्चय ही अत्यंत सु- संस्कृत नागरिक हुआ करते थे इस सभामें जो नाचने-गानेवाले, नागरिकका मनोविनोद किया करते थे, उनमें अधिकांश नियुवत हुआ करते थे किन्तु समय-समयपर अन्य स्थानोंसे आए हुए कृशीलव या नाच-गानके उस्ताद भी इस- में श्रपनी कलाका प्रदर्शन किया करते थे दूसरे दिन इन्हें पुरस्कार दिया जाता था। जब कभी कोई बड़ा उत्सव हुआ करता था, तो इन समाजोंमें कई स्वतन्त्र और आसगनन्‍्तुक नतेक और गायक सम्मिलित भावसे अपनी कलाका प्रदर्शन करते

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थे। इनकी खातिरदारी करना समूचे गण अर्थात्‌ नागरिक समाजका धर्म हुआ करता था केवल सरस्वतीके मन्दिरोंमें ही ऐसे उत्सव हुआ करते हों सो बात नहीं हैँ , अन्यान्य देवताओंक मन्दिरमें भी यथा-नियम हुआ करते थे (कामसूत्र, पृष्ठ ५०-५१ )

रामायण ( अ्रयोध्या कांड ६७ अ्र० ) में बताया गया है, जिस देशमें राजाका शासन नहीं होता वहाँ अनेक प्रकारके उपद्रव होते हैं इन उपद्रवों और अव्यवस्थाओंमें आदि कविने निम्नलिखित बातोंकों भी गिनाया है- (१) * अराजक देशमें लोग सभा नहीं करा सकते (६७-१२), रम्य उद्यान बना सकते हैं (६७-१२), और (३) नठ और नतेंक प्रहृष्ट होकर भाग ले सकें ऐसे उत्सव और 'समाज' ही करा सकते हैं ये समाज और उत्सव राष्ट्रवर्धत होते हैं” (४) और ऐसे देश जनपदोंमें लोग ऐसे उद्यान नहीं बता सकते जहाँ सायंकाल स्वर्णलंकारोंसे अलंकृत कुमारियाँ कीड़ा के लिये मिलित होती हैं (६७-१७), फिर (५) ऐसे देशमें विलासी नागरिक स्त्रियोंके साथ शीघ्रवाही रथोंपर चढ़- कर शहरके बाहर विनोदके लिये नहीं जा सकते (६७-१६) यह भी बताया गया हैं कि (६) ऐसे देशमें शास्त्र-विचक्षण व्यक्ति वनों और उपवत्ोंमें शास्त्र- विनोद नहीं कर पाते हैं। इन्पर ध्यान दिया जाय तो स्पप्ट लगता है कि यहाँ सभा, समाज, उद्यान-यात्रा, उपवत्-विनोद आदि वातें वही हैं, जिनका कामसूच- में उल्लेख है परवर्ती कालके टीकाकार रामभट्टने सभाका भ्रर्थ न्याय-विचार करनेवाली सभा किया है और समाज' का अर्थ विशेष राप्ट्र-प्रयोजनवाले समूह किया है। ऐसा जान पड़ता है कि वे पुरानी परंपराकी ठीक व्याख्या नहीं कर सके यहाँ श्रादिकविका अभिप्राय यही जान पड़ता है कि जिस देशमें अ्रच्छा शासक नहीं होता वहाँके नागरिक धर्म, अर्थ, कामका उपभोग स्वतंत्रतापू्वक नही कर सकते ऊपर जो बातें कही गई हैं वे कामोपभोगकी है ! कामसूत्रसे इसकी ठीक-ठीक व्याख्या हो जाती है। समाज" बहुत पुरानी संस्था थी श्रशोकने अपने लेखों में कामशास्त्रीय समाजोंकोी रोकनेका आदेश दिया था इन लेखोंमें यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जो समाज भले कार्येके लिये हों वे निषिद्ध नही है कामसूत्र से स्पष्ट है कि समाजमें शास्त्रालाप भी होते थे संभवतः अशोक जिन समाजों- को वर्जनीय नहीं समझते वे ऐसे ही कामभोगी ढंगके समाज होते थे

इसी प्रकार सागरिकोंके मनोविनोदके लिये एक और तरहकी सभा बैठा करती थी, जिसे गोष्ठी कहा करते थे ये गोष्ठियाँ नागरकके घरपर या किसी गणिकाके घर भी हुआ करती थी इनमें निरचय ही चुने हुए लोग निमन्त्रित होते थे गणिकाएँ, जो उन दिनों अपनी विद्या, कला और रसिकताके कॉरण सम्मान्तकी दुष्टिसे देखी जाती थी, नागरकोंके घरपर होनेवाली गोष्ठियों में

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निमन्नित होकर आती थीं और सिफं नृत्य-गीतसे ही नहीं, वहुविध काव्य-समस्याएँ, मानसी काव्यक्रिया, पुस्तक-वाचन, दुर्वाचक योग, देश-भाषा विज्ञान, छन्द, नाटक, झास्यान, आख्यायिका सम्बन्धी आलोचुनाओं और रसालापोंसे भी नाग- रिकॉंका मनोविनोद किया करती थीं भासके नाटकों, तथा ललितविस्तर आदि बौद्ध काव्योंसे पता चलता है कि ये गोप्ठियाँ उन दिनों वहुत प्रचलित थीं और रईसीका आवश्यक अंग मानी जाती थीं। यह जरूर है कि कभी-कभी लोगोंमें इस प्रकारकी गोप्ठियोंक विषयमें निन्‍दा भी होती थी वात्स्यायनने भले आदमियों- को निन्दित गोप्ठियोंमें जानेका निषेध किया है (पु० ५८-५६) इन गोशिठियों- के समान ही एक और सभा नागरिकोंकी बैठा करती थी, जिसे वात्स्यायनने आपा- सक कहा है इसमें मद्य-पानकी व्यवस्था होती थी, पर हमारे विपयसे उसका दूरका ही सम्बन्ध है दो और सभाएँ-उद्यान-यात्रा और समस्याक्रीड़ा कामसूच- में बताई गई हैँ, जिनकी चर्चा यहाँ नहीं करेंगे अगोकरके शिलालेखोंसे स्पप्ट हैँ कि ऐसे समाज भद्गसमाजमें बहुत हीन समझे जाते थे और राजा उनके आयोजकों- को दण्ड दिया करता था | ये विकृृत रुचिके प्रचारक थे

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स्थायो रंगशाला और सभा

बहुत पुराने जमानेसे ही संगीत, अभिनय और काव्यालापके लिये स्थ,यी सभाशथ्रोंकी व्यवस्था हुआ करती थी संगीत-रत्नाकर एक बहुत परवर्ती ग्रंथ है। यह प्रधान रपसे संगीत झास्त्रकी व्याख्या करनेके उद्देश्यसे लिख। गया था यद्यपि यह ग्रंथ वहुत वादका है तथापि इसमें प्राचीन कालकी परम्प राएँ भी सुर- ल्षित है इस पृस्तकमें संगीतके आयोजनके लिये स्थापित सभाका वड़ा भव्य वर्णन दिया हुआ है ! इसे ग्रंथकारने रंगश्ाला नाम दिया है !

इस संगीत-रत्नाकर (१३५१-१३६०) में रत्नस्तम्भ-विभूषित पुष्प- प्रकर-शोभित नाना विताननसम्पन्न अत्यन्त समृद्धिशाली रंगशालाका उल्लेख

[११७

है। इसके बीचमें सिहासनपर सभापत्ति बैठा करते थे इस सभापतिसें सभी प्रकारकी कला-मर्मन्ता और विवेकशीलताका होना आवश्यक माना गया है सभापतिकी बाई ओर अन्‍्त:पुरकी देवियोंके लिये और दाहियी ओर प्रधान अमात्यादिके लिये स्थान नियत हुआ करते थे इन प्रधानोंके पीछे कोशाध्यक्ष और अन्यान्य करणाधिप या अफसर रहा करते और इनके निकट ही लोक- बेदके विचक्षण विद्वान, कवि और रसिक जन बैठा करते थे बड़े-बड़े ज्योतिषी और वैद्योंका आसन विद्वानोंमें हुआ करता था इसी ओर सन्त्रि-मण्डली बैठती थी वाई ओर अन्त:पुरकाञ्रोंकी मंडली बैठा करती थी सभापतिके पीछे रूप-यौवन-संभारश्ालिनी चारु-वामर-धारिणी स्त्रियाँ धीरे-धीरे चँवरं डुलाया करती थीं, जो अपने कंकण-झंका रसे दर्शकोंका चित्त मोहती रहती थीं सामभेकी बाई ओर कथक, वन्दौ और कलावंत आदि रहा करते थे सभाकी शान्ति-रक्षाके लिये दक्ष वेत्रधर भी तैयार रहते थे राजशेखरने काव्यमीमांसामें एक और प्रकारकी सभाका विधान किया है, जो मनोरंजक है इसके अनुसार राजाके काव्य-साहित्यादिकी चर्चाके लिये जो सभामंडप होगा, उसमें सोलह खंभे, चार द्वार और आठ अटारियाँ होंगी राजा- का कीड़ा-गृह इसीसे सटा हुआ होगा इसके बीचमें चार खम्भोंकी छोड़कर हाथभर ऊँचा एक चवृतरा होगा और उसके ऊपर एक मणिजटित वेदिका इसीपर राजाका आसन होगा इसके उत्तरकी ओर संस्कृत भाषाके कवि बैठेंगे यदि एक ही आदमी कई भाषाश्रोंमें कवित्व करता हो, तो जिस भाषामें अधिक प्रवीण हो वह उसी भाषाका कवि माना जायगा जो कई भापषाश्रोंमें बराबर प्रवीण हो, वह जहाँ चाहे उठकर बैठ सकता है संस्कृत कवियोंके पीछे वैदिक, दार्शनिक, पौराणिक, स्मृति-शास्त्री, वैद्य, ज्योतिषी आदिका स्थान होगा पूर्व- की ओर प्राकृत भाषाक कवि और उनके पीछे नट, नेक, गायक, वादक, वाग्जी- वन, कुशीलव, तालावचर आदि रहेंगे | पश्चिमकी ओर अपभ्रंश भाषाके कवि और उनके पीछे चित्रकार, लेपकार, मणिकार, जौहरी, सुनार, बढ़ईं, लोहार आदिका स्थान होगा दक्षिणकी ओर पैशाची भषाक कवि होंगे और उनके पीछे वेश्या, वेश्या-लम्पट, रस्सोंपर नाचने वाले नट, जादूगर, जम्भक, पहलवान, सिपाही आदिका स्थान निदिप्ट रहेगा इस विवरण्से ही प्रकट हैँ कि राजशेखर- की बनाई हुईं यह सभा मुख्यतः कवि-सभा है, यद्यपि नाचने गानेवालोंकी उपस्थिति- से अनुमान होता है कि इस प्रकारकी सभामें श्रवसर विद्येपपर गान, वाद्य और नृत्यका भी आयोजन हो सकता था जो संगीत-मवन स्थायी हुआ करते थे, उन्तके स्थ।नपर मृदंग-स्थापनकी जगह वती होती थी कादम्बरीमें एक जगह इस प्रकारकी उपमा दी गई है,

११८]

जिससे इस व्यवस्थाका पता चलता है सद्भीतभवनमिवानेकस्थानस्थापितमृद- ज्रम्‌)' यह मुदज्भ उन दिनोंकी सद्भीतकी मजलिसका अत्यन्त आवश्यक उपा- दान था। कालिदासने सद्भीत प्रसंग उठते ही प्रसकक्‍्तसंगीतमृदंगघोष कहकर इस वातकी ओर इंगित किया है

द७छ गणिका

इन सभाओंसें गणिकाका आना एक विशेष आकर्षक व्यापार था यहाँ यह स्पष्ट समझ जाता चाहिए कि गणिका यद्यपि वारांगना ही हुआ करती थी, तथ।पि कामसूत्रसे जात पड़ता हैँ कि वह साधारण वेश्यात्रोंसे कही अधिक सम्मानका पात्र सानी जाती थी वेश्याओ्रोंमें जो सबसे सुन्दरी और गुणवती होती थी, उसे ही गणिका' की झ्राख्या मिलती थी राजा लोग उसका सम्मान करते थे-- ग्राभिरम्युच्छिता वेश्या शीलरूपगुणान्विता लभते गणिकाशब्द॑ स्थान जनसंसदि ॥। पूजिता सदा राज्ञा गुणवल्छिइच संस्तुता प्र।र्थनोयाभिगम्या लक्ष्यभभूता ते जया (ताट्थशास्त्रमें गणिकाके गुण २० ३६७) ललितबविस्तरमें राजकुमारीको गणिकाके समान शास्त्रज्ञा बताया गया है (शास्त्रे विधिजरकुशला गणिका यथैव ) ये गणिकाएँ शास्त्रकी जानकर और कवित्वकी रसिका हुआ करती थीं राजशेखरने काव्य-मीमांसामें इस बातको सिद्ध करना चाहा है कि पुरुषक समान स्त्रियाँ भी कवि हो सकती है और प्रमाण- स्वरूप वे कहते है कि सुना जाता है कि प्राचीन कालमें बहुत-सी गणिकाएँ और राजदुहित्मएँ बहुत उत्तम कवि हो गई हैं इन गणिकाओं की पुृत्रियोंको नायरक- जनके पुत्रोंके साथ पढ़नेका अधिकार था गणिका वस्तुतः समस्त गण (या राष्ट्र) की सम्पत्ति मानी जाती थी और बौद्ध साहित्यसें इस बातका प्रमाण है

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द्द अभिनेताओओंकी साम्माज़िक मर्यादा

गणिकाके अतिरिक्त जो स्त्री-पुर्प अभिनय आदिका पेशा करते थे, वे समाजमें किस दृप्टिसे देखे जाते थे, इस विषयमें प्र/चीन ग्रन्थोंमें दो तरहकी वार्ते पाई जाती है धर्म-ग्रन्थोंके अनुसार तो निश्चित रूपसे उन्हे बहुत ऊँचा स्थान नहीं दिया गया मनु० (८-६५) और याजवल्क्य (२-७०) तो उनकी दी हुईं गवाहीको भी प्रामाणिक नही मानते इसका कारण शायद यह है कि वे अत्यन्त झूठे और फरेवी माने जाते रहे होंगे जायाजीव, रूपजीव आदि शब्दोंसे नटोंको निर्देश करनेसे जान पड़ता है कि ये अपनी पत्नियोंके रूपका व्यवसाय किया करते थे। इस वातका समर्थन इस प्रकार भी होता है कि मनुने नदीके साथ बलात्कार करने वाले व्यवितको कम दण्ड देनेका विधान किया है [मनु० ८-३६२ )। स्मृति ग्रन्थोंमें यह -भी कहा गया है कि इनके हाथका अन्न अ्रभोज्य है। इस प्रकार धर्मशास्त्रकी दृषप्टिसि विचार किया जाय, तो नाचनेका पेशा निदक्ृप्ट मानता जाता था जान पड़ता हूँ कि शुरूमे जव ताट्यकला उच्नत्त नहीं हुई थी और नट लोग पुतलियोंकों नचाकर या इसी तरहक अन्य व्यवसायोंसे जीविका उपार्जन करते थे, तबसे ही समाजमें उनके प्रति एक अवज्ञाका भाव रहगया था पर जैसे-जसे नाटकीय कला उत्कपंको प्राप्त करती गई वैसे-वैसे इनकी सामाजिक मर्यादा भी ऊँची उठती गई पर सब-मिलकर समाजकी दृष्टिमें वे बहुत ऊँचे नही उठे

ताटच-शास्त्रके युगमें भी इनकी सामाजिक मर्यादा गिर चुकी थी भरत नाट्य-शास्त्रमें अरभिनयको बहुत महिमापूर्ण बताया गया है और इस शास्त्रको 'ताटअवेद' की महत्त्वपूर्ण आख्या दी गई है परन्तु फिर भी शास्त्रकार 'भरतपत्रों' की हीन सामाजिक मर्यादाक प्रति सचेत है ज्ञास्त्रमें इसका कारण भी बताया

[१२१

गया हैँ (३६-३०-४७) एक बार भरतपूत्रों (नटों) ने ऋषियोंक अंगहरके अभिनयर्मे अग्राह्य, दुराचारपूण, ग्राम्यवमश्नवतक, निप्ठर और अगप्रश्नस्त' काव्य- की योजना की थी इससे ऋषि लोग कुद्ध हो गए और उन्होंने इनको भयंकर

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अभिज्ञाप दिया उस समय तक लोग द्विज थे। पर ऋषियोंने ज्ञाप दिया कि

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ध्यान नहीं दिया और इनकी मर्यादा हीन बनी पत्रों को अभिनय पवित्र कार्यसे इस पापका

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सच. रत जा सकते हू, परन्तु समाजका मनाभावनाका

बल कर -.. समझनेक लिये इन ग्रन्थोंकी अपेप्ता

साणिक डी विव्द्सनीय | अमाधशिक झार उण्दसनाव हू

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ताण्डव और लास्य

5

१२२]

लिये भगवान्‌ शंकरने प्रवृत्त किया, तो भरतमुनिने उत्तर दिया था कि नृत्त किसी अ्र्थकी अपेक्षा नहीं रखता यह शोभाके लिये प्रयुक्त होता है स्वभावतः ही प्रायः लोग इसे पसन्द करते हैँ और यह मंगलजनक है, इसीलिये शिवजीने इसे प्रवत्तित किया विवाह, जन्म, प्रमोद, अम्युदय आदि के उत्सवों के अवसर पर यह विनोदजनक है, इसलिये भी इसका प्रवत्तंन हुआ है ( नाट्यशास्त्र, चौंखंवा, ४-२६०-३२ ) इस वक्तव्य से जान पड़ता है कि थिवाह आदि के अवसरों पर नृत्त या ताण्डवका अभिनय होता था नाट्चझआासस्‍्त्रमें नृत्तके आविर्भावकी बड़ी मन्तोरंजक कहानी दी हुई है ब्रह्मा के अनुरोधपर नाना भूतगण-समावृत्त हिमालय के पृष्ठपर शिवतने संध्याकालमें नाचता आरम्भ किया ताण्डू नामक मुनिको शिवने उसी नाचकी विधि बताई थी किस प्रकार हाथ और पैरसे १०८ प्रकारके करण होते हैं, दो करण (अर्थात्‌ हाथ और पैरकी विशेष भंगियाँ ) मिलकर किस प्रकार नृत्तमातृका बनती है, फिर तीन करणोंसे कलापक, चारसे मण्डन और पाँच करणोंसे संघततक बनता है इनसे अधिक नौ तक करणों के मंयोगसे किस प्रकार अंगहार वनते है, इन बातोंकों विशद रूप से समझाया। अंगहार नृत्तक महत्त्वपूर्ण अंग हैं। ये वत्तीस प्रकारके बताए गए हैं। इन विभिन्‍न अंगहारोंके साथ चार रेचक हँ-पादरेचक, कटिरेचक और कंठरेचक जब शिव इन रेचकों और अंगहारोंके हारा अपना नृत्त दिखला रहे थे, उसी समय पाव॑ती आनन्दोल्लासमें सुकुमार भावसे नाच उठी। पार्वतीका बह नाच, नृत्त (या उद्धत नाच ) नहीं था, बल्कि नृत्य ( सुकूमार ताच ) था इसीको लास्यथ कहते हैं एक और अवसर पर दक्ष- यज्ञ विध्वंसके समय सन्ध्याकालकों जब शिव नृत्त कर रहे थे, उस समेय शिवके गण मुदझु, भेरी, पटह, भाण्ड, डिंडिस, गोमुख, पणव, दर्दुर आदि आतोद्य बाजे बज रहें थे, शिवने आनन्दोल्लासमें समस्त अज्जहारों के नाना भाँतिके प्रयोग्से लय और तालके अनुकूल नृत्य किया देव- देवियाँ और शिवर्ते गण इस अवसरपर चूके नहीं ) डमरू -बजाकर प्रमत्त भावसे नर्तमान शंकरकी विविध भंगियोंको श्रर्थात्‌ विविध अंगहारों की पिण्डीमूत बंधविशेषकों---पिण्डियोको--उन्होंने याद रखा ये पिण्डियाँ उन-उन देवताओोंके नामपर प्रसिद्ध हुई, जिन्होंने उन्हें देखा था तबसे किसी उत्सव और आमोदके अवसरपर इस मांगल्यजनक नृत्तका प्रयोग होता रहा है प्राचीन भारतीय रंगशालामें उन दिनों नृत्त या ताण्डव नृत््यका बड़ा प्रचलन था शभनेक प्राचीन मन्दिरों पर भिन्न-भिन्न करण और अंगहारों के चित्र उत्कीर्ण हूँ नाटब-

[१२३

दास्त्रके

सत्र

हाँ 3

चतुर्थ अध्यायमें विस्तृत रूप से इसके प्रयोगकी वात बताई गई है

७०

अभिनय

सबसे पहले ब्राह्मण लोग कुतप नामक वाद्यविन्यास विधिपूर्वक कर लेते थे; फिर भाण्ड वाद्यके वजानेवालोंक साथ नर्तंकी प्रवेश करती थी, उत्तकी अंजलिमें पृष्प होते थे एक विश्ेप प्रकारकी नृत्त्य-भंगीसे वह रंग-स्थलपर पृपष्पोपह्दार रखती थी फिर देवताओं को विशेष मंगीसे नमस्कार करके वह अभिनय आरम्भ करती थी जब वह गानेके साथ अभिनय करती थी, तव वाजा वजना बन्द रहता था और जब वह अंगहारका प्रयोग करने लगती थीं, तब वाच्य भी वजने लगते थे इस प्रकार गीत और नृत्वके पव्चात्‌ नतकी रंग्शालासे वाहर निकलती थी और फिर इसी विवानसे अन्याय न्तेकियाँ रंग्रभूमिमें पदार्पण करती थीं और वारी-बारीसे पिंडीवंधोंका अभिनय करती थी (ना. शा. ४, २६६९-७७)

प्राचीन साहित्यमें इस सनोहर नृत्य अभिनयके अनेक उल्लेख हैं। यहाँपर एकका उल्लेख किया जा रहा है, जो कालिदासकी सरस लेखनी से निकला है ! बह चित्र इतना भावव्यंजक और सरस है कि उसपर विद्येप दीका करना अनुचित जान पड़ता हैं मालविकास्विमितर नाटकर्में दो नृत्याचायोंमें अपनी कला-चातुरीके सम्बन्ध तनातनी होती है यह तथ पाया है कि अपनी अपनी शिप्याओंका अभिनय दोनों दिद्वाएँ और अपक्षपातिनी भगवती कौछिकी, दोनोंमें कौन श्रेप्ठ है, इस इस बातका निर्णय करें दोनों आचायें राजी हो नए मृदंग बज उठा प्रेक्षाभारनें दर्शकंगग यथ,स्थान बैठ गए भिन्नुणीकी अनुमति से रानीकी परिचारिका मालविकाके शिक्षक आचार्य गणदास बवनिकाके

१२४ |

: अनन्‍्तरालसे सुसज्जिता शिष्या (मालविका ) को रंगभूमिसें ले आए यह पहले ही स्थिर हो गया था कि चलित (छलित.? ) नृत्य--जिसमें अभिनेता वूसरेकी भूमिकामें उतरकर अपने ही मनोभाव व्यक्त करता है--के साथ होनेवाले अभिनयकों दिखाया जाएगा मालविकाने गान शुरू किया। मर्म यह था कि दुलंभ जनके प्रति प्रेमपरवशा प्रेसिकाका चित्त एक बार पीड़ा से भर उठता हैं, और फिर आश्यासे उल्लसित हो उठता है, बहुत दिनोंके बाद फिर उसी प्रियतमको देखकर उसीकी ओर वह आँखें बिछाए है। भाव सालविकाक सीधे हृदयसे निकले थे, कण्ठ उसका करुण था उसके अतुलनीय सौन्दर्य, अभिनयव्यंजित अंगसौष्ठव, नृत्यकी अभिराम भंगिमा और कंठके सथुर संगीतसे राजा और प्रेक्षकषगण मन्त्र-मुग्ध-्से हो रहे | अभिनयके बाद ही जब मालविका पर्देकी ओर जाने लगी, तो विदूषकरनें किसी बहाने उसे रोका वह ठिठककर खड़ी हो गई--उसका बायाँ हाथ कटिदेशपर विन्यस्त था, उसका कंकण कलाईपर सरक आया था, दाहिना हाथ शिथिल श्यामा लताके समान सीधा भूल पड़/ था, भुकी हुई दृष्टि पैरोंपर अ्ड़ी हुई थी, जहाँ पैरक अंगूठे फर्शपर बिछे हुए पुथ्पोंको धीरे-घीरे सरका रहे थे और कमनीय देहलता नृत्य-भंगीसे ईषदुन्नीत थी | मालविका ठीक उसी प्रकार खड़ी हुई थी, जिस सौष्ठव के साथ देह- विन्यास करके अभिनेत्रीको रंगभूसिसें खड़ा होना उचित था-- वा्म सन्धिस्तिसितवलयं न्‍्यस्य हस्तं नितस्बे कृत्वा श्यामाविटपिसदृश स्त्रस्तमुक्तं द्वितीयम्‌ पादांगृप्ठालुलितकू छुमे कुट्टिमें प्रतिताक्षें नृत्यादस्या: स्थितमतितरां कान्तमृज्वायताक्षम्‌ परित्राजिका कौशिकीने दाद दी--अभिनय बिल्कुल निर्दोष है बिना बोले भी अभिनयका भाव स्पष्ट ही प्रकाशित हुआ है, अंगविक्षेप बहुत सुन्दर और चात्री-पूर्ण हुआ है जिस-जिस रसका अभिनय हुआ है, उस-उस रसमें तन्मयता स्पष्ट लक्षित हुई है भाव चेष्टा सजीव होकर स्पब्ट हुई है, मालविकाने बलपूर्वक अन्य विषयोंसे हमारे चित्तको अभिनयकी ओर खीच लिया है +- अंगरल्तनहितवचने: सूचित: सम्यगर्थ:, पादन्‍्यासों लयमनुगठस्तन्मयत्व॑ रसेपू शाखायोनिमुर्दुरभिनयस्तद्विकस्पानुवृत्तौ , भावो भाव॑नुदति विषयाद्र।गबंध:स एवं इस इलोकमें कालिदासने उस युगक अभिनयका सजीव आवरशों

अंकित किया है

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अभिनयके चार अंग

यह समझना भूल है कि अभिनयमें केवल अंगोंकी विज्ञेप प्रकार की भंगिमाएँ ही प्रवात स्‍थान अधिकार करती थीं अभिनयके चारों अंगों अर्थात्‌ आंगिक, वाचिक, आहाये और सात्त्विक--पर समाच भावसे जोर दिया जाता था आंगिक अर्थात्‌ देह-सम्बन्धी अभिनय उन दिलों चरम उत्कर्षपपर था इसमें देह, मुख और चेष्टाके अभिनय शामिल थे सिर, हाथ, कटि, वक्ष, पात्व और पैर इन अंग्रोंके सैकड़ों प्रकारके अभिनय नसाट्यशास्त्र और अभिनयदर्पण अदि ग्रंथोंमे ग्रिनाए गए हैं नाव्यशास्त्रमें विस्तारपूर्वक बताया गया है कि किस अंग या उपांगके अभिनयका क्या विनियोग है, अर्थात्‌ वह किस अवसरपर अभिनीत हो सकता है फिर नाना - प्रकारके घूमकर नाची जानेवाली भंगिमाओ्रोंका भी विस्तारपूंक विवेचन किया गया है फिर वाचिक अर्थात्‌ वचनसंबन्धी अभिनयकों भरी उपेक्षणीय नहीं समझा जाता था। नाद्यश्ास्त्र में कहा गया है (१५-२) कि वचनका अभिनय बहुत सावध।्ीसे करना चाहिए क्योंकि यह नाट्यका शरीर है, शरीर और पोशाक अभिनय वाक्यार्थको ही व्यंजित करते है उपयुक्त स्थलोंपर उपयुक्त यति और काकु देकर वोलना, नाम आख्यात-निपात उपसर्ग-समास-तद्धित-विभक्ति संधि आदिको ठीक-ठीक प्रकट करना, छंदोंको उचित ढंगसे पढ़ सकना, झब्दोंकी प्रत्येक स्वर और व्यंजनको उपयुक्त रीतिसे उच्चारण कर सकना, इत्यादि बातें अभिनयका प्रवान अंग मानी जाती थीं। परन्तु यही सव कुछ नहीं था। केवल शारीरिक और वाचिक अभिनय भी अपूर्ण माने जाते थे अ्हार्य था वस्त्रा- लंकारोंकी उपयुक्त रचना भी अभिनयका ही अंग समझी जाती थी। यह चार प्रकारकी होती थी--पुस्त, अलंकार, अंगरचना और संजीव नाटककें स्टेजको

आजके समान रियलिस्टिक बनानेका ऐसा पायलपन तो नहीं घा, परन्तु पहाड़, रथ, विमान आदिको कुछ यथार्थताका रूप देने के लिये तीन प्रकारके पुस्त व्यवहृत होते थे वे या तो वाँस या सरकडेसे बने होते थे, जिनपर कपड़ा या चमड़ा चढ़ा दिया जाता था, या फिर यंत्रादिकी सहायतासे फर्जी वना लिए जाते थे, या फिर अभिनेता इस बातकी चेप्टा करता था, जिससे उन वस्तुओंका बोध प्रेक्षकको हो जाता था (२३, ५-७) इन्हें क्रमशः संघिम, व्याजिम और चेप्टिम पुस्त कहते थे अलंकारमें विविध प्रकारके माल्य, आभरण, वस्त्र आदिकी गणना होती थी अंग-रचनामें पुरुषों और स्त्रियोंके वबहुविघ वेष-विन्यास शामिल थे। प्राणियोंके प्रवेशको संजीव कहते थे (२३-१५२) परच्तु इन तीनों प्रकारके अ्भिनयोंसे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण अभिनय सात्तविक था भिन्न- भिन्न रसों और भावों के अभिनयमें अभिनेता या अभिनेत्रीकी वास्तविक परीक्षा होती थी नाट्यशास्त्रने जोर देकर कहा है कि सत्त्वमें ही नाद्य प्रतिष्ठित है (२४-१) सत्त्वकी अधिकता, समानता और न्यूनतासे नाटक श्रेष्ठ, मध्यम या निद्ृप्ट हो जाता है (२४-२) यह सत्त्व अव्यक्त रूप है, भाव और रसके आश्रयपर है, इसके अभिनयमें रोमांच, अश्रु आदि का यथास्थान और यथारस प्रयोग अभीष्ट

है

नाठक के आरम्भ में

जब कोई नाटक खेला जानेवाला होता था तो उसके आरम्भम एक बहुत आडसम्वरपूर्ण विधिका अनुप्ठान किया जाता था इसे पूर्वरंग या नाटक आरम्भ होनेके पहलेकी क्रिया कहते थे पहले नगाड़ा बजाकर नाटक आरम्भ होनेकी सूचना दी जाती थी, फिर गायक और वादक लोग रंगभूमिमें आकर ग्रथास्थान बैठ जाते थे, कोरस आरारम्भ होता था, मृदंग, वेणु, वीणा आदि वाद्य नतेकोंके नूपु र-कंकारके साथ वज उठते थे और इन कार्योंके वाद नाटकका उत्थापान

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होता था। पण्डितों यहाँ तककी क्रियामें मतभेद है कि वे पर्देके पीछे होती थीं या बाहर पर चूँकि शुरूमें ही अवतरण नामक क्रियाका उल्लेख है, इससे जान पड़ता है कि ये पर्देके पीछे हो वास्तवमें रंगभूमिमें होते थे फिर सूत्रधारका प्रवेश होता थ।, उसके एक पार्ब्वमें भूज्ारमें जल लिए हुए एक भृज्भार- घर होता था और दूसरी ओर जजेर (ध्वजा) लिए हुए दूसरा जजर-धर। इन दोनों पारिपाश्विकों के साथ सूत्रधार पाँच पग आगे बढ़ आता था। उद्देश्य ब्रह्माकी पूजा होती थी यह याँच पग बढ़ना मामूली बढ़ना नहीं है, इसके लिए एक विशेष प्रकारकी अभिनय-भंगी होती थी फिर वह (सूत्रधार) भूज्भार से जल लेकर आचमन प्रोक्षण।दिसे पवित्र हो लेता था। वह एक विशेष ग्राडम्बर- पूर्ण अभिनय-भद्भीसे विध्तको जर्जर करनेवाले जरजर ( ध्वज ) को उत्तोलित करता था और भिन्न-भिन्न देवताओंको प्रणाम करता था। वह दाहिने पैरके अभिनयसे शिवकों और वाम पदके अभिनयसे विप्णुको नमस्कार करता था पहला पुरुषका और दूसरा स्त्रीका पद समका जाता था। एक नपूंसक पद भी होता था, जब कि दाहिने पैरको नाभि तक उत्क्षिप्त कर लिया जाता था। इस भड़ीसे वह ब्रह्म।को प्रशाम करता था फिर विधिपूर्वक चार प्रकारके पु०्पोंसे वह जजरकी पूजा करता था वह वाद्य-यन्त्रोंकी भी पूजा करता था और तब नानन्‍्दी पाठ होता था। वह सर्बदेवता और ब्राह्मरोंकोी नमस्कार करता था, देवताओंसे कल्याण॒की प्रार्थना करता थ।, राजाकी विजय-कामना प्रकट करता था, दर्शकोंकी ध्मंवृद्धि होनेकी शुभाकांक्षा प्रकट करता था, कवि (नाटकंकार) को यञ्ञ मिले और उसकी धर्मवृद्धि हो, ऐसी प्राथंना करता था, और अन्‍्तमें अपनी यह शुभ- कामना भी प्रकट करता था कि इस पूजासे समस्त देवता प्रसन्न हों प्रत्येक शुभाकांक्षकी समाप्तिपर पारिपाश्विक लोग ऐसा ही हो, (एवमस्तु) कहकर प्रतिवचन देते थे और नान्‍दी पाठ समाप्त होता था फिर शुप्कावक्ृप्टा विधिके बाद वह एक ऐसा इलोक पाठ करता था, जिसमें अ्वसरके अनुकूल बातें होती थीं, श्रर्थात्‌ वह या तो जिस देवताकी विशेष पूजाके अवसरपर नाटक खेला जा रहा था, उस देवताकी स्तृतिका इलोक होता था, या फिर जिस राजाके उत्सवपर अभिनय हो रहा है उसकी स्तुतिका या फिर वह ब्रह्माकी स्तुतिका पाठ करता - था। फिर जजंरके सम्मानके लिए भी वह एक इलोक पढ़ता था और फिर चारी नृत्य शुरू होता था। इसकी विस्तृत व्याख्या और विधि नाट्यशास्त्रके ग्यारहवें अध्याय यें दी हुई है | यह चारीका प्रयोग पाव॑तीकी प्रीतिके उद्देश्ससे किया जाताथा। क्योंकि पूर्वकालसें कभी शिवने इस विद्येष भंगीसे ही पार्वतीके साथ क्रीड़ा की थी इस सविलास अंगविचेष्टितरूप चारीके बाद महाचारीका विधान भी नाद्यशास्त्रमें दिया हुआ है इस समय सूत्रधार जर्जर या घ्वजाको

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पारिपाशिविकोंके हाथमें दे देता था फिर भूतगण॒की प्रीतिके लिए ताण्डव का भी विधान है फिर विदूषक आकर कुछ ऐसी ऊलजुलूल बातें करता था, जिससे सूत्रधारके चेहरेपर स्मित-हास्य छा जाता था और फिर प्ररोचना होती थी, जिसमें नाटक विपय-वस्तु अर्थात्‌ किसकी कौन-सी जीत या हारकी कहानी अभिनीत होनेवाली है, ये सब वालें बता दी जाती थीं, और अब वास्तविक नाटक शुरू होता था। शास्त्रमें ऊपरकी कही वालें विस्तारपूर्वंक कही गई हैँ परच्तु साथ ही यह भी कहा गया है कि इस क्रियाकों संक्षेपमें भी किया जा सकता है। और यदि इच्छा हो तो और भी विस्तारपूर्वक करनेका निर्देश देनेमें भी शास्त्र चूकता नहीं ऊपर बताई हुई क्रियाश्रोंक प्रयोगसे यह विश्वास किया जाता था कि अप्सराएँ, मन्धर्व, दैत्य, दानव, राक्षस, गुद्यक, यक्ष तथा अन्याय देवगण और रुद्रगण प्रसन्न होते हैं और नाटक निविघ्न समाप्त होता है नाट्यशास्त्रके वादके इसी विपयके लक्षणपग्रन्थोंमें बहु विधि इतनी विस्तारपूवेक नहीं कही गई है। दशरूपक, सा हित्यदर्षण आदियें तो वहुत संक्षेपर्में इसकी चर्चा भर कर दी गई है। इस बात से यह अनुमान होता है कि वादको इतने विस्तार और आडवम्ब रके साथ यह क्रिया नहीं होती होगी विश्वनाथके साहित्यदर्पणसे तो इतना स्पप्ट ही हो जाता है कि उनके जमाने सें इतनी विस्तृत क्रिया नहीं होती थी। जो हो. सन्‌ ईसवीके पहले और बहुत वादमें भी इस प्रकारकी विधि रही ज़रूर है

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७३ अभिनेताओंके विवाद रे

कभी-कभी अभिनेताओंमें अपनें-अपनें अभिनय कौशलकी उत्कृष्टताक

सम्वन्धर्में कलह उपस्थित हो जाता था साधारणतः यह विवाद दो श्रेणीके होते थे, शास्त्रीय और लौकिक | शास्त्रीय विवादका एक सरस उदाहरण कालि- दासके मालविकाग्तिमिन्रमें है। इसकी चर्चा हम अन्यत्न कर आए हैं इसमें से, भाव, अभिनयभंगिमा, मुद्राएं. चारिया आदि विचारणीय होती थीं कुछ

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एक ही पात्रद्वारा भ्रभिनीयमान विनोद और श्द्भार प्रधान वीथी,' हँंसानेवाला प्रहसन' आदि रूपक बहुत लोकप्रिय थे फिर बहुत तरहके उपरूपक भी थे, जिनमें नाटिकाका प्रचलत सबसे अधिक था। यह स्त्रीप्रधात चार अ्ंकका नाटक होता था और इसका कार्यक्षेत्र साधारणतः राजकीय अन्तःपुर तक ही सीमित थ।। प्रकरणिका सट्टक और बोटक इसी श्रेणीके हैं। गोष्ठीमें नौ दस पुरुष और पाँच या छः स्त्रियाँ अभिनय करती थी, हल्लीशमें एक पुरुष कई स्त्रियों के साथ नृत्य करता थ[। इसी प्रकारके और बहुत से छोटे-मोटे रूपकों का ग्रभिनय होता था पखरवर्ती ग्रन्थों में अठारह प्रकार के उपरूपक गिनाए गए हैं। उपर्युक्त उपझ्पकों के सिवा नाट्यरास है, प्रख्यान है, उल्लास्य है, काव्य है, प्रेखंशा है, रासक है, संलापक है, श्रीगद्वित है, शिल्पक है, विलासिका है, दुर्मल्लिका है, भांरिका है। अचरजकी बात यह है कि इतने विशाल संस्कृत-साहित्यमें इत उपरूपकोंमेसे अधिकांशको उदाहरणस्वरूप समभनेके लिए भी मुश्किलसे एकाथ पुस्तक मिल पाती है। कभी-कभी तो एक भी नहीं मिलती सम्भवतः ये लोकनाट्य रूप में ही जीते हों। उदाहरण- के लिये समवकर नामक रूपक --जिसमें देवासुर-संघर्ष ही बीज होता है; नायक प्रख्यात और उदात्त चरितका (असुर ? ) होता है और जिसमें तीन प्रकार के प्रेम, तीन प्रकारके कपट तथा तीन प्रकारके विद्रव या उत्तेजवामूलक घटनाएँ हुआ करती हैं; जिसमें बारह या अधिक अभिनेता हो सकते थे तथा जो लगभग सात सवा सात घण्ठेमें खेला जाता था--इसका पुराना नमूना नहीं मिलता

* बत्सराजका समुद्र-मंथन (१९वीं शताब्दी) बहुत बादकी रचना है और भासके

(धंचविश' नाटकर्के समवकार होनेमें सन्देह प्रकट किया गया है। सात-सात घंटे तक चलनेवाले ऐसे पौराणिक नाटक को लोक-तादूय समझता ही उचित जान पड़ता है परवर्ती कालमें जब रंगमंच बहुत उन्नत हो गया होगा और कालिदास जैसे कल्पकविके नाटक उपलब्ध होने लगे होंगे तो ये लम्बे नाटक उपरले स्तरके समाजमें उपेक्षित हो गए होंगे साधारण जनता में ये फिर भी प्रचलित रहे होंगे और आजकलकी रामलीलासे पुराने लौकिक रूपका थोड़ा अन्दाजा लगाया जा सकता है इसी प्रकार ईहामृग, डिस आदिके भी पुराने नमूने नही प्राप्त होते बारहवीं शताब्दी के कवि वत्सराजने नाट्य लक्षणोंका अ्रध्ययन करके इसके तमूने बनाये थे उनके समवकारकी चर्चा ऊपर हो चुकी है'। उनका रुविमणीहरण' ईहामृगका उदाहरण है परन्तु पुराना उदाहरण नही मिलता-। - स्पष्ट है कि शास्त्रकारने केवल पुस्तकी विद्याका ही विश्लेषण नहीं किया है बल्कि उन दिनों जितने प्रकारके नाटक और अभिनय प्रचलित थे सबका विश्लेषण किया है परवर्ती शास्त्रकारोंकी दृष्टि इतनी उदार और व्यापक

[ १३१

ज्श

ऋतुसम्बन्धी उत्सव

प्राचीन काव्यों, नाटकों, आल्यायिकाओं और कथाओ्रोसे जान पड़ता है

हो। वसन्‍्तोत्सवर्के विषयमें यह वात तो अधिक निश्चय के साथ कही जा सकती है कालिदास-जैसे कविने अपने किसी ग्रन्थमें वसन्तका और उसके उत्सवका वर्संन करनेका मामूली मौका भी नहीं छोड़ा मेघदूत वर्षाका काव्य है, पर यक्षप्रियार्के उद्यानका वर्णंत करते समय प्रियाके चरणोंके आधघातसे फूट उठने- वाल अशोक और मृखकी मदिरासे सिचकर खिल उठनेवालें वकुलके बहाने कविने वहाँ भी वसन्तोत्सवको याद किया है आगे चलकर हम देखेंगे कि यह अशोक और बकूलका दोहद उत्पन्न करना वसन्‍्तोत्सवका एक प्रधान अंग था

वसन्तके कई उत्सव हैं इनमें सुवन्सतक और मदनोत्सवका वर्णन सबसे ज्यादा आता है किसी-किसी पणष्डितने दोनों को एक उत्सव मानकर गलती की है। वात्ल्यायानके कामसूचमें यक्षरात्रि, कौमुदीजागर और सुव्सन्तक- ये तीनों उत्सव समस्याक्रीड़ाके प्रसंग दिए हुए हैं श्र्थात्‌ इन उत्सवोंको नागरिक लोग एकत्र होकर मनाते थे एक बहुत बादके आचाये यशोधरने सुवसन्तकका अर्थ मदनोत्सव बताया है उसीपरतसे यह अ्रम पण्डितों में फैल गया है हम आगे चलकर देखेंगे कि सुवसत्र॒क वस्तुत; अलग उत्सव था और उसके ननानेंकी विधि भी दूसरे प्रकारकी थी कामसुत्रमें होलिका नामक एक अन्य उत्सवका उल्लेख है जो आधुनिक होलीके रूपमें अब भी जीवित है

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प्राचीन ग्रन्थोंस जान पड़ता है कि मदतोत्सव फागुन्से लेकर चैत्रके महीते तक मनाया जाता था इसके दो रूप होते थे, एक सार्वजनिक धूमघामका और दूसरा अन्तःपुरिकाओंके परस्पर विनोद और कामदेवके पूजनका इसके

प्रथम रूपका वरुन सुप्रसिद्ध सम्राट हर्षदेवकी रत्नावलीमें इतने मगोहर और

सजीव ढंगसे अंकित है कि उस उत्सवका अन्दाजा लगानेके लिये उससे अधिक उपयोगी और कोई वर्णन नहीं हो सकता इस सार्वजनिक धूमधामके अतिरिक्त इसका एक शान्त सहज रूप और भी था उसका थोड़ा-सा आभास पाठकोंको भवभूति-जैसे कविकी शक्तिशाली लेखनीकी सहायता से दिया जायेगा

७६ संगीत

संगीतका प्रचार इस देशमें बहुत पुराने जमानेसे है | वैदिक कालमें ही सात स्वरोंका विभाजन किया गया था, यद्यपि उनके नाम ठीक वही नहीं -थे जो परवर्ती कालमें प्रचलित हो गए वैदिक साहित्यमें दुंदुभि, भूमिदृदु्भि, आधघाति आदि आतोद्य बाजे बन चुके थे और वीणा, काण्डवीणा आदि वीखा- जातीय तंत्री यंत्र भी वन गए थे 4 रामायण और महाभारतम अनेक वाद्ययंत्रोंके नाम आते है और सप्त स्व॒रों और बाईस श्रुतियोंकी चर्चा श्राती है भरतके नाट्य-शास्त्रमें इसकी शास्त्रीय विवेचना मिलती है जो बहुत संक्षिप्त भी है और अस्पष्ट भी इस ग्रन्थ में स्वर, श्रुति, मूछ॑ता आदिकी व्याख्या है। रागका उल्लेख इस ग्रंथर्में नहीं पाया जाता पर इसके ही समान अ्रथेमिं जाति' का व्यवहार किया गया है संगीतकी जातियाँ अट्ठारह बताई गई हैं सतंग नामक आचाय॑ैका ब॒हद्देशी ग्रंथ पथम वार रागका उल्लेख करता है। म्रंथके नामसे ही स्पष्ट है कि मतंगके सामने देशी 'राग' पर्याप्त थे और वे सम्भवतः शास्त्रीय, संगीत जाति से अलग ढंगके थे मतंग संभवतः सन्‌ ईसवीकी चौथी-पाँचवीं शताब्दीमें हुए थे। उन्होंने देशी संगीतकी परिभाषा इस प्रकार की है --स्त्रियाँ,

है

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बालक, गोपाल और क्षितिपाल अपनी इच्छासे जिन गानोंका गायन करते हैं--- अर्थात्‌ किसी प्रकार की शास्त्रीय शिक्षा के बिना ही झ्ानन्दोल्लासवश गाते हैं--े. 'देशी' कहलाते हैं--

अवलाबालगोपाले: क्षितिपालैनिजेच्छया

गीयते सानुरागेणा स्वदेशे देशिरुच्यते |

'राग! का परिचय कालिदासको भी था क्योंकि तवास्मि भीत-

रागेण' में राग शब्दका व्यवहार लगभग प्राधुनिक अर्थमें ही है। कुछ लोग , तो इस इलोकके 'सारंगेण' पदका रिलिष्ट श्र्थ करके यह भी बताना चाहते है. किसारंग रागका भी उन्हें परिचय था यदि यह व्याख्या ठीक हो तो कालिदासके युगसे उन प्रमुख रागोंका अ्रस्तित्व स्वीकार किया जा सकता है जो बाद में बहुत प्रमुख होकर आए हैं पर इस व्याख्याक माननेमें कुछ ऐतिहासिक अड़चनें बताई जाती हैं १३ वीं शताव्दी के शा ज्ु देवने इन्हें अधुना प्रसिद्ध कहा है।

मदनोत्सव

सम्राट श्री हष॑ देवके विवरणसे जान पड़ता है कि दोपहरके बाद सारा नगर मदनोत्सवर्के दिन पुरवासियोंकी करतल-ध्वनि, मधुर संगीत और भुदंगके मधुर घोषसे मुखरित हो उठता है, नगरके लोग (पौर जन ) मदमत्त हो जाते थे राजा अपने ऊँचे प्रासादकी सबसे ऊपरवाली चन्द्रशालामें बैठकर नगरवासियोंके आमोद-प्रमोदको देखा करते थे चंगरकी कामिनियाँ मधुपान करके ऐसी मतवाली हो जाती थीं कि सामने जो कोई पुरुष पड़ जाता उसपर पिचकारी (श्रृज्धक) के जलकी बौछार करने लगती थीं बड़े-बड़े रास्तोंके चौराहे मर्दल नामक बाजेंके गम्भीर घोष और चच्चरीकी ध्वनिसे शब्दायमान हो उठते थे ढेर-का ढेर सुगन्धित अबीर दसों दिश्ञाओंमें इतना उड़ता रहता था कि दिश्ाएँ रंगीन हो उठती थीं। जब नगरवासियोंका आमोद पूरे चढ़,वपर ञ्रा जाता तो नगरीके

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सारे राजपथ केशरमिश्वित अबीरसे इस प्रकार भर उठते थे मानों उसकी छाया पड़ रही हो लोगों के शरीर पर झोभायमाद अलंकार और सिरपर पहने हुए अशोकके लाल फूल, इस लाल-पीले सौन्दर्यको और भी अधिक बढ़ा दते थे ऐसा जान पड़ता था कि नगरीके सभी लोग सूनहरे रंगमें इुंदो दिए गए हैँ कीरण: पिष्टातकौधै: कृतिदिवसमुज : कुंकुमक्षोद्यौरे: हेमालंकारभाभिभ रनसितशिखेः शेखरे: कैकिरातै : ऐपा वेपाशिलक्ष्यस्वभवनविजिताशेषवित्तेशकोषा कौशाम्दी शातक्‌सद्रवलच्चितजनेतैकपीता विभाति (रत्ना०--१-११)। राजकीय प्रासाद तथा अन्य समृद्धिशाली भवनोंके सामनेवाले आँगनमें निरन्तर फव्वारा छूटा करता था, जिससे अपनी-अपनी पिचकारीमें जल भरनेकी होड़-सी मची रहती थी इस स्थान पर पौरयुवतियोंके वरावर आते रहतेंसे उतकी माँगके सिन्दूर और गालके अबीर भरते रहते थे, सारा आँगन लाल कोचड़से भर जाता था और फरशे सिनन्‍्दूरमय हो उठता था--- धारायंत्रविमुक्तसन्ततपय:पूरप्लुते. सर्वेतः सच्चा: सास््रविमदेकरदंमकृतकोड़े क्षणं प्रांगरो उद्दामग्रमदाकपोलनिपतत्‌सिन्दूररागारुणे: सैन्दूरीजकियते जनेन चरणान्यास: पुरः कुट्टिमम्‌ | (रत्नावली, १-१२) उस दिन वेश्याप्रोंके मुहल्लेमें सबसे अधिक हुड़दंग दिख.ई देता था रसिक नागरिक पिचकारियोंमें सुगन्धित जल भरकर वेश्याओंके कोमले शरीरपर फेंका करते थे और वे सीत्कार करके सिहर उठती थीं वहाँ इतना अबीर उड़ता था कि सारा म्‌ हल्ला अन्धकारमय हो जाया करता था अन्त:पुरकी रसिका परिचारिकाएँ हाथमें आम्रन्मंजरी लिए हुए हिपदी- खंडका गान करतीं, नृत्य करने लगती थीं। इस दित इनका आमोद मर्णदाकी सीमा पार कर जाता था ! दे मदपानसे मत्त हो उठती थीं। नाचते-ताचते सनके केद्रापाश शिथिल हो जाते थे, कबरी (जूड़ा) को बाँधनेवाली मालती- साला खिसककर जाने कहाँ गायब हो जाती थी, पैरक नूपुर कटकन-सटकतक वेगको सेमाल सकनेके कारण दुगूने जोरसे ऋनभनाते रहते थे--नगरीके भीतर और बाहर सर्वत्र आमोद और उल्लासकी प्रचंड आँघी वह जाती धी--- स्त्रस्तः स्त्रग्दामशोभां त्यजति विरचितान्याकूल: केशपाझ:ः क्षीवाया नूपूरो हिगू णतरमिमो ऋन्‍दतः पादलग्तों व्यस्त: कम्पानुबंध:दनवरतमुरो हन्ति हारोइयमस्था:

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ऋीडन्त्या: पीड़येव र्तनभमरविनमन्‌मध्यमंग्रानपेक्षम्‌ ॥। मदनोत्सवर्के सार्वजनिक उत्सवका एक अपेक्षाकृत अधिक झान्त-स्निग्ध चित्र भवभूतिक मालतीन्माधव नामक प्रकरणमें पाया जाता है उत्सवर्के दिन नवदनोद्यानमें, जो विद्येष रूपसे इसी उत्सवका उद्यान होता था और जिसमें

ब्ल्ल्ल्ल्क्र्ञतः उ्फिझिदा पक स्त्री-पर्ष एकत्र कर आर्ट, आर ब्लड कामदवका मसान्दर हुआ करता था, नगरक स्त्रा-पुदष एकत्र हात आर भगवान्‌ >

2-63. ्े लोग अपनी इच्छके अनतार फल चनते कन्दपका पूदा करत | वहां सब लाग अपना इच्छाक अचुसार फूल चुनदत, अमल एज कमर का अली अदीर "८ कक्तमसे ०० बजट ४६. अल गीद कल" कलम विनोद माला बनात, अदार कुकुझस क्राड़ा करत आर नृत्यन्याद आदस मनाविनाद

किया जा अब आक, झेडजज हर प्रतिग्यत परिवारकी 4 कन्याएँ नल ०४० आती ््िज कया करत इस मान्दर प्रात्गद्त पारवारका कृन्याए भा आता आर

प्ज्ा 5००-परप सका... / 4० पलक 2०४3 वबरकी घना क्या कक... आदी ०० मदन ददता का पृरक्षा करके सनाभमिलाण्त दरका प्रथना किया करता था

5 ०. 2 ली 2 और सायंकाल 7 अवाघ कह लागाका भाड़ द्रद-काल से हा भूख हा जाता आर सादकाल तक अवाधघ चलता

था।

ब-्टट्र५ ्ल्््द्द्रीपए नन्‍तचलडिल यो 25६० जन जाकर कं+ मनन. भरिवसकी कन्या रहता था मालता-नाथद मे वारुत मठचाद्यानम ऋमात्य भूएवरुका कनन्‍्य

झालतोी भी पूजनक लिये और उत्सव मनाने के लिये गई थी सचस्त पुरुषोस

लिज कक «50 हम एक विभझाल -#-2 व. पाठपर था डा उसा पर सराक्षत एक दाल हाथाका पाठयर बछठकर वह आई था आर उस रः्‌ हलक “जी 5०-..५“ किक 5० मल ऐ.. 8०५.

हि. अजीब 23 +म मदनोद्य बंदकर लट गह था। मालता सालयासमत भद

> इससे जान पडता है इस मेलेमें कंवल साधारण नागरिक ही नहीं थी इससे जान पड़ता है कि इस मेलेगें कंबल साधारण नागरिक ही नहीं

शक अल, आअत थ, सम्श्न,न्तवभाया कन्याए भा घर फिर सकती थी

वर्णंनों के पढ़नेसे पाठकों के मनमें इसके पररपर

5020 आय त्् हम पहले दर्रानमें पे >ऊल्तन डर लोग लाल वध अपन (दराघ हाच का गका हवा सकता हू हल दरानम नगरक लाग नगरम हा साथ-

कालमदनत्त हो उठते थे पर दूसरे दर्रानसे जान पड़ता है कि वे सवेरेसे लेकर शाम तक मदतोच्य।नके नेलेमें जाबा करते थे परन्तु असलमें यह विरोध नहीं है दर्तुतः मदनोत्सव कई दिन तक ननाया जाता था। समूचा वसनन्‍्त ऋतु ही उत्सवोसे भरा होता था। पुराण ब्रन्योंके देखनेसे जान पड़ता है कि मदनोत्सव चैत्र शुक्ल हादशी को चूल् होता था उस दिन लोग व्रत रखते थे। अशोक वृक्षक्के नीचे

मिटठीका द्र्ट्द््द्द््ल अन्दर प्न किया जाता था डक दिए जाते गरन्‍ मट्टाका कलभन स्वापन किया जाता था उसमे सफद चादल सर दए जात [|

हक हज डु के विद्ेंय थ। दादा अनक्तारक फल ऋर इस दममय रूपस पजापहारका काम करता था

वलबझाको सफ़ेद दस्त्रसे ढक दिया जादा था और च्वेत चन्दन छिड़का जाता था |

निकलती पर . (क कलचझाक ऊपर एक ताञ्पतच्र रखा दाता या ओर उसके ऊपर कदली दल विछाकर 2 की... रे आज कर दी दे की, 2 कला शक की घपसे कामदेव और रतिकी प्रतिमा दंदाई जाता था। चाना भनांतक गघ- हे और सृत्य-वाधसे कामदेवको प्रदत्त करने का प्रवत्व किया जाता था (मत्स्यपुराण ०... अर्धचात ब्द ०. # ४. कथा छः ) इसके दूसर दिन अर्थात चत्र घुक्ल त्रयोदशीको भी मदनकोी पजा हो होती आप सम्मिलित ४2.00 ७० स्तति दी 4. थी 2. चतंर्दज्षीकी इज हादा था ऋर साभ्मालतद चादतस स्तुति का जाता था। अन्न शुच्ल चतुदश्ञाक

€्

और परिमाके दिन [74

रादका कल पा हू नद्दा हांता था, नाना प्रकारक अच्छील गा भी गाए जाठ <

त्सव माया जाता था सम्मवतः बत्रयोदर्यी-

१३६ ]

वाला उत्सव ही सदनोद्यानका उत्सव है और पूर्िमावाला रत्नावलीमें वर्शित मदनोत्सव

जप

अशोक में दोहद

इस उत्सवका सबसे अधिक झआकषं॑क और सरस रूप अन्तःपुरके अशोक' वक्षतले होनेवाली मदन-पूजा है महाराज भोजदेवके सरस्वती कंठाभरखणमें स्पष्ट ही लिखा है कि यह उत्सव त्रयोदशी के दिन होता था, उस दिन कु सुम्भ रंगकी कंचुकी मात्र धारण करनेवाली तरुखियाँ छक कर उत्सव मनाया करती थी महाकवि कालिदासक मालविकाग्निमित्रसे और श्रीहदेवकी रत्नावलीसे इसे उत्सवकी एक झलक मिल जाती है मालविका्निमित्रसे जान पड़ता है कि उस दिन मदनदेव की पूजाके पश्चात्‌ अशोकमें दोहद उत्पन्न किया जाता था यह दोहद क्रिया इस प्रकार होती थी--कोई सुन्दरी सब प्रकारके आभरण पहन- कर पैरोंमें महावार लगाकर और नूपुर धारणकर वायें चररसे अशोक वृक्षपर आधात करती थी इस चरणाघातकी विलक्षण महिमा थी अशोक वृक्ष नीचेसे ऊपर तक पृष्प स्तवकों (गुच्छों) से भर जाता था। साधारणतः रानी ही यह कार्य करती थीं, परच्तु मालविकाग्निमित्रमें वशित घटसाके दिन उनके पैरमें चोट गईथी इसलिये अपनी परिचारिकाओंमें सबसे अधिक सुन्दरी मालविकाको ही उन्होंने इस कार्यके लिए नियुक्त किया था। मालविकाकी एक सखी बकुलावलिकाने उसे महावर और नूपुर पहना दिए मालविका अशोक वृक्षके पास गई, उसके पल्‍्लवोंके एक गुच्छेको हाथसे पकड़ा, फिर दाहिनी ओर जरा भुकी और वबायें पै रको धीरेसे उठाकर अशोक वृक्षपर एक मृदु आघात किया। नूपुर जरा-सा क्ुनभुना गया और यह आश्चर्य जनक सरस कृत्य समाप्त हुआ। राजा इस उत्सवमें सम्मिलित नहीं हुए थे, बाद में संयोगवश उपस्थित हुए थे। रानी की अनुपस्थिति ही शायद उनकी अनुपस्थितिका कारण थी

[ १३७

पर रत्नावलीवाले वर्णनमें रानीने ही प्रध/न हिंस्सा लिया था, वहाँ राजा और विदूषक उपस्थित थे और अन्‍्तःपुरकी अन्य परिचारिकाएँ भी मौजूद थीं। अपनी सबसे सुन्दर परिचारिका सागरिकाको राचीने जान-बूझकर वहंंसे हटा दिया था अशोक वृक्षके नीचे सुन्दर स्फटिक-विनिभित आसनपर रानीने राजाको बैठाया, पास ही दूसरे आसनपर, वस॒नन्‍्तक नामक विदूषक भी बैठ गया काच्चनमाला नामक प्रधान परिचारिकाने रानीके सुन्दर कोमल हाथों में अबीर कंकुम चन्दन आर पृष्प-संभार दिए। रानी ने पहले मदनदेवीकी पूजा की और फिर पुष्पांजलि पतिक चरणोंपर बिखेर दी ब्राह्मण वसन्तकको यथ,रीति दक्षिणा दी गई। यह सब कार्य सायंकालके आसपास हुए क्योंकि पूजा विधिक समाप्त होते ही बैतालिकोंने सन्ध्याकालीन स्तुति पाठ की और राजाने पूर्वकी ओर देखा कि कुंकुम और अबीरमें लिपटे हुए चन्द्रदेव प्रतची दिशाको लाल बनाकर उदय-मंचपर आसीन हुए। इस दिन पूरिमा थी

श्रीं भोजदेवके सरस्वती-कंठाभरणसे यह जान पड़ता है कि यह किसी निश्चित तिथिका उत्सव नहीं था। जिस किसी दिन इसका अनुष्ठान हो सकता था। इस उत्सवका विशेष नाम अशोकोत्तं सिका थ। (पृ० ५७४ )

शारदातनयके भावप्रकाशरमम वसनन्‍्तर्क निम्नलिखित उत्सवों का उत्लेख है (पृ० १३७)--अरष्टमी-चन्द्र, शक्तार्चा या इन्द्रूजन, वसन्‍्त या सुवसन्तक, मदनोत्सव, बकुल और अश्ोकके व॒क्षोंके पास विहार और झाल्मली मूल-खेलन या एकशाल्मली-विनोद इसके अतिरिक्‍त निदाघ कालके कई विनोद भी वसन्‍्त में सनाए जा सकते होंगे क्योंकि शारदातनयमनें निदाघ (प्रीष्मके) उत्सवोंक पहले यह लिख दिया है कि ये प्राय: ग्रीष्म ऋतु के है. अर्थात्‌ अन्य ऋतु में भी इनका निषेध नहीं है कामसूत्रकी जयमंगला टीकासे कई विनोदोंका वसन्‍्तमें मनाया जाना निश्चित है निदाघमें प्रायः मनाए जानेवाले उत्सवोंके नाम ये हँ--उद्यालयात्रा, सलिल-क्रीड़ा (जल-कीड़ा) पृष्पावचयिका (फूल चुनना ), नवा म्रख|दनिका (नए आमका खाना ) और आम और माधवी लताका विवाह। इनमें प्रायः सभी वसन्‍्तके वर्ण नके सिलसिले में प्र,चीन ग्रन्थोंमें वरित हँँ। जलक्रीड़ा और तये आमका खाना भी वसन्‍्तके अन्तिम दिनोमें असम्भव

नही है

श्रेद ]

9६

सुवसन्तक

सरस्वतीकंठाभरणके अनुसार सुवसन्तक वसन्‍्तावतारक दिनको कहते हूँ। अर्थात्‌ जिस दिन प्रथम बार वसन्‍्त पृथ्वीपर उतरता है इस तरह आज- कलके हिसाबसे यह दिन वसन्तपंचमीको पड़ना चाहिए | मात्स्यसक्त और हरिभक्तिविलास आदि ग्रन्थोंके अनुसार इसी दिन प्रथम बसन्तका प्रार्दुभाव होता है इसी दिन मदनकी पहली पूजा विहित है इसी दिन उस युगकी विलासिनियाँ कंठमें दुष्प्राप्प नव आम्रमंजरी धारण करके ग्रामको जगमग कर देती थीं: छणपिद्ठधूसरत्थरिंस महुमअतम्बच्छि कुबलआहरणो कंठकश्नचूश्रमंजरि पूत्ति तृुए मंडियो गामों --सरस्वती कठाभरण, पू०- ५७५ और कालिदासके ऋतुसंहारसे स्पष्ट है कि पुराने गर्म कपड़ों कोफेंककर . कोई लाक्षारससे या कुंकुमके रंगसे रंजित और सुगन्धित कालागुरुसे सुवासित . हल्की लाल साड़ियाँ पहनती थीं, कोई कृसुम्भी दुकूल धारण करती थीं और कोई- कोई कीनोंमें नवीन कर््सिकारके फूल, नील अलकों (केंशों) में लाल अशोक के फूल और वक्षः:स्थलपर उत्फुल्ल नव-मल्लिकाकी माला धारण करती थीं -गुरूणि वासांसि विहाय तूर्ण तनूनि लाक्षारसरंजितामि सुगन्धिकालागुरुधूपितानि धत्तेडड्भना काममदालसाज्भी ॥१३॥ कुसुम्भरागारुणितैर्दुकूलैनितम्वबिवानि विलासिनीनाम्‌ रकतांशुकः कुंकुमरागगौरैरल क्रियन्ते सतनमप्डलानि ॥| १४ कर्णेषु योग्यं नवकर्शणिकारं चलेषु नीलेष्वलकेप्वशोक:ः पुष्पं फूल्ल नवमल्लिकाया: प्रयाति कान्ति प्रमदाजनस्य ॥१६॥।

[ १३६

द्०

उद्यान यात्रा

उन दिनों वसनन्‍्त ऋतुकी उद्यानयात्रा और वन-यात्राएँ काफी मजेदार होती थीं। कामसूत्र (१० ५३ ) से स्पष्ट है कि निश्चित दिनको दोपहरके पूर्व ही नागरिक गण सजधज कर तैयार हो जाते थे घोड़ोंपर चढ़करके किसी दूर स्थित उद्यान या वतकी ओर-जो एक दिन में ही लौट आने योग्य दूरीपर होता था-जाया करते थे कभी-कभी इनके साथ गणिकाएँ भी होती थीं और कभी-कभी अन्तः:पुरकी गृहदेवियाँ होती थीं इन उद्यान-यात्राओरंमें कुब्कुट (मुर्गे ),लाव बटेरों आदि और मे अर्थात्‌ भेड़ोंकी लड़ाइयां हुआ करती थीं ये युद्ध काफी उत्तेजक होते थे और लड़नेवाले पशु-पक्षी लह॒लुहान हो जाते थे इनकी नृशंसता देखकर ही शायद सम्राट अशोकने अपने शिलालेखों में इतकी मनाही का फर्मान जारी किया था तो इन उद्यानयात्राओं “या पिकनिक-पाट्योंमें हिदोल-लीला, समस्या-पूर्ति, आख्यायिका, विदुमती, आदि प्रेहेलिकाओं के खेल होते थे वसनन्‍्तकालीन वनविहारमें कई उल्लेख योग्य खेल यहाँ दिए जा रहे हैं क्रीड़ैकशाल्मली या शाल्मली-मूल-खेलन नामका विनोद कामसूत्र, भावप्रकाश और सरस्वतीकंठाभरण आदि ग्रन्थोंमें दिया हुआ है ठीक यह किस तरहका होता था, कुछ समझ में नहीं आता पर फलोंसे लदे किसी एक ही सेमरके पेड़ तले श्रांखमिचौंनी खेलनेके रूपमें यह रहा होगा सेमरका पेड़ ही क्यों चुना जाता था, यह समन में नहीं आता शायद उन दिलों वसन्तमें लाल कपड़े पहने जाते थे और यह कुसुम- निर्भर (लाल फूलोंसे लदा ) पेड़ लूका-चोरी खेलनेका सर्वोत्तम साधन रहा हो ! आजकल यह किसी प्रदेशों किसी रूपमे जी रहा है, कि नहीं, नहीं मालूम यहाँ यह कह रखना उचित है कि कामसूत्रकी जयमंगला टीकाके अनुसार इस विनोदका प्रचलन विदर्भ या वरार प्रान्त में अधिक था

प्र वसन्‍्त के श्रन्य उत्सव

उदकक्ष्वेडिका भी पुराना विनोद है। यह होलीके दिन अब भी निर- सन्‍्देह जी रहा है और ऊपर श्री हर्षदेवकी गवाहीसे हमने मदनोत्सवका जो वर्णान पढ़ा है उसपरसे निश्चित रूपसे अनुमान किया जा सकताहै कि आज वह अपने मल रूपमें ही जीता है। बाँसकी पिचकारियोंमें सुगन्धित जल भरकर युवकंगर अपने प्रियजनोंको सराबोर कर देते थे यही उदकक्ष्वेडिका कहा जाता था इसका उल्लेख कामसूत्रमें भी है और जयमंगला टीकाके अनुसार इस विनोदका प्रचलन मध्य देशमें ही श्रधिक था नागरिकाएँ जब श्रनंगदेव (कामदेव) की पजाकी लिये झ्रा म्र-मंजरी चुनकर कानोंमें पहत कर निकलती थीं तो उनके परस्पर हास-विलाससे यह कार्य अत्यन्त सरस हो उठता था। पुरुष कभी अलग और कभी स्त्रियोंके साथ इस चयन-कार्यकों करते थे इसे चूत-भंजिका कहते थे वसन्तकालमें फूल चुनना उन दिलोंके वागरिकाप्रींके लिये एक खासा मनोविनोद था ! इसे पृष्पावचायिका कहते थे भोजदेव तो कहते हैं कि सुन्दरियोंकी मुखमदिरासे सिचनेपर जब बकुल फूलता था तब उसीके फूल चुनकर यह उत्सव मनाया जाता था (सरस्वतीकंठाभरण॒पृ० १७६) सखियोंके उपालम्भ-वाक्यों और प्रिय-हृदयोंके उल्लसित विलाससे कुसुमावच्यका वह उत्सव बहुत स्फूरतिपद होता था, क्योंकि कवियोंने जी खोलकर इसका वर्णन किया हैं। वसन्‍्तकालमें जिस प्रकार प्रकृति अपने आपको निःशेष भावसे उदृबुद्ध कर देती है उसी प्रकार जब मन्‌ ष्य भी कर सके तो उत्सव सम्भव है प्रकृतिने अगर उल्लास प्रकट ही किया किन्तु मनुष्य जड़ीभूत बचा रहा तो उत्सव कहाँ हुआ ? दूसरी और यदि मनृप्यने अपना हृदय खोलकर फूले हुए वृक्षों भौर सदिरायित मलय-पवनका आनन्द उपभोग किया तो प्रकृतिकी जो भी अवस्था क्यों हो वह आनन्ददायक ही होगी मनुष्य ही प्रधान है, प्रकृतिका उत्सव

[ १४१

उसीकी अपेक्षामें होता है संस्कृत कविने इस महासत्यका अनुभव किया था भारतवर्पका चित्त जब स्वतन्त्र था, जब वह उल्लास और विलासका सामंजस्य कर सकता था उन दिलों मनृष्यकी इस प्रधानताका ठीक-ठीक अनुभव कर सका था। फूल तो वहुत खिलते है परल्तु पुप्प-पल्लवोंसे भरी हुई धरती असलमें वह है जहाँ मनृप्यके सुन्दर चरणोंका संसर्ग है, जहाँ उसका मनोश्रमर दिनरात मेंडराया करता है : सस्तु द्रुमा: किसलयोत्तरपत्रभारा: प्राप्ते वसन्तसमये कथमित्थमेव न्यासैर्नवद्युतिमतो: पदयोस्तवेयं भू:पुप्पिता सुतनु पल्‍्लवितेव भाँति | (सूक्तिसहस्र) एक और उत्सव हैं अभ्यूषखादनिका गेहूं, जौ आदि शूक घान्य, तथा चना मटर आदि शमी धान्यके कच्चे पौधेमें लगी फलियोंकों भूनकर अ्रम्यूष और होलाका नामक खाद्य बनाए जाते थे नागर लोग इन वस्तुओं को खाने के लिये वगरके बाहर धृमधामके साथ जाया करते थे आजकल थधहु उत्सव वसन्तपंचमीके दिन मनाया जाता है इस प्रकार वसन्‍्तकी हवा कुसुमित आमकी शाखत,श्रोंको कंपाती हुई आती थी, कोकिलकी हुकभरी कृक दसों दिशाश्रोंमं फैला देती थी श्रौर शीतकालीन . जड़िमासे मुक्त-मानव-चित्तको जवर्देस्ती हरण कर ले जाती थी : झ्राकम्पयन्‌ कुसुमिता: सहकारशाखा: हे विस्तारयन्‌ परभृतस्य वचांसिदिक्षु * वायुविवाति हृदयानि हरन्नराणखां थे नीहारपातविय्मात्‌ सुभगो वसन्‍्ते (ऋतुसंहार, ६-२२) उस समय पर्वेतमालाके अनुपम सौन्दर्यसे लोगोंका चित्त विमोहित ही गया होता था, उसके सानुदेशमें उन्‍्मत्त कोकिल कूक उठते थे, प्रान्तभाग विविध कुसुमसमूहसे लहक उठता था, शिलापट्ट सुगन्धित शिलाजतुकी सुगन्धिसे महक उठता था और राजा लोग सब देखकर आमोद-विह्नल हो उठते थे : तानामनोज्ञकुसुमद्रमभूषितान्तान्‌ हृष्टान्यपुष्टनिनदाकुलसानुद श्ञान्‌ शैलेयजालपरिणुद्धशिलातलौघ,न्‌ दुष्टा जनः क्षितिभृतों मुदमेति सर्व:

(ऋण सं० ६-२५)

१४२ ]

प्र दरबारी लोगों के मतोविनोद

' जो लोग राजसभाओंमें बैठते थे वे भिन्न-भिन्न मनोवृत्तियोंके होते थे जब तक राजा सिहासनपर बैठ रहते थे तब तक तो सारी सभा शात्त और संयत बनी रहती थी दरवारी लोग अपनी-अपनी स्थिति और पदवीके अनुसार यथास्थान बैठे रहते थे, परन्तु राजाके आनेके पहले और बीचमें उनके उठ जानेपर सब लोग अ्पती-अपनी रुचिके अनुसार मनो विनोदसें लग जाते थे कादस्बरीमें इन मनोविनोदोंका अ्च्छा-सा चित्र दिया हुआ है जब राजा सभा में उपस्थित नहीं थे उस समय कोई -कोई सामन्त पाशा खेलनेके लिये कोठे खींच रहे थे, कोई पाश्ञा फेंक रहे थे, कोई वीणा बजा रहे थे, कोई चित्रफलकपर राजाकी प्रतिमूर्ति अंकित कर रहे थे, कोई-कोई काव्यालापमें व्यस्त थे, कोई-कोई आपसमें हँसी दिल्‍लगीमें मशगूल थे, कुछ लोग विन्दुमती नामक काव्यात्मक खेलमें उलके हुए थे अर्थात्‌ बहुतसे विन्दुओंमें अकार, उकार आदि माच्राएँ लगा दी गई थीं और उसपरसे पूरे श्लोकका वे उद्धार कर रहे थे, कुछ लोग प्रहेलिका (पहेली) तामक काव्यभेदका रस ले रहे थे, कोई-कोई राजाके बनाए हुए इलोकोंकी चर्चा कर रहे थे, कोई-कोई विदग्ध रसिक ऐसे भी थे जो भरी सभामें वार-विलासिनियों के कण्ठ और कपोल आदियें तिलक रचना कर रहे थे, कुछ लोग उन रमणियोंके साथ ठठोली कर रहे थे, कुछ लोग बन्दीजनोंसे पुराने प्रतापी राजाओंका गुणगान सुन रहे थे और इस प्रकार अ्रपनी रुचि और सुविधाके अनुसार कालयापन कर रहे थे। राजसभाक बाहर राजाक विशाल प्रसादके एक पार्व॑में कही क्त्ते बंधे थे, कहीं कस्तूरी मृग विचरण कर रहे थे, कही कूबड़े, दौने, नपुसक, गूंगे, बहरे आदमी घूम रहे थे, कहीं किन्नरयुगल और वन-भानुप विहार कर रहे थे, कहीं सिंह व्याप्त आदि हिल जस्तुओंके पिजड़े वर्तमान थे ये सभी क्स्तुएँ दरवारियोंके मनोविनोदका साधत थीं स्पप्ट ही मालूम होता है कि राज

[१४३

दरवारके मुख्य विनोदोंमें काव्यकला सबसे प्रमुख थी वस्तुतः राजसभाम्मे सात अंगोंका होना परम झ्रावश्यक माना जाता था ये सात अंग हैं (१) है विद्वानू, (२) कवि, (३) भाट, (४) गायक, (५) मसखरे, (६) इतिहासज्ञ, और (७) पुराणज्ञ-- विद्वांस: कवयो भट्टा गायका: परिहासका: इतिहासपुराणज्ञा: सभा सप्तांग-संयुता ।।

छ्रे काव्यज्ञास्नत्र-विनोद

पुराना भारत विश्वास करता था कि बुद्धिमानोंका काल काव्य-शास्त्र- विनोदमें कटता है--काव्यश्ास्त्रविनोदेव कालो ग्रच्छति धीमताम्‌ हमने देखा ही है कि सभा, समाज, उद्यानयात्रा, पुत्रजन्म, मेला, यात्रा कोई भी ऐसा अवसर नहीं आता था जिसमें वह काव्यालापसे विनोद पाता हो राजा कवि-सभाश्रोंका नियमित आयोजन करते थे। हमने इस प्रकारकी राजसभ .ओंको पहले ही लक्ष्य किया है। इन सभाश्रोंमें कवियोंकी परीक्षा हुआ करती थी वासुदेव, सातवाहन, शूद्रक, साहसांक आदि राजाश्रोंने इस विशालपरम्परा को चलाया था और बहुत हाल तक सभी यशोडभिलाषी भाग्तीय नरेश इस परम्पराका पोषण करते आए है काव्य-मीमांसा में राजशेखरने लिखा है कि राजा लोग स्वयं भी किस प्रकार भाषा और काव्यकी मर्यादापर ध्यान देते थे--अपने परि- वारमें कई राजापोंने कड़े नियम बनाए थे ताकि भाषागत माधुय हृास होने पावे जैसे--सुना जाता है मगधमें राजा शिशुनागने यह नियम कर दिया था कि उनके अग्त:पुरमें 5, ठ, ड, ढ, ऋ, ष, स, है, इन श्राठ वर्णोका उच्चारण कोई करे शूरसेनके राजा कुविन्दने भी कटु संयुक्त अक्षरोंके उच्चारणका प्रतिषेध कर दिया था कुन्तल देशमें राजा सातवाहनकी आज्ञा थी कि उनके अ््त:पुरमें केवल प्राकृंत भाषा बोली जाय उप्जयिनीमें राजा साहसांककी

र४४ ]

आज्ञा थी कि उनके अन्त:पुर में केवल संस्कृत वोली जाय

- कवियोंका नाता भावसे सम्मान होता थ।। समस्याएं दी जाती थीं, और प्रहेंलिका विन्दुमती आदिसे परीक्षा ली जाती थी। कवि लोग भी काफी सावधान हुआ करते थे कोई उत्तकी रचना चुरा ले, सुनकर याद करके अपने नामसे चला दे इस बातका ध्यान रखते थे राजशेखरने बताया है कि जब तक काव्य पूरा नही हुआ है तब तक दूसरोंके सामने उसे नहीं पढ़ता चाहिए इसमें यह डर रहता है कि वह आदमी उस काव्यको अपना कहकर ख्यात कर देगा--- फिर कोन साक्षी दे सकेगा कि किसकी रचना है ? सम्मानेच्छ कवियोंमें परस्पर मत्तिस्पर्डा भी खूब हुआ करती थी नाना भावसे एक दूसरेको परास्त करनेका जो प्रयत्न होता था उसकी कई मत्तोरंजक कहानियाँ पुराने ग्रन्थे,में मिल जाती है इस राजसभामें काव्यपाठ करना सामान्य बात नहीं थी चिन्तासक्त मच्त्रियोंकी गम्भीर मूंति, सब कुछ करनेके लिये प्रतिक्षण तत्पर दूतोंकी कठोर मुखमुद्रा, प्रान्त भागमें खुफिया विभागके घूर्त मनुष्य, वबहुतर ऐव्वर्यशालियोंके हाथी घोड़े लाव-लशकरकी अ्रभिभूत कर देनेवाली उपस्थिति, कायस्थोंकी कुटिल भूकुटियाँ और नई-नई कूटनीतिक चिन्ताओंका सर्वत्र विस्तार मामूली साहसवाले कंविको चस्त-शंकित बना देता थ। एक कविने तो राजाके सामने ही इस राज- सभाको हिंस्त्र-जन्तुओंसे भरे समुद्रकं समान कहकर झपता चित्त-विक्षोम हल्का किया था :

चिन्तासक्तनिमग्नमंत्रि-सलिल दूतोमिशाख।कुलम्‌,

पर्यन्तस्थितचारनक्तमकर वागाश्वहिस्त्र/अयम्‌

नानावाश्ककंकर्पक्षिर्चिरं कायस्थसपस्पिदम्‌,

नीतिल्लुण्णतट राजकरणं हिस्रेः समुद्रायते ।।

नया कवि इस राजसभ/में बड़ी कठिनाईमें पड़ जाता थ। एक कविनें

राजसभारमें प्रथम वार आए हुए सं,अ्रमसे कविकी वाणीको नवविवाहिता वघूसे उपमा दी है। बिना बुलाए भी वह आना चाहती है, गलेसे उलककर रह जाती है, पूछनेपर भी बोलती नहीं, काँपती है, स्तम्भित हो रहती है, अचानक फीकी पड़ जाती है, गला रुंध जाता है, श्रांख और मूंहकी रोशनी घीमी पड जाती है। कवि बड़ अफसोसके साथ अनुभव करता है कि वाणी है या नवोढ़ा बहू है-दोनों में इतनी समानता है !

नाहृतापि पुर: पद रचयति प्राप्तोपकंठ हृठात्‌

पृष्टा श्रविवक्तति कम्पमयतें स्तंभ समालम्बते

वैवणयं स्वरभज्भगमच्ञति बलान्मन्दाक्षमन्दानना

कष्ट भो: प्रतिभावतोध्प्यभिसभं वाणी नवोढ।यते

१४४

दठ

काव्य-कला

स्वभावतः ही गह प्रश्न होता है कि वह काव्य क्या वस्तु है जो राज सभाओओं- में सम्मान दिलाता था या गोणष्ठी-समाजोंमें कीतिशाली वनाता था निश्चय ही वह कुमारसम्भव या मेधदूत जैसे बड़े-बड़े रस-काव्य नहीं होंगे वस्तुत्त: उक्ति वेचित्र्य ही वह काव्य है। दण्डी जैसे झालंकारिक आचार्योने अपने-अपने प्रन्‍्थोंमें स्वीकार किया है कि कवित्व-शवित क्षीण भी हो तो भी कोई बुद्धिमान्‌ व्यक्ति अ्रलंकार-शास्त्रोंके भ्रम्याससे राज-सभाओंमें सम्मान पा सकता है (१-१०४-१०५)। राजशेखरने उक्ति-विशेषकों ही काव्य कहा है यह यहां स्पप्ट रूपमें समझ लेता चाहिए कि मेरा तात्पयं यह नही है कि रसमूलक प्रवन्ध-काव्योंको काव्य नहीं माना जाता था या उनका सम्मान नहीं होता था; मेरा वक्‍तव्य यह है कि काव्य नामक कला जो राजसभाश्रों और गोष्टी-समाजोंमें कविको तत्काल सम्मान देती थी वह उक्ति-वैचित्र्य मात्र थी दुर्भाग्यवश हमारे पास वे समस्त विवरण जिनका ऐतिहासिक मूल्य हो सकता था उपलब्ध नहीं हैं; पर आनुश्रुतिक परम्परासे जो कुछ प्राप्त होता है उससे हमारे बक्तन्यका समर्थन ही होता है। यही कारण है कि पुराने अलंकार-्ास्त्रों मे रसकी उतनी परवा नही की गई जितनी अलंकारोंके गुणों और दोषोंकी गुण दोपका ज्ञान वादीको पराजित करनेमें सहायक होता था और अलंकारोंका ज्ञान उक्ति वैचित्यमें सहायक होता था। काव्यकला केवल प्रतिभाका विपय नहीं माना जाता था, अ्रम्यासको भी विशेष स्थान दिया जाता था। राजशेखरने काव्यकी उत्पत्तिके दो कारण वतलाए हैं; समाधि अर्थात्‌ मनकी एकाग्रता और अभ्यास अर्थात्‌ बार वार परिशीलन करना इन्हीं दोनोंके द्वारा शवित्' उत्पन्न होती है यह स्वीकार किया गया है कि प्रतिभा नहीं होवेसे काव्य सिखाया नहीं जा सकता। विशेषकर उस आदमीको तो किसी प्रकार कवि नहीं वनाया जा सकता जो स्वभाव से पत्थरके समान है, किसी

१४६ |] कष्टबश या व्याकरण पढ़ते पढ़ते तप्ट हो चुका है, या यत्र यत्र धूमस्तन्र तन्न वह्तिः जैसे अनल-धूमशाली तकंरूुपी आगसे जूल चुका है या कभी भी सुकविके प्रबन्धकों सुननेका मौका ही नही पा सका एसे व्यक्ति को तो किसी प्रकारकी भी शिक्षा दी जाय उसमें कवित्व शवित ही नहीं सकती क्योंकि कितना भी सिख/ओ्रो गधा गान नही गा सकेगा और कितना भी दिखाओ अन्धा सूर्यको नही देख सकेगा, पहला मामला प्रक्ृत्या जड़का है और दूसरा नष्ठसाधन का-- यस्तु प्रकृत्याइमस मान एव काव्येन वा व्याकरणेन नष्ट: तकेन दाह्योइतलधूमिना वाध्प्याविद्धकर्णा: सुकविप्रबन्ध: ।। तस्य वक्‍तृत्वसमुद्भव: स्याच्चछिक्षाविशेषैरपि सुप्रयुवतः गद्दंभो गायति शिक्षितो5पि संदर्शितं पद्यति नार्क॑मग्धः ।। --कंविकंठाभरण:ः १-२२-२३ - यह और बात है कि प्‌ वे जन्मके पुण्यसे मन्‍्त्रसिद्ध कवित्व हो जाय या फिर इसी जन्ममें सरस्वतीकी साधनासे देवी-प्रसन्न होकर कवित्वशवितका वरदान दे दें (कविकंठाभरण १-२४ ), परल्तु प्रतिभा थोड़ी बहुत श्रावश्यक तो है ही कवित्व सिखलानेवाले ग्रन्थोंका यह दावा तो नही है कि वे गधेकी भाना सिखा देंगे परन्तु इतता दावा वे अवश्य करते हैँ कि जिस व्यवित में थोड़ी-सी भी शक्ति हो उसे इस योग्य बना देंगे कि वह सभाओ्रों और समाजोंमें कीति पा ले

द्श उक्ति वेचित्रय

यदि हम इस बातको ध्यानमें रखें तो सहज ही समझ जाता है कि

' उक्तिवैचित्र्यरको इन अलंकारिकोंने इतना महत्त्व क्यों दिया है उक्तिवैचित्य वादविजय और मनोविनोदकी कला है भामहने बताया है कि वक्तोक्ति ही समस्त अलंकारों का मूल है और वक्तरोक्ति हो तो काव्य ही नहीं हो सकता |

[ श्ड्छ

भामहकी पुस्तक पढ़नेसे यही धारणा होती है कि वक्रोवितका अर्थ उन्होंने कहनेके विशेष प्रकारके ढंगकों ही समका था वे स्पष्ट रूपसे ही कह गए हूँ कि सूर्य-अस्त हुआ, चन्द्रमा प्रकाशित हो रहा है, पक्षी अपने अपने घोसलों में जा रहे हैँ, इत्यादि वाक्य काव्य नहीं हो सकते क्योंकि इन कथतोंमें कहीं वक्रमाज्डिमा नहीं है। दोष उनके मतसे उस जगह होता है जहाँ वाक्यकी वत्रता अर्थप्रकाशर्मे

बाधक होती है भामहके बादक आलंकारिकोंने वक्रोक्तिको एक अलंकार

3

मात्र माना है। किन्तु भामहने वक्रोक्तिको काव्यका मूल समझा है दण्डी भी भामहके मतका समर्थन कर गए हैं; यद्यपि वे वक्रोक्तिका श्र्थ अतिशयोवित या बढ़ा चढ़ाकर कहना बता गए है वक्तरोक्तिको निश्चय ही बहुत दिनोतक काव्यका एकमात्र मूल माना जाता रहा पर व्यावहारिक रूपमें कभी भी काव्य केवल वक्रोक्ति-गूलक--अ्र्थात्‌ निर्दोष वक्न-भंग्रिमा के रूप कहे हुए वाक्य के रूपमें उसका प्रयोग नहीं होता था उत्त दिनों भी रसमय काव्य लिखे जाते थे और सच पूछा जाय तो सरस काव्य जितने उन दिनों लिखे गए उतने और कभी लिखे ही नहीं गए वस्तृतः आलंकारिक लोग तब भी ठीक-ठीक काव्य- स्वरूपको समभा नहीं सके थे कुम्तक या कुन्तल नामके एक आचार्य सम्भवतः नवीं या दसवीं शताब्दी में हुए उन्होंने अपनी अ्साध।रण प्रतिभाके बलपर वक्रोक्ति शब्दकी एक ऐसी व्यापक व्याख्या की जिससे वह शब्द काव्यका वास्तविक स्वरूप समझाने में बहुत दूर तक सफल हो गया कुन्तकके मतका सार सर्म इस प्रकार है--केवल शब्दोंमें भी कवित्व नही होता और केवल भ्रर्थममें भी नहीं शब्द और अर्थ दोनोंके साहित्यमें अर्थात्‌ एक साथ मिलकर भाव प्रकाश करनेके सामंजस्यमें काव्यत्व होता है

वैसे तो ऐसा कभी नहीं होगा कि शब्द और अर्थ परस्पर विच्छिन्त होकर श्रोताके समक्ष उपस्थित हों। शब्द और अर्थ तो जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी कह गए हैं-- गिरा अर्थ जल बीचि सम कहिय तो भिन्न भिन्न है वे एक दूसरेको छोड़कर रही नहीं सकते फिर शब्द और अर्थ साहित्यमें काव्य होता है ऐसा कहना क्या बेकारका प्रलाप मात्र नहीं है ? कुन्तक जवाब देते है कि यहीं तो वक्रोक्तिका चमत्कार है। काव्यमें शब्द और अर्थके साहित्यमें एक विशिप्टता होनी चाहिये जब कवि-प्रतिभाके बलपर एक काव्य अन्य वाक्यके साथ एक विचित्र विन्यासमें विन्यस्त होता है तब एक दूसरे शब्दसे मिलकर जिस प्रकार स्वर और ध्वनि लहरीके आतान-वितानसे रमणीय माधुयेका सर्जन करेंगे, उसी प्रकार दूसरी ओर तद्गभित अर्थ भी उसके साथ तुल्ययोगिता करके परस्परको एक नवीन चमत्कारसे चमत्कृत करेंगे इसी प्रकार ध्वनिके साथ घ्वनिको मिलनेसे और श्र्थके साथ अर्थंके मिलनेसे जो दो परस्परसे स्पर्धा करनेवाली

श्डं८ |

चारुताएँ (सुन्दरताएँ) उत्पन्न होंगी उनका पारस्परिक सामण्जस्य ही यहां साहित्य शब्दका अर्थ है उदाहरणके लिये दो रचनाएं ली जा सकती हैं दोनोंमें भाव एक ही है चन्द्रमा धीरे-धीरे उदय होकर डरता-डरता आसमान में चल रहा है क्योंकि मानिनियोंके गरम-गरस आँसुओं से कलुषित कटाक्षोंकी चोट उसे वार वार: खानी पड़ रही है। एक कवि ने इसे इस प्रकार कहा:--- मानिनीजनविलोचनपातानुष्णुवाप्पकलुषानभिगृक्लन्‌ मन्दमन्दमुदित:प्रययौ खं भीतभीत इव शीतमयूख: ।। दूसरेनें जरा जमके इस प्रकार कहाः--- क्रमादेकद्वित्रिप्रमुतिपरिपाटी: प्रकटयन्‌, कला: स्वर स्वैरं नवकमलकन्दांकुररुच: पुरन्श्नीणां प्रेयोविरहदहनोद्वीपितदृशां, कटाक्षेम्यो विम्यन्‌ निभूत इव चन्द्रोज्म्युदयते यहाँ दोनों कविताओ्रंका अर्थ एक ही है पर दूसरी कवितामें शब्द और झ्र्थकी मिलित चारुता-सम्पत्तिनें सहृदयके हृदयमें विशेष भ।वसे चमत्कार पैदा क्याहै। अस्तु, हमें यहा आलंकारियोंक वालके ख,ल निकालनेवाले तकोको दुहराने की इच्छा बिल्कुल नही है हम कंवल काव्यके उस मनोविनोदात्मक पहलूका स्मरण कराना चाहते हैं जो राज-सभाओं, सहृदय-गोप्ठियों, अन्तःपुरके समाजों और सरस्वती-भवनोंमें नित्य मुखरित हुआ करती थी। आगे हम इस विषयमें कुछ विस्तारसे कहनेका अवसर खोजेंगे यहाँ इतना ही स्मरणीय है कि प्र।चीन भारतीय काव्यका एक महत्त्वपूर्ण अंश कविक रचना-कौशल और सहृदयके मनो- विनोद लिये लिखा गया था। इस रचना-कौशलका जब कभी प्रदर्शन होता था तो दर्शंकोंकी भीड़ लग जाया करती थी, इसमे विजयी होचेवालेका भौरव इतना अधिक था कि कभी कभी बड़े-बड़े सम्र/ट्‌ विजयी कविकी पालकीमें कंध। लगा

देते थे !

[ १४६

प्‌ कवियोंकी आपसी प्रतिस्पर्दधा

कभी-कभी परस्परकी प्रतिस्पद्धंसि कवियोंकी असाध।रण मेध,शवित, हाजिरजवाबी और औदार्यका पता चलता है। कहानी प्रसिद्ध है कि नैषघधकार श्री हर्षकविके वंशधर हरिहर नामक कवि गुजरातके राजा वीरधवलके दरबार में आए। सभामें स्वयं उपस्थित होकर उन्होंने अपने एक विद्यार्थीको भेजा और राजा वीरधवल, भन्‍्त्री वस्तुपाल तथा राजकवि सोमेश्वरके नाम अलग-अलग आशीर्वाद भेजे राजा और मन्त्री ने प्रीतिपृर्वक आ्राशीर्वाद स्वीकार किया पर कवि सोमेश्वर ईष्यासे मन ही मन ऐसा जले कि उस विद्यार्थंसि बात तक नहीं की हरिहर कविने यह वात्त गाँठ बाँध ली ।* दूसरे दिन कविके सम्मानके लिए राज- सभाकी आयोजना हुई, सब आए, सोमेश्वर नहीं आए उन्होंने कोई बहाना बना लिया कुछ दिन इसी प्रकार बीत गए हरिहर पंडितका सम्मान बढ़ता गया एक दूसरे अवसर पर राजाने हरिहर पंडितसे कहा कि पंडित, मैंने इस तगरमें वीरनारायर त्तामक प्रासाद बनवाया है, उसपर प्रशसिति खुदवानेके लिए मैंने सोमेश्वर पंडितसे १०८ इलोक बनवाए हो, तुम भी देख लो कंसे है पंडितने कहा, सुतवाइए राजाज्ञासे सोमेश्वर पंडित इलोक सुनाने लगे हरिहर पंडितते सुननेके बाद काव्यकी बड़ी प्रशंसा की और बोले महाराज, काव्य हो तो ऐसा ही हो महाराज भोजक सरस्वतीकंठाभरण नामक प्रासादके गर्भ-गृहमें ये इलोक खुदे हुए हैं। मुझे भी याद हैं। सुनिए इत्तना कहकर पंडितने सभी इलोक पढ़कर सुना दिए सोमेश्वरका मूँह पीला पड़ गया राजा और मन्त्री सभीने उन्हें चोर-कवि समझा ऊपरसे किसीने कुछ कहा नहीं परन्तु उनका सम्मान जाता रहा। सोमेश्वर हैरान थे। क्योंकि इलोक वस्त्‌ तः उनके ही बनाए हुए थे “मन्त्री वस्तृपाल--जो उन दिनों लघु भोजराज नामसे ख्यात थे--के पास जाकर गिड़गिड़ कर बोले कि इलोक मेरे ही

१४० ] है

हैं। मन्त्रीने कहा कि हरिहर पंडितकी शरण जाओ तभी तुम्हारी मान-रक्षा ही सकती है अ्रच्तमें सोमेश्वरने वही किया झरण।गतकी मान-रक्षाका भार कवि हरिहरने अपने ऊपर ले लिया दूसरे दिन राजसभामें हरिहर कविने बताया कि सरस्वतीने उन्हें वर दिया है कि एक सौ झ्राठ श्लोक तक वे एक वार सुनकर ही याद कर ले सकते है और सोमेच्चरको अपदस्थ करने के लिए ही उस दिन उन्होंने एक सौ आठ इलोक सुना दिए थे वस्तृतः वे सोमेश्वरके ही इलोक थे राजाको असली वृत्तन्त मालूम हुआ तो झ्राइदर्यच कित रह गए और दोनों कवियोंको गले मिलवाकर दोनों में प्रेम-सम्वन्ध स्थ।पित कराया (प्रवन्धकोश १२ ) सन्त्री वस्तृपालकी सभ।में इन हरिहर पण्डितका बड़ो सम्मान थ।। चहाँ मदन नामके एक दूसरे कवी भी थे हरिहर और मदनमें बड़ी लाग डॉट थी सभामें यदि दोनों कवि जुट गए तो कलह निश्चित था | इसीलिये मन्त्रीनें द्वारपालसे हिदायत कर दी थी कि एक के रहते दूसरा सभामें आने पावे एक दिन ह्वारपालकी असावधानीसे यह दुर्घटना हो ही गई हरिहर कवि अपना काव्य सुना रहे थे कि मदन पहुँचे आते ही डाँटा, हरिहर, घमंड छोड़ो, बढ़कर बातें मत करो! कविराजरूपी मत्त गजराजोंका अंकुश मैं मदन गया हूँ (--- हरिहर परिहर गर्व कविराजगजांकुशों मदनः हरिहरने तड़।कसे जवाब दिया--मदन, मुँह बन्द करो हरिहरका चरित मदनकी पहुँचके बाहर है--+ - भदत्त विमृद्रय वदन हरिहरचरितं स्मरातीतं मन्त्रीनें देख। वात बढ़ रही है। बीचमें टोक करके बोले--भई, 'ऋगड़ा बन्द करो इस नारिकेलको लक्ष्य करके सौ सौ इलोक बनाओ जो आगे बना देगा उसकी जीत होगी मदन और हरिहर दोनों ही काव्य बनानेमें उलऋ गए मदनने जब तक सौ पूरे किये तब तक हहिर साठहीमें रहे मन्‍्सरीने कहा, हरिहर पण्डित, तुम हारे हरिहरने तपाकसे कहा--हारे कैसे [” और खटसे एक कविता पढ़कर सुनाई--अरे गँवार जुलाहे, क्यो गँवार औरतोंके पहनने के लिये सैंकड़ों घटिया किस्म के कपड़े बुनकर अपनेको परेशान कर रहा है ? भले प्रादमी, कोई एक ही ऐसी साड़ी क्‍यों नहीं बनाता जिसे क्षण भरके लिये भी राजमहिषियाँ अपने वक्ष:स्थलसे हटाना गवारा करें--. रे रे ग्रामझुविद कन्दलतया वस्त्राणयमूनि त्वया गोणीविशभ्रमभ।जनानि बहुश: स्वात्मा किमायास्यते ! अप्पेक रुचिर चिरादशिनवं वासस्तदासूश्यतां यल्नोज्भन्ति कुचस्थलात्‌ क्षणमपि क्षोणीभूता वल्‍लभा: ।। सन्त्रीने प्रसन्‍त होकर दोनों कवियोंका पर्याप्त सम्मान किया

[ १४१

राजसभारो)ं शास्त्र-चर्चा भी होती थी नाना ज्ञास्त्रोंके जानकार पंडित तकंयुद्धमें उतरते थे। जीतनेवाछेका सम्मान यहाँ तक होता था कि कभी राजा पालकीमें अ्रपना कन्धा लगा देते थे प्राचीन ग्रन्थोंमें ब्रह्मरचयान और पट्टबन्ध नामक सम्मानोंके उल्लेख हैँ। जो पण्डित सभामें विजयी होता था उसके रथको जब राजा स्वयं खीचते थे तो उसे श्नह्मरथयान' कहते थे और जब राजा स्वयं सुवर्शापट्ट पण्डितके मस्तकपर बाँध देते थे तो उसे पटुबन्ध' कहा जाता था पाटलिपूत्रमें उपवर्ष, वर्ष, पारिगनि, पिगल, व्याडि, वररचि और पतंजलिका ऐसा ही सम्मान हुआ था और उज्जयिनीमें कालिदास, मेंठ, अमर, सूर, भारवि, हरि- इचन्द्र और चन्द्रग॒ुप्तका ऐसा सम्मान हुआ था राजसभ श्रोंमें विजयी होना जितने गौरवकी बात थी पराजित होना उतने ही अगौरव और निन्‍दाकी अनुश्वुतियोर्म पराजित पण्डितोंके श्रात्मघ/त तक कर लेनेकी बाते सुनी जाती हैं। जयन्तचन्द्र राजाक राजपप्डित हरि कवि राजसभ'में हारकर भरे थे ऐसा प्रसिद्ध है। इसी पण्डितके पुत्र प्रसिद्ध श्रीहर्ष कवि हुए जिन्होंने पिताके अ्रपमानका बदला चुकाया थ।। बहुत थोड़ी उमरमें ही वे विद्या पढ़कर राजसभ!/में उपस्थित हुए थे जब राजाकी स्तूति उन्होंने उत्तम काव्योंसे की तो उनके पिताको पराजित करने वाले पण्डितने उन्हे कोमल बुद्धिका कवि! कहकर तिरस्कार किया श्रीहर्षकी भवें तन गईं, कड़ककर उन्होंने जवाब दिया--चाहे साहित्य-जैसी सुकुमार वस्तु हो या न्याय-शास्त्रकी गाँठवाला तक शास्त्र, दोनों ही क्षेत्रोंमे वाणी मेरे साथ समान रूपसे विहार करती है। यदि पति हृदयंगम हो तो चाहे मुलायम गद्दा हो चाहे कुशों और काँटोंसे आकीर्ं वन- भूमि, स्त्रीकी समान प्रीति ही प्राप्त होती है -- साहित्ये सुकुमारवस्तुनि दुढ़न्यायग्रहग्नन्थिले तक वा मयि संविधातरि सम॑ लीलायते भ। रती दय्या वास्तु मुदृत्तरच्छदवती दर्भाडकुरैरावृत्ता भूमिर्वा हृदयंगमों यदि पतिस्तुल्या रतियोपिताम्‌ ॥। और उक्त पं डितको किसी भी शास्त्रके तकं-युद्धमें उतरने के लिये ललका रा इस पण्डितकों पराजित करके कविने अशेप की ति प्रप्त की

१५२ ]

८७

विद्वत्सभा में परिहास

पण्डितोंकी सभामें किसी सीधे सादे व्यक्तिको वैठ,कर उसे मूर्ख बनाकर रस लेनेकी जो मनोवृत्ति सर्वत्र पाई जाती है उसका भी परिचय प्र।चीन ग्रन्थोंसे मिल जाता है। प्रसिद्ध बौद साधक भुसुकपादको इसी प्रकार मूर्ख बनाने का प्रयत्न किया गया था। वह मनोरंजक कहानी इस प्रकार है:

नालन्दाके विश्वविद्यालयमें एक गावदी जैसा आदमी आया और नालन्दाके एक प्रान्तमें उसने एक भोपड़ी बनाई और वहीं वास करने लगा वह त्रिपिटककी व्याख्या सुनता और साधना करता वह हमेज्ञा झ्ान्त भावसे रहता था, इसलिये लोग उसे श्ान्तिदेव कहने लगे नालन्दाके संघ में एक और नाम भुसुकुसे वह विख्यात हुआ इसका कारण यह था, कि “भुञ्जानो5पि प्रभास्वर:ः सुप्तोषि कूटीम्‌ गतो5पि तदेबेति भुसुकुसमाधिसमापन्नत्वात्‌ भुसुकु नामश्यातिः संघेडपि” अर्थात भोजनके समय उसकी मूर्ति उज्ज्वल रहती, सोनेके समय उज्ज्वल रहती और कटीमें बैठे रहने पर भी उज्ज्वल रहती

इस प्रकारसे बहुत दिन बीत गए शान्तिदेव किसीके साथ बहुत बात नहीं करते, अपने मनसे अपना काम करते जाते लेकिन लड़कोंने उनके साथ दुष्टता करना शुरू कर दिया बहुत लोगोंके मनमें हुआ कि वे कुछ जानते नहीं, अतएव किसी दिन उन्हें अप्रतिभ करनेकी बात उन लोगोंने सोची नालच्दा में नियम था कि ज्येष्ठ मासकी शुक्लाप्टमीको पाठ और व्याख्या होती थी नालन्दाके वड़े विहारके उत्तर पूर्वके कोनेमें एक बहुत बड़ी धरमंशाला थी पाठ और व्याख्याके लिये उसी धर्मंशालाको सजाया जाता था सभी पण्डित वहीं जूटते और अनेकों श्रोता सुननेके लिये आते जब सभा जुड़ गई, पप्डित लोग था गए-और सव कुछ तैयार हो गया तब लड़कोंने जिद पकड़ी कि शांतिदेव आज तुम्हें ही पाठ और व्याख्या करनी होगी शान्तिदेव जितना ही इन्कार करते

[ १४३

उतना ही लड़के और ज़िद्द पकड़त और अन्तमें उन्हें पकड़कर उन लोगों ने वेदीपर बैठा ही दिया उन लोगों ने सोचा कि ये एक भी वात नहीं वोल सकेंगे तब हम लोग हेँसेंगे और ताली वजाएँगे शान्तिदेव गम्भीर भावसे बैठकर बोले, “किम्‌ आप॑ पठामि अर्थार्ष वा” सुनकर पण्डित लोग स्तंव्ध रह गए। वे लोग आप॑ सुन चुके थे, अर्थाप॑ नहीं। उन लोगों ने कहा, कि इन दोनोंमें भेद क्या है ? शान्तिदेव बोले,--परमार्थ ज्ञानीको ऋषि कहते है वे ही बुद्ध और जिन हैं वे लोग जब कुछ कहते हैं वही झार्प वचन हैं। प्रश्न हो सकता है कि सुभूति आदि आचायोंने अपने शिप्योंको उपदेश देनेके लिये जो ग्रन्थ लिखे हैं उन्हें आप कैसे कहा जा सकता है ? इसके उत्तरमें युवराज श्रार्य मत्रेयका वह वचन उद्धृत किया जा सकता है जिसमें कहा गया है कि आर्प वचन वस्तुतः उसे ही कहा जायेगा जो सुन्दर अ्रथ॑ंसे युक्‍त हो, धर्म-भ।वसे अनुप्राणित हो, त्रिघातु- संक्‍्लेशका उपशमन करनेवाला हो, तुप्णाका उच्छेद करनेवाला हो और प्राणी- मात्रकी कल्याण वुद्धिसे प्रेरित हो ऐसे ही वचनको आप कहा जायेगा और इसके विपरीत जो है वही अनार्प है। आर्प और अनापंकी यही व्याख्या पार- मार्थिक है, अन्य व्याख्याएँ ठीक नहीं है आय मैत्रेयका वचन है : यदर्थवद्‌ धर्म पदोपसंहित॑ त्रिघातुसंक्लेश-निवहंणं वचः भवे भवेच्छान्त्यनुञंसदर्शक तद्वत्‌क्रमार्ष विपरीतमन्यथ। ॥।

ऐसे ही आप॑ ग्रन्थोंसे श्र्थ लेकर शन्य पण्डितोंने जो ग्रन्थ लिखे है वे प्र्थापं कहलाते हैं अर्थाप ग्रन्थोंके मूल आपे ग्रन्थ है अ्रतएव-आर्प ग्रन्थसे पण्डित लोगोंने जो कुछ खींचकर संग्रह किया है वही श्र्थार्प है और सुभूति आदि आ्राचायोकि जो उपदेद है वे आप॑ हूँ क्योंकि उसके अ्धिप्ठाता भगवान्‌ है पण्डित लोगोंने कहा--हम लोगोंने आप बहुत सुना है, तुमसे कुछ अर्थार्प सुतेंगे

इसके पूर्व ही शान्तिदेव बोधिचर्यावत्तार, शिक्ष-समुच्चय और सूत्र- समुच्चय नामके तीन अर्थार्प ग्रन्थ लिख चुके थे कुछ देर तक ध्यान करनेके वाद वे बोधिचर्यावतारका पाठ करने लगे शुरूसे ही पाठ आरम्भ हुआ बोधिचर्याकी भाषा बड़ी ललित है, मानों वीणा स्वरमें बंधी हो; भाव अत्यन्त गम्भीर, संक्षिप्तऔर मधुर हैं। पण्डित लोग स्तव्ध होकर सुनने लगे। लड़कोंने सोचा था कि इस आदमीको हंसीमें उड़ा देंगे, लेकिन वे भक्तिसे आप्लुत हो उठे ऋमसे जब पाठ जमने लगा, महायानके गूढ़तत्त्वोंकी व्यास्या होने लगी और जब शान्तिदेव मधुर स्वरसे-- यदा भावों नाभावों मते: सन्तिप्ठते पूरः तदान्यगत्यभावेन निरालम्बः प्रशाम्यति

श्श्ड ]

च्ज्+ इलोककी दी व्याख्या ड््ः त-त> स्व्गंका खल गया आर पेंच पपातका व्यास्था कर रह व, हगत्‌ स्वर्गंका हार खुल गय र्‌ कर

संतत्त दराुक विमानपर चढ़कर, दरीरकी कान्तिसे दिगन्‍तको अआलाकित करत

जल्द नसख्जथी आलिगननमें

हुए नज्जुश्ी उत्तरव लग॑। व्याल्या सत्म होनेपर वे जान्तिदेवको गाड़ आलिगनमे

/|

बावकर विमादपर उनकी कटीमे बावकर [दमसादपर चदुकर स्वर्ग ले गए द्सर दिन पृण्डित लोग उन दा मी कक का. >... जल वबोधिचर्यावतार ल्‍् टप गए आर वाधिच्यादतार, दिल;/-चमच्चय और यूत्र सम च्चय ये त्ाद पराचवा उच्ह्‌ ला | ओर उन लोगोंने उदका प्रचार कर दिया इन तीनोंने दो हटा

प्राप्य हैँ, केवल सत्र-समच्चयका जो दो पोचियाँ मिली प्यि है. कवल चूत्रन्चनृच्चयंका पता नहीं लग रहा हू जो दो पोधियाँ मिली

किन 2 टन गा जात्त्री गाण् दो » थे छापी नी गई है (हरुपत्ताद ज्ञाक्त्त्री : बौ० या० दो० )।

है का थ् [० कथा-आझाख्यायिका

राजसभामें केयान्आल्यायिकाका कहनेवाला काफी सम्मान पाता था सस्क्ृतन कंचाका चाहित्व बहुत विद्याल हे विद्दानोंका अनभान हँ कि संसार भरमें भारतीय कथाएं फँंली हुई हैं जो कथा सम्मान दिलाती थी वह जैसे- तेच नहा चुनाड जाता था। कंवल घटनाओआाका प्राचान चारताय बहुत्त मद्धत्त्त नहीं देते थे। घटनाओंको उपलब्य करके कवि इलेपोंकी भड़ी वाँघ देगा, विरोधा- भासोंका ठाठ खड़ा कर देगा, इलेप-परिप्प्ट उपमाञ्ोंका जंगल लगा देगा, तब जाकर कहेगा कि यह अमुक घटना है वह किसी भी ऐसे अवत्तरकी उपेक्षा नहीं करेगा जहाँ उसे एक उत्मेला या दीपक या रूपक या विरोयाभास या इलेय करनेका

अवसर मिल जाय प्रत्तिद्ध कयाकार चुबन्वुने तो ग्रन्धथके आरम्भमें पतिना

ही कर ली थी कि आदिसे अन्त तक इलेपका निर्वाह करेंगे पुराने कथाकारोंमें सबसे श्रेप्ठ बाणनट्ट हैं इन्होंने कथाकी प्रद्मंत्रा करते हुए मानों अपनी ही रचनाके लिये कहा था कि चुस्पप्ट मवुरालापसे और हावनावसे नितान्त मनोहरा तथा अनुरायवश्य स्ववनेव बचध्यापर उपस्थित अभिनवा वधके समान सूगम कला- विद्या सम्बन्धी वाक््यविन्यासक कारण पण सुश्राव्य आर स्सके अनकरणक कारण

हि

[ १५५

बिना प्रयास शब्दगुस्फको प्राप्त करनेवाली कथा किसके हृदयमें कौतुकयुकत प्रेम नहीं उत्पन्न करती ? सहजबोध्य दीपक और उपमा अलंकारसे सम्पन्न अ्पूर्वेप दार्थके समावेशसे विरचित और अ्नवरत इलेष।लंकारसे किडिसचद्‌ दुरई्बोध्य कथा काव्य, उज्ज्वल प्रदीपके समान उपादेय चम्पक-पुष्पकी कलीसे गंथे हुए झौर बीच-बीचमें चमेलीक पृप्पोंसे अलंकृत घन-सन्निविप्ट मोहनमालाकी भाँति किसे आ्राकृष्ट नहीं करता ? सच पूछा जाय तो बाणभद्ठने इन पंवितयोंमें कथा-काव्यका ठीक-टीक लक्षण दिया है कथ। कलालाप-बिलाससे कोमल होगी, कृत्रिम पद-संघट्टता और अलंकारप्रियताके कारण नही बल्कि बिना प्रयासके रसके अनुकूल गुम्फवाली होगी, उज्ज्वल दीपक और उपमाओ्नोंसे सुसज्जित रहेगी और निरन्तर श्लेष अलंकारके आते रहनेके कारण जरा दुर्बोध्य भी होगी--परन्तु सारी बातें रसकी अनुर्वातिनी होंगी प्र्थात्‌ संस्कृतके आलंकारिक जिस रसको काव्यकी आत्मा कहते है, जो अंगी है, वही कथा और श्रास्यायिकाका भी प्र.ण है काव्यसे कहानी गौर है, पदसंघट्टना भी गौरा है, मुख्य है केवल रस यह रस अ्भिव्यकत नही किया जा सकता, शब्दसे वह अग्रकाब्य है। उसे कंवल व्यंग्य या ध्वनित किया जा सकता है इस बातमें काव्य और कथा-आसरू्यायिकामे इस रसके अनुकूल कहाती, अलंकार-योजना और पद-संघट्टना सभी महत्त्वपूर्ण हैं, किसीकी उपेक्षा तहीं की जा सकती एक पद्यक बन्धनसे मुक्त होने के कारण ही गद्य-कविकी जवाबदेही बढ़ जाती है वह अलंकारोंकी और पद-संघट्टनाकी उपेक्षा नही कर सकता कहानी तो उसका प्रधान वक्तव्य ही है कहानीके रसको श्रनुकूल रखकर इन शर्तोका पालन करना सचमुच कठिन है और इसलिए संस्क्ृत के आलोचकों ते गद्यकी कविताकी कसौटी कहा है --गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति' | अव प्रश्त हो सकता है कि यदि रस सचमृच ही इत कथा-गआख्यायिकाओं-

की आत्मा है तो अलंकारोंकी इतनी योजना क्यों ज़रूरी समभी गई आजके युगमें वह बात समझें नही झा सकती जिन दिनों ये काव्य लिखे गए थे उन दिनों भारतवर्षकी समृद्धि अ्रतुलनीय थी उन दिनोंके समाजकी अवस्था और सहृदयकी मनोवृत्ति जाने बिना इनका ठीक-ठीक समझता असम्भव है। उन दिनोंके सहृदयोंकी शिक्षा-दीक्षा आ्ाजसे बहुत भिन्‍त थी उनक मनोविनोदमें काव्य-चर्चाका महत्त्वपूर्ण स्थान था

१५६ ]

पद

बह॒त्कथा

कथा-साहित्यकी चर्चा करते समय वृहत्कथाकों नहीं भूला जा सकता रामायण, महाभारत और बुहत्कथा ये तीन ग्रन्थ समस्त संस्कृत काव्य, नाटक कथा-आ्राख्यायिका और चम्पूके मूल उत्स है भारतवर्षके तीनों बड़े-बड़े गद्य- काव्यकार दण्डी, सबन्ध्‌ और बाणभट्ट, बृहत्कथ.के ऋणी हैँ भारतवषेका यह दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि यह अमूल्य निधि आज अपने मूल रूपम शप्त नहीं है सन्‌ ईस्वीकी आठवीं-नवी शताब्दी तकके भारत-साहित्यमें बृहत्कथा और उसके लेखक गणाढ्य पण्डितकी चर्चा प्र।यः ही आती रहती है यहां तक कि लगभग ८७४ ई० में कम्बोडियाकी एक संस्कृत प्रशस्तिमें गुण;डथ और उचकी ब॒ हत्कथाकी चर्चा आती है परव्तु आज वह नहीं मिलती यह प्रन्ध सस्कृतम नहीं वल्कि प्र।कृतमें लिखा गया था और प्राकृत भी पैशाची प्रात इसक निर्माणकी कहानी बड़ी ही मनोरंजक है। गणाढ्य पण्डित महाराज सातवाहनके सभ.पष्डित थे। एक बार राजा सातवाहन अपनी भ्रियाश्रोंके साथ जलक्रीड़ा करते समय सस्ठुतका कस जानकारीके कारण लज्जित हुए और यह प्रतिज्ञा कर बेठ कि जब तक संस्कृत घारावाहिक झूपसे लिखने बोलने नही लगेंगे तब तक बाहर मुह नही दिखाएँगे। . राज-काज बन्द हो गया। गुणाढ्च पण्डित वुलाए गए। उन्होंने एक वर्षमें संस्‍्क्ृत सिखा दे नेकी प्रतिज्ञा की पर एक अन्य पण्डितने महीनेमे ही इस असाध्य- साधनका संकल्प किया। गृणाढ्यने इसपर प्रतिज्ञ, की कि यदि कोई महीनेमें संस्कृत सिखा देगा तो वे संस्कृत लिखना-वोलना ही वन्द कर देंगे महीने बाद राजा तो सचमृच ही धारावाहिक रूपसे संस्कृत बोलने लगे, पर गुणाढ्थको मौन होकर नगरसे वाहर होकर चला जाना पड़ा उनके दो शिष्य उनके साथ हो लिए वहीं किसी जश्ापग्रस्त पिशाचयोनि-प्राप्त गन्धवेंसे कहानी सुनकर

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गुणाठ्च पण्डितने इस विज्ञाल ग्रंथको पैशाची भ।ष,में लिखा | कागजका काम सूखे चमडोंसे और स्पाहीका काम रक्तसें लिया गया पिश्चाचोंकी वस्तीमें और मिल ही क्या सकता था! कथा सम्पूर्ण करके युणाढ्य्र अपने शिप्यों सहित राजध।नीकों लौट आए स्वयं नगरके उपान्त भागमें ठहरे और ग्रन्ध शिप्योंस राजाके पास स्वीकारार्थ भिजवा दिया राजाने अवहेलनापूर्वक इस मौतोंन्मत्त लेखकद्वारा चमड़ेपर रक्तसें लिखे हुए पैशाची ग्रंथका तिरस्कार क्या राजाने कहा कि भला ऐसे ग्रंथर्के वक्‍तव्य-वस्तुर्में विचार योग्य हो ही क्या सकता है : पैशाची वाग्‌ मपी रकक्‍त॑ मौदनोन्मत्तरच लेखकः। इति राजाञन्नवीतू का वा वस्तुसारविचारणा। (वृहृत्कथ।मंजरी १॥ 5७) जिप्योंसे यह समाचार सुनकर ग्‌ ण,ठ्च बड़े व्यथित हुए चितामें ग्रन्थ- को फेंकने जा रहे थे कि शिप्योंने फिर एक वार सुननेका आश्रह किया | आग जला दी गई, पण्डित आसन वाँघकर वैठ गए एक-एक पन्न पढ़कर सुनाया जाने लगा और समाप्त होते ही आगमें डाल दिया जाने लगा कथा इतनी मधुर और इतनी मनोरंजक थी कि पश्ुु-पक्षी मृग-ब्याध्र आदि सभी खाना-पीना छोड़कर तन्मय भावसे सुनने लगे उन्तके मांस सूख गए। जब राजाकी रंघन- शालामें ऐसे ही पद्मओंका मांस पहुँचा तो शुप्क मांसके भक्षणसे राजाके पेट्में दर्दे हुआ। वैद्यने नाड़ी देखकर रोगका निदान किया कसाइयोंसे कैफियत तलब की गई और इस प्रकार अज्ञात पण्डितक कथावाचनकी मनोहारिता राजाके कानों तक पहुँची राजा आइचर्यचकित होकर स्वयं उपरिथधत हुए लेकिन तब तक ग्रन्थके सात भागोंमें से छः जल चुके थे राजा पप्डितके पैरोंपर गिरकर सिर्फ एक ही भाग वचा सके उस भागकी कथा हमारे पास मूल रूपमें तो नहीं पर संस्कृत अनुवादके रूपसें अब भी उपलब्ध हैं बुद्धस्वामीक वृहत्कथाइलोकसंग्रह, क्षेमेन्द्रकी वृहत्कथ,मंजरी और सोम- दवके कथासरित्सागरमें वृहत्कथा (या वस्तृत: 'बहुकहा', व्योकि यही उसका मूल नाम था ) के उस अवशिप्ट अंशकी कहानियाँ संगृहीत हूँ इनमें पहला ग्रन्थ वेपालके और वाकी कास्मीरक पप्डितोंकी रचना है पण्डितोंगें गुणाढ्यके विपयमें कई प्रश्नोंको लेकर काफी मतभेद रहा हैँ पहली वात है. कि गुणाढ्य कहाँके रहनेवाले थे काइ्मीरी कथ.ओके अनुसार वे प्रतिप्ठ.नमें उत्पन्न हुए थे और नेपाली कथाक अनुसार कौशाम्बीमें फिर कालकों लेकर भी मतभेद हैं। कुछ लोग सातवाहनको और उनके साथ ही गृणढ्यको सन्‌ ईसवीके पूर्वकी पहली शताव्दीमें रखते हँ और कुछ बहुत बादमें दुर्भाग्यवश यह कालसम्बन्धी झगड़ा भारतवर्षके सभी प्राचीन आचार्योकें साथ अविच्छेद रूपसे सम्बद्ध हैँ

१्रश्र्द |

हमारे साहित्यालोचकोंका अधिकांझ श्रम इन कालनिर्णयसम्वन्धी कत्तरतोंमें ही चला जाता है। ग्रन्यके मूल वक्तव्य तक पहुँचनेके पहले सर्वत्र एक तकंका व्‌ निल समूद्र पार करना पड़ता है एक तीसरा प्रश्न भी वृहत्कवाके

त्तम्बन्बम उठता है वह वह कि पंशाची किस प्रदेशकी भाषा है। इधर ग्रियर्सन जेंसे भाषा-विज्ञेपनने अपना यह फसला सुना दिया हैं कि पैशाची भारतवपंके उत्तर-पश्चिम सीमान्तकी वर्बर जातियोंकी भाषा थी वे कच्चा मांस खाते थे इसी लिये इन्हें पिशास्त या पिशाच कहा जाता था गुणाढ्यकी पृस्तकोंके सभी संस्कृत संस्करण काइ्मीरमें (सिर्फ एक नेपालमें ) पाए जाते हैँ, इसपरसे ग्रियर्सन- का तके प्रवल ही होता है

80०

प्राकृत काव्यके पृष्ठपोषक सातवाहन

हमने पहले ही देखा है कि सातवाहन राजाके विषयमें यह प्रसिद्धि चली आती है.कि उन्होंने अपने अ्रन्तःपुरमें यह नियम ही बना दिया था कि केवल प्राकृत भाषाका ही व्यवहार हो उनके समापंडित गुणाढ्चका प्राकृत ग्रंथ कितना महत्त्वपूर्ण है यह भी हमने देख लिया है स्वयं सातवाहन बहुत अच्छे कवियोंमें भिने गए है सातवाहनके संबंबर्में भारतीय साहित्यमें वहुत अधिक लोककथाएँ प्रचलित है सातवाहनवंशी राजा दक्षिणमें बहुत दिनों तक राज्य करते रहे। संस्क्ृतर्मे सातवाहन शब्द कई प्रकारसे लिखा मिलता है, सातवाहन, सालबाहुन, शालिवाहन आदि। शिलालेखोंम साड' भी मिलता है। संक्षेप- में सात या साल कहनेकी भी प्रथा थी इसीलिये यह इश्चारा किया जात्ता है कि हाल' नाम वस्तुत: साल या साडका रूपान्तर है यह अनमान बहत गलत नहीं लगता हेमचंद्राचायको देशी नाममालासे भी इसका समर्थन होता है। जो भी हो, सालवाहइनोंमें कोई हाल” नामके बड़े ही प्रवल पराक्रमी राजा हुए है। मोदकीः मां ताडय' वाली कहानीमे उनके संस्‍्कृतके अज्ञानका जो उप-

[ १५६ हास किया गया है उसका कारण उनका प्राक्ृत-प्रेम ही हूँ इन्होंने कोई प्राकृत गाथा-कोशका संपादन किया था जो हालकी सत्तसई' के नामसे बादमें प्रसिद्ध हुआ यह प्राकृत सतसई खंगार रसकी बहुत ही सुंदर रचना है। इसमें ग्राम-जीवनका बहुत ही सरस चित्रण हैं कभी कभी तो इसकी गाथ्रोंमें श्रृंगार रस विल्कल नहीं हूँ, पर टीकाकारोंने रगड़के उसमेंसे छूद्भु।र रस निकाल लिया हालकी सतसई प्राक्ृत काव्यके उत्कर्षका निदर्धान हूँ ग्रन्थ-जैसा कि गाथ-कोश नामसे प्रकट है, हालद्वारा संगृहीत कोई संग्रह-प्रंथ रहा होगा परन्तु उनकी अपनी कविताएँ भी इसमें अवश्य हैँ प्रवंबकोद्यमें इस संग्रहकी एक मनोरंजक कहानी दी हुईं है इस कहानीसें भी राजाका जलविदहार और मोदके माँ ताडय की कहानी पहले जैसी ही है वादमें राजा अपमानित होकर सरस्वती- की आराधना करता हैँ, और उनकी छृपासे सारे नगरको आ्राधे पहरके लिये कवि बननेका गौरव प्राप्त होता हू फलत: राजानें उस आधे पहुकी लिखी हुई नगरवासियोंकी दस करोड़ गाथ!एँ संग्रह कीं यही संयृहीत गाथ.एं सातवाहन- दास्त्र नामसे प्रसिद्ध हुई (प्रबंधकोश पृ० ७३) सप्तशती उसका -बहुत् संक्षिप्त रूप है | प्राकृतक काव्यों, कथओं और आख्यायिकाश्रोंके ये सबसे बड़े पृप्ठ- पोषक हुए ऐसे राजाके लिये प्र।कृत कवि कौतू हलने अपनी प्रियासे ठीक ही कहा था कि हैं प्रिये, यह वह राजा था जिसके विना सुकवियोंकी काब्यरचना सुचिर परिचितित होने पर भी दरिद्रोंके मनोरथकी तरह जहाँसे उठती थी वहीं विलीन हो जाती थी

हथएच्च्रेय विसयंति स्॒‌इर यरिचितिया थि सकइंणं,

जेण विशा दुहियाणं मणोरहा कव्वविनिवेसा (लीला० पू० १८)

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कथाकाव्यका सनोहर वायुमण्डल

कथाकाव्यका वायुमण्डल अत्यन्त मनोहर है वह अद्भुत मोहक लोक है, इस दुनियामें वह दुलंभ है वहां प्रभात होते ही पद्म-म धुसे रँगे हुए वुद्ध कलहंस- की भाँति चन्द्रमा आकाश-गंगाके पुलिनसे उदाससा होकर पदिचम जलधिके तट- पर उतर आता था, दिझ्मण्डल वृद्ध रंक्‌ मृगकी रोमराजिके समान पाण्ड्र हो उठता था, हाथीके रक्तसें रथ्ज्जित सिहके सटाभारके समान या लोहितवर्ण लाक्षरसके सूत्रक समान सूर्यकी किरणें, आकाशरूपी-वनभूमिसे नक्षत्रोंके फूलोंको इस प्रकार झाड़ देती थीं मानों वे प्चराग मणिकी शालाओ्रोंकी बनी हुई झ।ड़्‌ हों, उत्तर और अवस्थित सप्तर्षि मण्डल सन्ध्योपासनर्के लिये मानसरोवरके तटपर उतर जाता था, पश्चिम समुद्रके तीरपर सीपियोंक उत्मुकत मुखसें बिखरे हुए मुक्तापटल चमकने लगते थे, मोर जाग पड़ते थे, सिंह जमुहाई लेने लगते थे, करेणुबालाएँ मदस्रावी प्रियतम गजोंको जगाने लगती थी, वृक्षणण पलल्‍लवांजलिसे भगवान्‌ सूर्यंको शिकश्षिर-सिक्‍्त कुसुमांजलि समपंण करने लगते थे, वनदेवताओंकी अदट्ठा- लिकाओंके समान उच्नत वृक्षोंकी चोटी पर गर्दभ-लोम सा धूसर अग्निहोत्रका धूम इस प्रकार सट जाता था मानों कर्बुर वर्णके कपोतोंकी पंवित हो; शिशिर- विन्दुको वहन करके, पद्मवनको प्रकम्पित करके, परिश्रान्त शबर-रमणियों के घर्मविन्दुकी विलुप्त करके, वन्य महिषके फेनविन्दुसे सिचके, कम्पित पल्‍लव और लतासमूहको नृत्यकी शिक्षा दे करके, प्रस्फूटित पद्मोंका मधु बरसाके, पृष्प- सौरभसे अमरोंको सस्तृष्ट करके, मन्द-मन्द-संचारी प्रभ,त वायु बहने लगती थी; कमलवनमें मत्त गजके गंडस्थलीय मदके लोभसे स्तृतिपाठक भ्रमररूपी वैत्वालिक गुझजार करने लगते थे, ऊषरमें शयन करनेके कारण वन्य मूगोंके निचले रोम घूसर वर्ण हो उठते थे और जब प्राभातिक वायू उनका शरीर स्पर्श करती थी तो उनकी उनींदी आँखोंकी ताराएँ दुलमुला जाती थीं और बरौनियाँ इस प्रकार

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सटी होती थीं मानों उत्तप्त जतुरससे सटा दी गई हों, वनचर पशु इत्तस्तत्त: विचरण करने लगते थे, सरोवरमें कलहंसोंका श्रूति-मधुर कोलाहल सुनाई देने लगता था, मयूरगण नाच उठते थे और सारी मरुस्थली एक अपूर्व महिमासे उद्भासित हो उठती थी (कादम्वरीक प्रभात-वर्णनसे ) उस जादूभरे रसलोकमें प्रियाके पदाघातसे अशोक पुष्पित हो जाता है; क्रीड़ा-पर्वत परकी चूड़ियोंकी झनकारसे मयूर नाच उठता है, प्रथम आ्राषाढ़के मेघगर्जनसे हंस उत्कंठित हो जाता है, कण्जल- भरे नयनोंके कटाक्षपातसें नील कमलकी पाँत बिछ जाती है, कपोल-देशकी पत्राली आँकते समय प्रियतमके हाथ काँप जाते है, आमज्-मंजरीके स्वादसे कषा- यित-कण्ठ कोकिल अ्रका रण ही हृदय क्रेद देते है, क्रौच्च-निनादसे वनस्थलीकी शस्पराशि भ्रचानक कम्पमान हो उठती है और मलयानिलके झोंकेसे विरहविधुर प्रेमिक सोच्छवास जाग पड़ते है भारतीय कथा-साहित्य वह मोहक अलबभ है जिसमें एक-से-एक कमनीय चित्र भरे पड़े है; वह ऐसा उद्यान है, जहाँ रंग- बिरंगे फूलोंसे लदी क्यार्याँ हर दृष्टिमें पाठककों झ्ाकृप्ट करती है

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पच्चबद्ध कथा

नवीं शताव्दीके प्रसिद्ध आलंकारिक रुद्रटने लिखा है कि संस्क्ृतमें तो कथा गद्यमें लिखी जानी चाहिए, पर प्राकृत आ्रादि अन्य भाषाशोंकी कथा ग्राथाबद्ध हो सकती है वस्तु तः उन दिनों प्राकृतमें गाथावद्ध कथाएँ बनी थीं। कथाका वह मनोहर वायुमण्डल, जिसकी चर्चा ऊपर हुई है, इन गाथावद्ध काव्योंमें भी मिलता है आठवीं शताब्दीके कौतृहल नामक कविकी लिखी एक कथा लीला- व॒ती मिली है जिसमें रुद्रढके वताए सब लक्षण मिलते है 4 भाषाका चटुल-चपल प्रवाह यहाँ भी है, वर्ण नकी रंगीनी इसमें भी है, सरस करनेकी प्रवृत्ति इसमें भी है, स्थान-स्थान-पर गद्य भी है। पढ़ते पढ़ते ऐसा लगता है कि कादंबरी श्रादि कथाओंका जो वातावरण है वह वहुत-कुछ ऐसा द्वी है। कविको कहना है कि

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प्रतिष्ठानपुर नगर था जहाँ बहुत शोभा थी वह शुरू करेगा--जहाँ सुन्दरियोंके चरण-नुप्रके दाब्दोंको अनुसरण करनेवाले राजहंस अपनी चोंचोंसे किसलय त्याग करके प्रतिराव मुखर हो उठते है, जहाँके यज्ञ।/ग्निसे निकले धुएँसे आकाद्य ऐसा काला हो उठता है कि उन्हें देखकर क्रीड़।मयूर चन्द्रकान्त मणियोंके शिला- तलपर नाच उठते है, जहाँ के घरोंमें लगी मणियोंसे ज्योति निकल निकल कर अंघकारको इस प्रकार दूर कर देती हँ कि अभिसारिकाओंकी प्रेमयात्रा कठिन हो जाती है, जहाँ के मंदिरों और स्तू पिकाओंकी पताकाएं सूर्यकिरणोंको अ्रच्छा- दित कर देती हैँ जिनमें संगीत वनिताएँ बिना छातेके ही आरामसे चला करती हैं, जहाँ कलकंठा कोकिलाएँ अपनी कृकसे मानिनियोंके हू दय क्रेद कर प्रिय- जनोंका दौत्य संपादन करती हँ...इत्यादि इत्यादि और फिर बहुत बादमें जाकर कवि कहेगा कि यह प्रतिष्ठानपूर हैँ | इन पद्चबद्ध गाथाशंकी परंपरा बहुत दिनों तक इस देशमें चलती रही है

€्रे इन्द्रजाल

इन्द्रजालका अर्थ है इन्द्रियोंका जाल था आवरण अर्थात वह विद्या जिससे इन्द्रियाँ जालसे ढेंकी-सी आच्छादित हो जायेँ भारतवर्षकी इच्रजालकी अद्भुत ग्राइचयंजनक लीला सारे संसारमें प्रसिद्ध थी राजसभामे ऐन्द्रजालिकोर्के लिये विशिष्ट स्थान दिया जाता थ। तन्‍त्र अ्रच्धोंमें इच्रजालकी अनेक विधियाँ बताई गई है दत्तात्रेय तन्‍्त्रके ग्यारहवें पटलमें दर्जनों ऐसी विधियाँ दी हुई हैं जिससे आदमी कबूतर, मोर आ्रादि पक्षी बतकर उड़ने लग सकता है; भारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन आदियें बिना अभ्य्रासके सिद्धि प्राप्त कर सकता है, पति पत्नीको और पत्नी पतिको वश कर सकती है; प्रयोग करनेवाला ऐसा अ्रंजन लगा सकता है जिससे वह स्वयं अदृश्य होकर औरोंको देख सके और इसी प्रकारके सैकड़ों कर्म कर सकता है इंच्धजाल तन्‍्त्र-संग्रह नामक ग्रंथमें हिख्र जन्तुओंको

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निवारण करनेका, स्तम्भित करनेका और निश्चेप्ट कर देनेका उपाय बताया गया है, आग बाँधता, आग लगी होनेका भ्रम पैदा करना--दृसरोंकी वृद्धि बाँध देना आदि झद्भूत फलोंकी व्यवस्था है। इन कार्योके लिये मन्त्रकी सिद्धिके साथ ही द्रव्य-सिद्धिका भी विधान है उदाहरणके लिये चलती हुईं नावको रोक देने- के लिये यह उपाय बताया गया है कि भरणी नक्षत्रमें क्षीर-काप्ठकी पाँच अंगुलकी कील नौकामें ठोक देनेसे निश्चित रूपसे नौका स्तम्भन हो जायगा, परन्तु इसके लिये जप आदिकी भी व्यवस्था दी गई है इस प्रकारके सैकड़ों नुस्खे बताए गए हँ। और इस प्रका रके नुस्खे वतानेवाले तन्त्र-क्रथोंकी संख्या भी बहुत अधिक है इन पुस्तकोंक पाठमात्रसे कोई सिद्धि प्राप्त नहीं होती, क्योंकि तन्त्रोंमें बार बार याद दिला दिया गया है कि इन क्रियाओंक लिये गुरुकी उपस्थिति आवश्यक है रत्नावलीसे जाना जाता है कि झूद्र और संबर इस विद्य,के आचार्य माने जाते थे ये इन्द्रजालिक पृथ्वीपर चाँद, आकाशतसोें पर्वत, जलमे भ्रर्नि, मध्याह्ल कालमें सन्ध्या दिखा सकते थे, गुरुके मन्त्रकी दुहाई देकर घोषणा करते थे कि जिसको जो देखनेकी इच्छा हो उसे वही दिखा सकेंगे राजसभामे राजाकी आज्ञा पाकर वे शिव, विष्णु, ब्रह्मा आदि देवताशोंको प्रत्यक्ष दिखा सकते थे रत्नावलीमें राजाकी आज्ञा पाकर एक ऐन्द्रजालिकने कमल-पृप्पमें उपविष्ट ब्रह्माको, मस्तकर्में चद्धकलाघारी शिवको, झंख-चक्र-गदा-पद्म-धारी दैत्यनिषृदन विष्णुको, ऐरावतपर समासीन इन्द्रको तथा नृत्यपरायण दिव्य नारियोंको दिखाया था-- एप ब्रह्म सरोजे रजनिकरकलाशेखर:ः शंकरोश्य॑ दोभिदत्यान्तकोज्सा सघनुरसिगदाचत्रचि ह्लैस्चतुर्भि:, एपोष्प्यरावतस्थस्त्रिदशपतिरमी देवि देवास्तथान्ये त्यन्ति व्योम्नि चेत।शइचलचरणरणान्नूपुरा दिव्यनाये: ॥। (रत्ना० ४-७४) इतना ही नहीं, उसने अन्तःप्रमें ग्राग लगानेका भ्रम भी पैदा कर दिया था। आग़की लपटोंसे बड़े-बड़े मकानोंके ऊपर सुनहरा कंगूरा-सा दीखने लगा था। असद्य तेजसे उद्यानके वृक्षोंक पत्ते तक झुलसते हुए जान पड़ने लगे थे और क्रीड़ापवंतपर धुआँका ऐसा अम्बर लग गया थ। कि वहू्‌ एक सजल मेघकी भाँति दीखने लगा था (४७५) इस विद्या्के आचारय॑ सम्वर या शवर नामक असूर है कालिंकापुराणसे जान पड़ता है (उत्तर तन्‍्त्र, ६० अध्याय) वेश्याओं, नत्कों और रागवत्ती और- तोंका एक उत्सव हुआ करता था जिसे शावरोत्सव कहते थे इस उत्सवकी विशेषता यह थी कि इस दिन (श्रावण कृष्ण दशमी ) को अश्लील शब्दोंका उच्चा-

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रण किया जाता था और नागरिकोंमें एक दूसरेको गाली देनेकी प्रथा थी विश्वास किया जाता था कि जो दूसरेको अश्लील गाली नही देत। और स्वयं दूसरोंकी अ्रद्लील गाली नही सुत्तता उसपर देवी अप्रसुन्न होती हैं। शावर तलन्‍्त्र या इच्द्र- जाल विद्याका एक बहुत बड़ा हिस्सा वशीकरण विद्य, है, शायद इसीलिये शाब- रोत्सव में वेश्याओं का ही प्रधान्य होता था |

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समृगया विनोद

नागरिकोंके लिये मृगया भी एक अच्छा-सा विनोद था अ्रजस्तामें जातककी कहानीको आश्रय करके (१७ वीं गुहामें) मृगया-विहारका एक सुन्दर चित्र दिया है राजा घोड़ेपर सवार है यद्यपि दौड़ते हुए घोड़ेके साथ- साथ छत्रधरका छत्र लेकर चलना कुछ समझमें नहीं आता, पर यहाँ छत्र है संभवतः राजकीय चिह्नहोनेके कारण यह प्रतीकका ही कार्य कर रहा है आगे कुछ वन्य जन है जो सम्भवतः आजकलक हाँका' देनेवालोंके पूर्वाधिकारी है स्त्रियोंकी संख्या काफी है, कुछ तो घोड़ोंपर भी है ! कुत्ते भी हैं जो आगे दौड़ रहे हैं मृगोंकी भयत्रस्त व्याकुलता बहुत सुन्दर अंकित है कादम्बरीमें वन्य लोगोंकी मृगयाका बड़ा ही मनोहर वर्णन हूँ, पर वह उनका विनोंद नही था, पेट भरनेका साधन था। उसमें भी कुत्ते प्रमुख रूपसे थे। शकुन्तला नाटकमें भी दुष्यन्तके शिकारका वर्णन मिलता है ! वह झाखेटक कई दिनों तक चलता रहा और ऊबड़-खाबड़ और भयंक्रर स्थ,नोंमें घृमते-घूमते बिचारे माढव्यको वड़ा कष्ट हो रहा था। राजा धनुष लेकर शिकार खेलता था और निरन्तर घनुष- की ज्याके स्फालनसे उसके शरी रका पूर्व भूग ककश हो आया था ऐसा जान पड़ता है कि कालिदासके युगमें मुगयाको बहुत अच्छा विनोद नही भाना जाता था वनके निरीह प्राणियोंको अकारण कष्ट पहुँचाना उचित भी नही है इसीलिये सेनापतिके मुखसे कविने कहलवाया है कि लोग झूठ-मूठ ही इस विनोदको व्यसन

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बताया करते हैँ इससे अच्छा विनोद और क्या हो सकता है ? राजाके लिये यह अत्यन्त आवश्यक विनोद है, क्योंकि इससे शरीरकी चर्वी कम हो जाती हँ; तोंद घट जाती है, शरीर उठने बैठनेमें तत्पर हो जाता हैं। पशुञ्नोंके मुखपर भय और कोघक भाव दिखाई देते हँ और भागते हुए लक्ष्यपर निशाना मारनेका अभ्यास होता हँ--इससे सन्दर विनोद और क्या हो सकता है ?--

मेदच्छेदकृओोदरं लघू भवत्युत्थानयोग्य॑ बपु:

सत््वानामपि लक्ष्वते विकृतिमच्चितं भयक्रोधयों:

उत्कप : धन्विनां यदिपवः: सिद्धचन्ति लक्ष्ये चले,

भिथ्यव व्यसनं॑ वदन्ति मृगयामीदुगू विनोद: कुत

राजा वाणह॒स्ता यवनियों द्वारा परिवृत था और ये यवनियाँ मृगयावेज्यी : होनेपर भी पुप्पधारिणी थीं वे राजाके अस्त्र-शस्त्रकी रखवाली करती थीं मेगस्थनीजने चन्द्रग॒प्तको इस प्रकारकी दासियोंसे घिरा देखा था एक शअज्ञात- नामा ग्रीक लेखकने बताया हैं कि ये सुन्दरियाँ जह्मजोंमें भरकर भृगरुकच्छ नामक भारतीय वन्दरयाह पर उतारी जाती थीं और वहाँसे इनका व्यवसाय होत,था भारतीय नागरकोंकी विलास-लील,के अन्तरालमें करण कहानियोंकी परम्परा कम नहीं है ! सो यह मृगया विनोद सदोष माना जाकर भी मनोरंजनका साधन माना

अवध्य जाता था भारतीय कथा-साहित्यमें इस मृगया-विहारका वर्णन श्रत्व- घिक मात्रार्मे हुआ थ।। लेकिन कितना भी मनोरंजक विनोद यह क्यों नहों, और कितना भी लाभदायक क्‍यों हो, प्रेम-व्यापारके सामने यह फीका पड़ ही जाता था कहानियोंक मृगयाविहारी राजपृत्र प्रायः किसी किसी रोमांसके चक्‍्करमें पड़ जाते थे, मृगोंके पीछे दौड़नेवाले घोड़ेकी रास तब ढीली होती थी जब प्रिया्क साहचर्यक कारण उनकी आँखोंमें मर्घ भ.वसे विलो- कनका उपदेश झलक पड़ता था किन्नर-मिथुन पकड़नेका कौतृहल तब शांत होता था जव स्वर्गीय अप्सराकी वीण की झनकार सुनाई दे जाती थी और अधिज्य धतुषको तभी विश्वाम मिलता था जब उससे भी अधिक वक्र भूकुटि सामने आा जाती थी यही एक मात्र शरण थी इसीकी छाया मिलनेपर भैसोंकों अपने विकराल सींगोंसे वास्-वार ताड़ित करके निपान-सलिलोंको गंदला बनानेकी छुट्टी मिलती थी, इसीका सहारा पानेपर हरिणोंके झुप्ड यादार व॒क्षोंके नीचे जुयाली करनेका अवसर पाया करते थे; और इसीकी शरण गहनेपर दुघंट वरा- होंको जलाशयोंमें उर्ग हुए मोथे कुतरनेकी स्वाघीनता मिल पाती थी क्‍योंकि इसके विना ज्यावंघक शिथिल होनेकी संभावना ही नही थी

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गाहनतां महिषा निपानसलिल श्यज्रमहुस्ताड़ितम्‌ छायावद्धकदम्बक॑ मूगकुल॑ रोमन्थमभ्यस्यतु विद्ञव्ध॑ क्रियतां वराहपतिभिमुस्ताक्षति. पंल्वले विश्वा्म लभतामिदं शिथिलज्यावन्धमस्मद्धनु: लेकिन यह तो काव्य-ताटकोंमें होना ही चाहिए। ऐसे रोमांसके देडयसे ही तो ये साहित्य लिखे जाते हैं। यूत हो तो भी वहीं जाके गिरेगा, प्राणि-स माहय हो तो वहीं पहुँचेगा, मल्‍ल-विद्य। हो तो वही जाकर रुकेगी और मृगया-विनोद हो तो भी वही अटकेगा। इसका यह मतलब तो हो ही नहीं सकता कि वास्तविक जीवनमें भी शिकारियोंको ऐसे रोमांस नित्य मिल जाया करते थे

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दूत और समाह्नय

प्राचीन साहित्यके मनोविनोदमें यू तका स्थ.न था यह दो प्रकारका होता था-- अक्षक्रीड़ा और प्राणियूत विश्वभारती पत्रिका खंड अक मेंपं॑० श्री हरिचरण वन्दयोपाध्यायने इस चिषयमें एक श्रच्छ: लेख दिया है। उस लेखका कुछ आवश्यक अंश यहाँ उद्धुत किया जा रहा है :

“अक्षक्रीड़ा भर प्राणियूत दोनों ही व्यसन हूँ मनुने (७।४७-४८) अट्टारह प्रकारके व्यसनोंका उल्लेख किया है जिनमें दस कामज हैं और ग्राठ क्रोघज हैं। काम शब्दका अर्थ इच्छा है और कामज व्यसनका मूल लोभ है अर्थात्‌ पण और प्रतिपण रूपसे लभ्य धनके उपभोगकी इच्छा ही इसका कारण है इसीलिये इसकी गणना कामज उ्यसनोंमें है यह व्यसन दुरन्त है श्रर्थात इसके अन्तमें द्‌ :ख होता हँ और जीतनेवाले भर हारनेवाले के बीच बैर उत्पन्न करता है अक्षक्रीड़ाका इतिहास वेदोंमें भी पाया जाता है ऋग्वेदके दसवें मंडलके ३४ वे सुकतमें १० ऋचाएं हूँ जिनका विषय अक्षक्रीड़ा है। वैदिक-यगमें घहेरेका फल प्रक्ष-रूपर्में व्यवहृत होता था, इसका शारि-फलक (700४8080 )

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इरिण' कहलाता था सायण-भाष्यर्मे इसके अर्थके लिये आस्फार शब्दका प्रयोग किया गया है उक्त सूक्‍तकी आठवीं ऋचामें त्रिपंचाशः क्रीड़तिप्रात कहा गया है, जिसका अर्थ है कि अक्षक ५३ ब्रात (संघ) शारि-फलकपर क्रीड़ा करते है इसका मतलब यह हुआ कि द्यूतकी ५३ सभाएँ थीं जान पड़ता है कि वैदिक-यू गे अक्षक्रीड़का विशेष हुपसे प्रचार था किन्तु सारे ऋग्वेदमें ऐसी एक भी ऋचा नहीं है जिसमें द्यतकी प्रशंसा की गई हो वल्कि ऐसे प्रमाण मिलते हूँ कि चूतकार समस्त धन हारकर ऋणमुक्तिक लिये चोरी किया करते थे इसीलिये ग्रण और अक्ष-कितव (जुआड़ी) की निदाकी ऋचाएं पाई जाती हँ महाभारत, पौराणिक कथाश्रोंका महासमुद्र है। इसके सभा-पवेमें जो दूत पर्व और अनुद्यूत-पर्व है उसमें पाश-क्रीड़.का दुप्परिण,म विस्तारपूर्वक दिखाया गया है चकुनिक कपट घूतसे पराजित होकर राज्य-भअ्रप्ट पांडवगण वनवासी हुए थे कुछक्षेत्रक भीषण नर-संहारके रुपमें यही व्यसन कारण बना था निपव-राज नल, अक्ष-क्रीड़ार्मे ही पराजित होकर पत्नीसमेत वन गए थे और नाना दुःख क्लेश सहनेके बाद अयोध्या राजा ऋतुपणंके साथी बने थे ।” यान्नवल्क्य-संहिताके व्यवहाराध्यायमें बृत-समाह्य नामका एक प्रकरण इसका विपय हैं दूत और समाह्वय निर्जीव पाशादिसे खेलनेवाली क्रीड़,को कहते हैँ इसमें जिस घूतका वर्णन उससे जाना जाता है कि दूतर्में जीते पणमें राजाका हिस्सा होता था और सभिक अर्थात्‌ जुआ खेलानेवाला बूर्त॑ कितवोंसे रक्षा करनेकें लिये प्राप्य पण दिया करता था जो लोग कपटपूवक या घोखा देनेके लिये मन्त्र या औषधिकी सहायतासे जञ्मा खेला करते थे उन्हें राजा खयपद आदि चिह्नोंसे चिह्नित करके राज्यसे निर्दासित कर दिया करते थे चूत समभामें चोरी हो इसके लिये राजाकी ओरसे एक अव्यक्ष नियुक्त हुआ करता था। मेप, महिष, कुक्‍्कुट आवि हारा प्रवरतित पण या शर्तं बदकर जो क्रीड़ा हुआ करती थी उसे समाह्वव या समाहुय नामक प्राणिद्ृत कहा करते थे (यात्- वल्क्य, २, १६६-२००) दो मलल्‍्लों या पहलवानोंकी कुब्तीको भी समाहुय कहते थे नल राजानें अपने भाई पृप्करको राज्यका पण या दाव रखकर जो चत युद्धके किये झ्राद्धान किया था, उसे भी समाह्वयके अन्तर्गत माना गया है (सन्‌ ६, २-२२४) |

हे ओे चऑ

आजकल जिसे शतरंज कहते हैँ वह भी भारतीय मनोविनोद ही है

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इसे प्राचीनकालमें चत्ुरंग' कहते थे हालहीमें शूलपाणि आचार्यकी लिखी हुईं चत्रंग-दीपिका' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई हैं इसमें चत्रंग-कीड़ाका

वेस्तार-पर्वक विवेचन हँ ||

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मनुने द्यृत और प्राणि-समाह्य दोनोंहीको राजाके द्वारा निषिद्ध करनेकी व्यवस्था दी है अग्योकने अपने राज्यमें प्राणि-समाह्नयका निषेध कर दिया था फिर भी प्राणिसमाह्य ध्राचीन भारतीय नागरिकोंके मगोविनोदका साधन वना ही रहा | मेप, तित्तिर, लाव आदि प्राणियोंकी लड़।ई पर वाजी लगाई जाती थी इन लड़ाइयोंको देखतनेके लिये तागरिकोंकी भीड़ उमड़ पड़ती थी, फिर भी यह विनोद उस उनन्‍्मादकी सीमा तक इस देशमें कभी नहीं पहुँचा जिसका परिचय रोम आदि प्राचीन देझ्योर्के इतिहासमें मिलता है यह नहीं समझना चाहिए कि यूतका कुछ अधिक रसमय और रिदोष पहलू था ही नहीं भारतीय साहित्यका एक श्रच्छा भाग प्रेमियोंकी द्यूतलील।का वर्णन है उसमें भारतीय मनीषाका स्वाभाविक सरस प्रवाह सुन्दर रूपमें सु र- क्षित है विवाहके अवसरपर दुलहिनकी सखियाँ वरको द्यूतमें ललकारती थी और नाना प्रकार पण रखकर उसे छकानेका उपाय करती थी विवाहके वाद वर-वधू आपसमें नाता भावके रसमय पण रखकर यदूतमें एक दूसरेको ललकारतें थे और यद्यपि इन प्रेमद्यूतोंमें हारता भी जीत थी और जीतना भी तथापि प्रत्येक पक्षमें जीतनेका ही उत्साह प्रधान रहता था -- भोग: यद्यपि जये पराजये यूनोमेनस्तदपि वांछति जेतुमेव

हद - सललविद्या

मल्लविद्या भारतवपंकी अति प्र।चीन विद्या है झ्ाज भी उसका कुछ- न-कुछ गौरव अवशिष्ट रह ही गया है। प्राचीन भारतमें मल्लोंका बड़ा सम्मान था| प्रतिस्पर्दी मल्लोंकी कुश्ती नागरिकोंक मनोरंजनक प्रधान साधनोंमें थी महाभारतके विराट पर्व (१२ वें अध्यायमें ) में भीम और जीमृत नामक मल्लकी कुरतीका बहुत ही हृदयग्राही चित्र दिया हुआ है दवश्शकोंसे भरी हुई मल्ल-रंग-

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शालामें भीम बलशाली शादलकी भाँति शिथिल गतिसे उपस्थित हुए उन्हें अपने पहचाने जाने की शंका थी इसीलिये संकुचित थे रंगशालामें प्रवेश करके उन्‍होंने पहले मत्स्यराजको अभिवादन किया, फिर कक्ष। (काछा) बाँघने लगे उनके काछा बाँधते समय जनमंडलीमें अपार हषंका संचार हुआ इस वर्णनसे प्राचीन भारतकी मल्ल-मर्यादाका अच्छा परिचय मिलता है। लॉगोट अखाड़में बाँधनेकी प्रथा थी प्रतिद्वंद्वी एक दूसरेको ललकारकर पहले बाहुयुद्धमें भिड़ जाते थे और फिर एक दूसरेक नीचे घुसकर उलाट देनेक प्रयत्त करते थे ।* इसके बाद नाना कौशलोंसे एक दूसरेको पछाड़ देनेका प्रयत्न करते थे मह्लोंके हाथों ककक्‍्कट अर्थात्‌ घटठे पड़े होते थे इस प्रसंगर्में महाभ।रतमें नाना प्रकारके मत्ल- विद्याके पारिभाषिक शब्द भी आए हैँ अर्जुन मिश्रने अपनी भारतदीपिकामें अन्य शास्त्रोंसे वचन उद्धुत करके इन शब्दोंकी व्याख्या की है क्ृतदाव' सारने- को और 'प्रतिकृत' उसे काट देनेको कहते थे चित्रमें नाना प्रकारके मल्लबंधर्क दाँव चलाए जाते थे परस्परके संघततको सन्निपात', मुवका मारनेको अवधूत, गिराकर पोस देनेको 'प्रमाथ', ऊपर अन्‍्तरीक्षमें बाहुओंसे प्रतिहवन्द्दीको रगेदरंको “उन्‍्मथन' और स्थानच्यूत करनेको प्रच्यावन' कहते थे नीचे मुखवाले प्रति- इन्द्वीको अपने कन्धेपरसे घुमाकर पटक देनेसे जो शब्द होत। थ। उसे 'बराहोदूत- निस्वन' कहते थे फैली हुई भुजाओंसे तर्जनी और अंगुष्ठके मध्य भागसे प्रहार करनेको 'तलारूय और अद्धंचद्धक समान मल्लकी मृद्ठीको वच्ञ' कहा जाता था फैली अंगूलियोंवाले हाथसे प्रहार करनेको प्रह्मति” कहते थे इसी प्रकार पैरसे मारतेको पादोद्धत', जंघ.झोंसे रमेदतेको शवघट्ून', जोरसे प्रतिदवन्द्दीको अपनी ओर खीच लानेको 'प्रकषंण', घुमाकर खीचनेको अभ्याकर्ष', खीचकर पीछे ले जानेको विकर्षण' कहते थे इसी प्रकार भ|गवत (१०.४२-४४) में कंसकी मल्लशालाका बड़ा सुन्दर चित्र दिया हुआ है पहलवानोंने उस रंगशालाकी पूजाकी थी, तूर्यभेरी आदि वाजे बजाए गए थे नागरिकोंके बैठनेके लिये बने हुए मञ्चोंको माला ओर पताकाओोंसे सजाया गया था नगरवासी (पौर) और देहातक रहने वाले (जानपद) ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नागरिक तथ। राजकमंचारी अपने-अपने निर्दिष्ट स्थानों पर बैठे थे। कंसक! आसन बीचमें थ। और वह अनेक मण्डलेश्वरोंसे घिरा हुआ था सब लोगोंके शासन ग्रहण कर लेनेके बाद मलल तालका तूयय॑ बजा और सुसज्जित मल्ल लोग अपने-अपने उस्तादोंक साथ रंगशालामें पधारे। नन्‍्द गोपोंको भी बुलाया गया, उन्होंने अपने उपहार राजाको भेंट किए और यथा- स्थान वैठ गए। इस पुराणमें मल्‍्ल-विद्यके अ्रनेक पारिभाषिक शब्दोंका उल्लेख हूँ परिश्रामण-विक्षेप-परिरम्भ-अवयातन-उत्सपंण-अपसपंण--अन्योन्यप्रति-

१७० ]

राव-उत्यापन-उन्नयन-स्थापन-चालन आदि (भ.गवत, £०-४४-४-५२ पारिभापषिक घच्दोंका प्रयोग क्रिया गया दर्भाग्यवद्

/॥# वि 6वी थॉ.| तर] र्न्ध् है| रण लत ९] /| प्र 5 श्र | 0 हा है

अ्त्य अब प्राप्त नहीं हैं। पुराणों और टीकान्रोंयें ही बोझ बहुत साहित्य वच रहा |

2ि॥#

वनोदिक शास्त्र

राजणेखरने काव्य-्मीमांसाके आरम्भमें ही काव्य विद्य.र्क अट्टारह

अंगोंके नाम गिनाए है, जिलमें एक वैनोदिक भी हैं | अलब्कार-आास्त्र्मे इस

प्रकारका अंग-विभाग साधारणत:ः नहीं पाया जाता और इसलिये राजशेखरकी काव्य-मीर्मासाक एक अंशका उद्धार होनेपर अब पंडितेको यह नयी बात मालम हुई तो इन अंगों और इनके प्रवत्तंक आचारयोंक सम्वन्धर्मे नाना भाँतिकी जल्पनवा- कल्पना चलने लगी इन अंगोमेंसे कई तो निश्चित रूपसे ऐसे हैँ जिनका परिचय अलंकार-शास्त्रके भिन्न-भिन्न ग्रन्थोंसे मिल जाता हैँ पर कुछ ऐसे भी हूँ जो नयेसे लगते हूँ वैनोदिक एक ऐसा ही अज् है [

“वैनोदिक नाम ही विनोदसे सम्बन्ध रखता हैँ कामश्ास्त्रीय ग्रन्यों- में (काम सूत्र, १-४) मदपानकी विधियाँ, उच्चान और जलाशय आदिकी क्रीड़एँ, मुर्ग और वेरों आदिकी लड़ाइयाँ, चूत कीड़ाएं, चल या सुख रात्रियाँ, कौमूदी जागरण अर्थात्‌ चाँदनी रातमें जागकर कीड़ा करना इत्यादि बातोंको विनोदिक' कहा गया है। राजशेखरने इस अंगके प्रवत्तंकका नाम कामदेव” दिया है, इसपरसे पण्छितोंने अनुमाच शिड़ाया हूँ कि कामश्षास्त्रीय विनोद और काव्यशाास्त्रीय विनोद एक ही वस्तु होंगे। परन्तु कामदेव नामक पीराणिक देवता और वैनोदिक ब्ास्त्र-प्रवत्तंक कामदेव नामक आचार्य एक ही होंगे, ऐसा अनुमान करना दीक नहीं भी हो सकता है। राजा भोजके सरस्वतीकप्ठाभरणसे” यह अनुमान और भी प्‌ प्ट होता हैँ कि कामोद्दीपक क्रिया-कलाप ही वस्तृतः वैनोदिक समझे जाते

[ १७१

होंगे शारदा-तनयके भावप्रकाश'में नाना ऋतुओंको लिये विलास-सामग्री बताई गई है वह परम्परा वहुत दूरतक, ग्वाल और पद्माकर तक आकर अपने चरम विलासपर पहुंचकर समाप्त हो गई हूँ अत: इन वैनोदिक सामग्रि- योंका कामझास्त्रवरणित सामग्रियोंसे मिलना तो आइचयेका कारण हो सकता है और यही सिद्ध करता है कि कामसूत्रमें जो कुछ वैनोदिकके नामसे दिया गया है वही काव्यश्ञास्त्रीय वैनोदिकका भी प्रतिपाद्य हैं

. कादम्वरीमें वाणभट्टनें राजा शूद्रककी वर्णनाके प्रसंगर्मे कुछ एसे काव्य-विनोदोंकी चर्चा की है जिनके अभ्याससे राजा कामशास्त्रीय विनोदोंके प्रति वितृप्ण हो गया था हमारा-अनुमान हैँ कि ऐसे ही विनोद काव्य- शास्त्री विनोद कहे जाते होंगे वे इस प्रकार हँ--वीण।, मुदंग ग्रादिका वजाना मृगया, विद्वत्सेवा, विदग्घों यानी रसिकोंकी मंडलीमें काव्यप्रवन्धादिकी रचना करना, आख्यायिका आदिका सुनना, आलंख्य कम, अक्षरच्युतक, मात्र-च्यूतक, विदुमती, गूढ़ चतुर्थपाद, प्रहेलिका आदि बूद्रक इन्ही विनोदोंसे काल-यापन करता हुआ “वनिता-संभोग-पराह्ममुख हो सका था ! यहाँ स्पप्ट ही कामझास्त्रीय विनोदोंके साथ इन विनोदोंका विरोध बताया गया है क्योंकि कामशास्त्रीय विनोदोंका फल और चाहे जो कुछ भी हो, वनिता-संभोग-पराझुमुखत।' नहीं हैँ उन दिनों सभा और गोप्टठियोंमें इन विन्ोदोंकी जानकारीका बड़ा महत्त्व था। हमने पहले ही लक्ष्य किया है कि दण्डीने काव्यादशं (१-१०५) में कीर्ति प्राप्त करनेकी इच्छावाले कवियोंको श्रम-यूवक सरस्वत्तीकी उपासनाकी व्यवस्था दी हूँ क्योंकि कवित्वशक्तिके द॒ुबंल होनेपर भी परिश्रमी मनुप्य विदग्ध गोप्ठि- योंमें इस उप्रयोंकों जानकर विहार कर सकता था :

तदस्ततंन्द्रेरनिशं सरस्वती

श्रमादुपास्था खलू कीतिमीप्सुभि:।

कृझों कंवित्वेषपि जनाः कृतश्रमाः

विदग्वगोप्ठीयपू विह॒र्तूमीशते ॥॥

यह स्पष्ट कर देना उचित हैँ कि यहाँ यह नही कहा जा रहा कि काम-

शास्त्र में जो कुछ कहा गया है वह निश्चित रूपसे काव्यगास्त्रीय विनोदोंमें नही भरा सकता। हमारे कहनेका तात्पय यह है कि काव्यक वैनोदिक अ्ंगके नामसे जो बातें मिलती हूँ वही हु-व-हू कामशास्त्रीय वैनोदिक नहीं हो सकतीं और कही-कही निश्चित रूपसे उल्लेख मिलता है कि काव्यशास्त्रीय विनोदोंक श्रम्याससे राज- कुमारगण कामशझास्त्रीय विनोदोंसे बच जाया करते थे। स्वयं वात्स्यायनके “कामसूत्र में इस प्रकारकी काव्य-कलाओोंकी सूची हूँ जो यद्यपि कामशास्त्रीय विनोदोंकी सिद्धिकें लिये गिनाए गए हँ, तथापि उन्हें वनिता-संभोग-पराझ -

श्छ२ ]

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मुखता के उद्देश्यसे कोई व्यवहार करना चाहे तो शुद्वककी भाँति निःसंझ्यय उसका उपयोग कर सकता है।

वात्स्वमायनकी ६४ कतलाओंकी लम्बी सूचीमें कुछका तम्बन्ध विशुद्ध मनोविनोद्से है जो चीनी तुकिस्तानकी चंगवाजी या रोमन पशु-युद्धसे मिलती जुलती हैं। इनमें भड़ों, मुर्गो और तित्तिरोंकी लड़ाई, तोतों और मैतोंको पढ़ाना है और ऐसी ही और-और वातें हैं। कुछ प्रेमके घात-प्रतिधातमें सहायक हैं, जैसे थ्रियाके कपोलॉपर पत्राली लिखना, दाँत और वस्च्रोंका रंगना, फूलों और रंगे हुए चावलोंसे वाना प्रकारके नयवाभिराम चित्र बनाना इत्यादि। और वाकी विशुद्ध साहित्यिक हँ जिनके लक्षण यद्यपि काव्य-अन्धोंमें मिल जा कते हैं, पर प्रयोगकी मंगिमा और योजना अपूर्व और विलक्षण है

उन दिनों वड़ी-बड़ी योष्ठियों, समाजों और उच्चान-यात्रओंका आयोजन होता था, उनमें नाना-ताना प्रकारके साहित्यिक सनोविनोदोंकी घूम मच जाती

थी कुछ मनोविनोदोंकी चर्चा की जा रही है

(१) प्रतिमाला या अन्त्याकषरीमें एक आदमी एक इलोक पढ़ता थ। और उसका प्रतिपक्षी पष्डित इलोकके अन्तिम अक्षरसे शुरू करके दूसरा अन्य घ्लोक पढ़ता यह परम्परा लगातार चलती जाती थी ॥। (२) दुर्वाचक, योगके लिये ऐसे कठोर उच्चारणवाले शत्दोंक। इलोक सामने रख, जाता था कि डिसे पढ़ सकना वड़ा मू दिकिल होता उदाहरणके लिये जयमंगलाकारने यह इलोक बताया है ++ ;

दंप्ट्राग्रदर्धा प्रग्योद्र,क्‌ क्षमामग्वन्तः स्थामुन्चिक्षप दवश्रुद्क्षिद्धचुत्विक स्तुत्यों युप्मानसोध्वय्यात्‌ सर्पात्कितु:

(३) सानसीकला एक अच्छा साहित्यिक मनोविनोद थी कंमलके या अन्य किसी व॒क्षकते पुष्प अक्षरोंकी जगहपर रख दिए जाते घे इसे पढ़ना पड़ता थः पढ़नेवालेकी चातूरी इस बातपर निर्भर करती थी कि वह इनका इंकार उकार आदिकी सहायतासे एक ऐसा छन्‍्द बना के जो सा्थंक भी हो और छन्दके नियमोंके विरुद्ध भी हो यह विन्दुमतीसे कुछ मिलता जुलता है। लेकिन इस कलाका और भी कठिन रूप यह होता था कि पढ़नेवालेके सामने फूल आदि कुछ भी रखकर केवल उसे एक वार सुना दिया जाताथा कि यहाँ कौनसी मात्रा है और कहाँ अनुस्वार विसगे है। (४) अक्षरमृप्टि दो तरहकी होती भी साभासा और निरवभः)सा साभासा संक्षिप्त करके बोलनेकी कला हैं, जैसे फ.ल्यूण-चैत्र-वेद्याख' को फा चे कहना। इस प्रकारके संक्षिप्ती- कंत इलोकोंका अर्थ निकालना सचमुच टेढ़ी खीर हैं निरवभ,सा था निराभ.ता करचेका

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अक्षरमुप्टि युप्त भावसे वातचीत करवेकी कला हैं इसके लिये उन दिनों नाना

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भाँतिक संकंत प्रचलित थे हथेली और मृट्ठीको भिन्न-भिन्न आकारमें दिखाने से भिन्न-भिन्न वर्ग सूचित होते हैं जैसे कवर्गके लिये मुट्ठी बाँधना, चवर्गंके लिये हथेलीको किसलयके समान बनाना, इत्यादि बर्ग बतानेके बाद उसके अक्षर बताए जाते थे और इसके लिए अंगूलियोको उठाकर काम चलाया जाता था। जैसे कहना है तो पहले म्‌ट्ठी बाँधी गई और फिर तीसरी अंगूली उठाई गई इस प्रकार अक्षर तय हो जानेपर पोरोंसे या चुटकी वजाकर मात्राकी संख्या बताई जाती थी पुराने संकैत्तोंक/ एक इलोक इस प्रकार है : मृष्टि: किसलय॑ चैवं घटा त्रिपताकिका पताकां कुशमृद्राद्यमुद्रा वर्गषू. सप्तसू ॥॥ ऐसे ही नाना प्रकारके साहित्यिक मनोविनोद उन दिनों काफी प्रचलित थे अब यदि इस प्रकारके समाजमें कविको कीति प्र'प्त करना है तो उसे इन विषयोंका अभ्यास करना ही होगा यही कारण है कि भारतीय साहित्यमें यद्यपि 'रस' को काव्यका श्रेष्ठ उपादान स्वीकार किया गया है तथापि नाना प्रकार- _ की शब्दचात्री और भ्रर्थचातुरीको भी स्थान दिया गया है

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प्रकृति की सहायता

भारतवर्षका नक्षत्र-तारा-खचित नील आकाश नद-चदी पर्वंतोंसे शोभाय- मान विज्ञाल मैदान और तृण-शाइलोंसे परिवेष्ठित हरित वनभूमिनें इस देशको उत्सवोंका देश बना दिया है हमने पहले ही लक्ष्य किया है कि वसन्‍्तागमके साथ ही साथ किस प्रकार भारतीय चित्त आह्वाद भौर उल्लाससे वाच उठता था। मदनपूजा, कुसूम-चयन, हिन्दोल-लीला, उदकक्ष्वेडिका आदि उत्लासपूर्ण विनोदोंसे समग्र जनचित्त आन्दोलित हो उठता था राज अन्तपुरसे लेकर गरीब किसानकी झोपड़ी तक न्‌ त्य-गीत की सादकता बह जाती थी और जनचित्तके

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इस उल्लासको प्रकृति अपने असीम एऐश्वयंसे सौगुना बढ़। देती थी। और भला जब दिगनन्‍त सहकार (आम )-मंजरीक केसरसे मृच्छेमान हो, और मधुपानसे मत्त होकर भौरे गली-गली घूम रहे हों तो ऐसे भरे बसन्‍्तमें किसका चित्त किसी अज्ञात उत्कंठासे कातर नहीं हो जायगा ? सहकारकुसुमकंसरनिकरभरामोदम्‌च्छितदिगन्ते मधुरमधुविधुरमधूषे मधौ भवेत कस्य नोत्कंठा ? वसन्‍्त फूलोंका ऋतु है लाल-लाल पलाझाल, गुलाबी काञ्चनार, सुवर्णभ आरम्वध, मुक्ताफलक समान सिदुन्वार, कोमल शिरीष और दूधके समान इवेत मल्लिका आदि पुष्पोंसे वनभूमि चित्रकी भाँति मनोहर हो उठती है, पृष्पपल्‍लवोंके भारसे वृक्ष लद जाते है, कुसुम-स्तवकोंसे फूली हुईं मजजुल लताएं मलयानिलके झोंकोसे लहराने लगती हैँ, मदमत्त कोकिल और भ्रमर अभ्रकारण औत्सुक्यसे लोकमानसको हिल्लोलित कर देते है, ऐसे समयमें उत्कंठा होना ही श्रस्वाभाविक है वनभूमि तक जब नृत्य और वाद्यसे मदिर हो उठी तब मनुष्य तो मनुष्य ही है कौन है जो मल्लिकाका रस पीकर मतवाली बनी हुई भ्रमरियोंके कलगानको श्र दक्षिणी पवनरूपी उस्तादजीसे शिक्षा पाई हुईं वज्जुल (बेत) लताकी मंजरियोंका नरतन देखकर उत्सुक हो उठे ? पुराना भारतवासी जीवन्त था, वह इस मनोहारी शोभाको देखकर मुग्ध हो उठता था-- इह मधुपवधूनां पीतमललीमधूनां विलसति कमनीयः काकलीसंप्रदायः इह नटति सलील॑ मज्जरी बछ्जुलस्य प्रदिषदमुपदिष्टा. दक्षिणेतानिलेन ॥। सो, वसन्तके समागम्क साथ ही साथ प्राचीन भारतका चित्त जाग उठता था, वह नाच गान खेल-तमाश में मत्त हो उठता था वसन्‍्तके बाद ग्रीष्म पश्चिमी रेगिस्तानी हवा आग बरसाती हुईं त्रिलोककी समूची आ्राद्ृताको सोख लेती, दावाम्तिकी भाँति नील वनराजिकों भस्मसात कर देती, विकराल बवण्डरोंसे उड़ाई हुई तृण घूलि श्रादिसि आसमान भर जाता औरं बड़े-बड़े तालाबोंमें भी पानी सूख जानेसे मछलियाँ लोटने लगतीं---सारा वातावरण भयंकर अश्निज्वालासे धधक उठते--फिर भी उस यूुगका तागरिक इस विकट कालमें भी अपने विलासका साधन संग्रह कर लेता था कविने सन्‍्तोषक साथ नागरकके इस विलासका औचित्य बताया है भला यदि ग्रीष्म चहोता तो ये सफेद महीन वस्त्र, सुगन्धित कर्पूरका चूण, चन्दनका लेप, पाटल पुष्पोंसे सूसज्जित धारागृह (फव्वारेवाले घर), चमेलीकी माला, चन्द्रमाकी किरणें क्या विधाताकी सूष्टिकी व्यर्थ चीजें हो जाती ?

[ १७१

अत्यच्छ सितमंशु्क गुचि मधु स्वामोद्मच्छ रजः

कार्पूरं विषृतादरचन्दनकुचढ्ंद्वा: कुरंगीदक्ष: बारावेशन सपाठल विचकिलक्नग्दाम चच्द्रत्विपा धातः सुप्दिरिय वृर्थव तव नो ब्रीप्मोड्मविप्यक्यदि इस ग्रीप्मकालका सर्वोत्तम विनोद जलक्रीड़ा था जिसका काव्योंमें अत्यधिक वर्णन पाया जाता हैँ जलाशबोंमें विल्लासिनियोंक कानमें धारण किए हुए शिरीप पृपष्प छा जाते थे, पाती चन्दन और कस्तू रिकार्के आमोदसे तथा नाना रंगके अंग रागोंसे और ख्वद्भार-साधनोंसे रंगीन हो जाता था, जल-स्फालनसे उठे हुए जल-विन्दुओंसे आकाझमें मोतियोंकी लड़ी विछ जाती थी,जलाझ्षयर्क भीतरसे गूंजते हुए मृदंग घोषको मेघकी आवाज समझकर वबेचारें मयूर उत्सूक हो उठते थे, केचश्ों से खिसकेहए अदशोक-पल्लवोंसे कमल-दल चित्रित हो उठते थेत्रीर आनन्द-कल्लोलसे दिद्व मण्डल मुखरित हो उठता था प्राचीन चित्रोंमें भी यह जलकेलि मनोरम भावसे अंकितह। इस प्रकार प्रकृतिके तापकी तीक् पृप्ठभूमिमें मनृप्यचित्तका अपना इीतल विनोद विजयी वनकर निकलता था वसन्तमें प्रकृति मानवचित्तके अनु- कूल होती हूँ और इसलिये वहाँ आनुकूल्य ही विनोदका ह्वेतु हैँ पर ग्रीप्मके विनोदके मूलमें है विरोव प्रकृति और मन्‌प्यकी विरुद्ध मनादक्षाओंसे यह विनोद अधिक उज्ज्वल हो उठता था। एक तरफ प्रकृृतिका प्रकुपित निःशवास वड़े-वड़े जलाशयोंको इस प्रकार सुखा देता था कि मछलियाँ कीचड़में लोठने लगती थीं और दूसरी तरफ मनृप्यक्ते बनाए क्रीड़ा-सरोवरोंमें वारिविलासिनियोके कानोंसे खिसके

|

«५

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हुए झिरीय पुष्प--जो इस ग्रीप्मकालमें उत्तम और उचित कानोंके गहने हुआ करते थे--मुग्च मछलियोंके चित्तमें शैवाल जालका श्रम उत्पन्न करके उन्हें चंचल बना देते थे ! --

अमी शिरीयग्रसवावतंसा: प्रश्रंशिनों वारिविहारिणीनाम पारिप्लवा : कंलिसरोवरेपु शैवाललोलॉांसच्छलबन्ति मीनानू ग्रीप्म बीततें ही वर्षा आसमान मेघोंसे, पृथ्वी नवीन जलकी घारासे, दिद्याएँ विजलीकी चज्न्चल लतात्ोंसें, वायुमण्डल वारिवारासे, वनभूमि कुटज-

धुष्पोंसे और नदियाँ वाढ़से भर गई-- मेवेव्यॉम नवांबृभिवंसुमती विद्युल्लताभिक्धथणों धाराभिगगर्न वनानि कुदजै: पूरैवृर्ता निम्गगा।

समालती और कदम्ब, नीलोत्वल और कुमृद, मबूर और चातक, में और विद्युत्‌ वर्षाकालको अभिराम सौन्दर्यसें भर देते है प्राचीन भारत वर्पाका

१७६ ] के

उपभोग नाना भावसे करता था सबसे सुन्दर शौर मोहक विनोद झूला झूलना था जो आज भी किसी-त-किसी रूपमें बचा हुआ है मेघ-निःस्वन्त और ध।राकी रिमश्चिमके साथ झूलेकी अद्भुत तुक मिलती है (दे० पु० ३७)। जिस जातिने इस विनोदका इस ऋतुक साथ सामंजस्य ढूँढ़ निकाला है उसकी प्रशंसा करनी चाहिए। वर्षाकाल कितने श्रानन्द और औत्सुक्यका काल है उसे भारतीय साहित्यके विद्यार्थी मात्र जानते हैं। मेघदूतका अमर संगीत इसी कालमें सम्भव था। कोई आश्चर्य नहीं यदि केका (मोरकी वाणी) की आवाजसे, मेघोंके गर्जनसे, मालती-लताके पुष्प-विकास से, कदम्वकी भीनी-भीनी सुगन्धर्से और चातककी रटसे मनुष्यका चित्त उतृक्षित हो जाय--वह किसी अहैतुक ओऔत्सुक्यसे चज्न्चल हो उठे वर्षाका काल ऐसा ही है। यह वह काल है जब हंस ग्रादि जलचर पक्षी भी अज्ञात औत्सुक्यसे चंचल होकर मानसरोवरकी ओर दौड़ पड़ते है। राजहंस- के विषयमो काव्य-ग्रन्थोंमें कहा गया है कि वर्षाकालमें वह उड़कर मानसरोवरकी शोर जाने लगता है। बल्कि यह कवि प्रसिद्धि हो गई है कि वर्षा ऋतुृका वर्णन करते समय यह जरूर कहा जाय कि ये उड़कर मानसरोव रकी श्रोर जाते है (साहि- त्यदर्पण ७, २३) कालिदासके यक्षने अपने सन्देशवाही मेघको आइवस्त कराते हुए कहा था कि हे मेघ, तुम्हारे श्रवण-सुभग मनोहर गर्जनको सुनकर मानसरोवरके लिये उत्कंठित होकर राजहंस मुंहमें मृणाल-तन्तुका पाथेय लेकर उड़ पड़ेंगे और कैजास पर्वत तक तुम्हारा साथ देगे-- क॒तूँ_ यच्च प्रभवति महीमृच्छिलींप्रामवंध्याम्‌ | तच्छुत्वातें. श्रवणस्‌ भग॑ गजितं मानसोत्का: || आाक लासाहिसकिसलयच्छेदपाथेयवन्त: संपत्स्यंते नभसि भवतों राजहंसा: सहायाः ।। (मेघदूत - १-११) परन्त्‌ प्राचीन भारतका सहृदय अपने इस प्रिय पक्षीके उत्सुक हृदयको ही पहचानता था, उसने अपने क्रीड़ा-सरोवरमें ऐसी व्यवस्था कर रखी थी कि हंस उस वियोगी पश्चिककी भाँति दिल मूढ़ होने पावे जो भ्रभःगा वर्षाकालमें घरसे बाहर निकल पड़ा था और ऊपर घनयटल मेघको, अगल-बगलमें मोर से नाचते हुए पहाड़ोंको, तथा नीचे तुणांकुरोंसे घवल प्थ्वीको देखकर ऐसा विरह-विधुर हुआ था कि सोच ही नहीं पा रहा था कि किधर दृष्टि दे--सब तरफ तो दिलमें हक पैदा करनेवाली ही सामग्री थी :-- -उपरि घन घनपटलं तियेग्गिस्योडपि नतितमयूराः। ल्षितिरपि कन्दलघवला दृष्टि: पथिक: क्व पातयतु ? काव्य-प्रन्थोंमें यह वर्गन भी मिलता है कि राजाओं और रईसॉंकी भवन

[ १७७

दीधिका (घरका भीतरी तालाब) और क्रीड़-सरवरोंमें सदा पालतू हंस रहा करते थे कादम्वरीमें कहा गया है कि जब राजा शूद्रक सभा-भवनसे उठे तो उनको लेकर चलनेवाली वारविलासिनियोंके नृपुर-रवसे आ्राकृष्ट होकर भवन- दीधिकाक कलहंस सभागृहकी सोपान-श्रेणियोंको घवलित करके कोलाहल करने लगे थे और स्वभावतः ही ऊँची आवाजवाले गृह-सारस मेखला-ध्वनिसे उत्क- ण्ठित हो कर इस प्रकार क्रेंकार करने लगे मानों कांसेके वर्ततपर रगड़ पड़नेसे कर्णकटु आवाज निकल रही हो कालिदासने गृह-दी धिकाझंके जिन उदंक-लोल विहंगमोंका वर्णन किया है वे मल्लिनाथके मतसे हंस ही थे यद्यपि, संस्क्ृतका कवि राजहंस और कलहंसको सम्बोधन करके कह सकता है कि हे हंसो, कमल धूलिसे घूसरांग होकर इस भ्रमर-गुंजित पद्मवनमें हंसिनियोंके साथ तभी तक क्रीड़ा कर लो जब तक कि हर-गरल और कालव्याल-जालावलीके समान निविड़ नील मेघसे सारे दिछमण्डलको काला कर देनेवाला (दर्पा) काल नहीं जाता, परन्तु भवन-दीधिकाके हंस फिर भी निर्चिन्त रहेगे उन्हे किस वातकी कमी है कि वें मेधके साथ मानससरोवरकी ओर दौड़ पड़ें यही कारण है कि यक्षक वगीचेमें जो मरकत मणियोंके घाटवाली वापी थी, जिसमें स्निग्ध वैदूर्य-नाल वाले स्वर्णमथ कमल खिले हुए थे, उसमें डेरा डाले हुए हंस, मान- सरोवरके निकटवर्ती होने पर भी मेघकों देखकर वहाँ जानेके लिये उत्कष्ठित होने वाले नहीं थे उनको वहाँ किस वातकी चिन्ता थी, वे तो व्यपयत-शुच्‌ थे) यह व्याख्या ग्रतत है कि यक्षका यृह् ऐसे स्थान पर था जहाँ वस्तुत: हंस रुक जाते है। सही व्याल्या यह है, जैसा कि मल्लिनाथने कहा है, कि वर्पाकालमें भी उस वापीका जल कलूप नही होता था इसलिये वहाँके हंस निश्चिन्त थे ती और लो, तववधूकी भाँति शरद ऋत्‌ भ्रा गई। प्रसन्न है उसका चन्द्रमूख, निर्मल हैँ उसका अमस्‍्वर, उत्फूल्ल हैँ उसके कमल-नयन, लक्ष्मीकी भाँति विभूषित है वह लौला-कमलसे तथा उपश्ोभित है हंस-रूपी वाल-ब्यजन (नन्‍्हें- ) से आज जेगतका अशोप तारुप्य प्रसन्न है अद्य श्रसन्नेन्दुमुख्ली सिताम्बरा, समाययावृत्पलपत्रनेत्रा। 7 सर्पंकजा श्रीरिव गां निपेवितृं, सहंस-वाल-ब्यजना शरद्बधू: ।। “महामनुप्य शरदूवधू आई और साथमें लेती आई कादम्व और कारण्डवको, चक्र- वाक और सारसको, क्षौंच और कलहंसको आदि कविने लक्ष्य किया था (किप्किन्धा, ) कि झरदायमनके साथ ही साथ पद्म-घ लि-घुसर सन्दर और विद्याल पक्षवाले कामृक चक्रवाकोंके साथ कलहंसोंक ज्ञप्ड महानदियोक पलचों- पर खलने लगे थे। प्रसच्नतोया नदियोंके सारस-मिनादित ज्ञोतमें जिनमें कौचड

श्छ्८ ]

तो नहीं था, पर वालूका अभाव भी नहीं था--हंसोंका झुण्ड झम्प देने लगा था। एक हंस कुम्‌ द-पुप्पोंसे घिरा हुआ सो रहा था और प्रशान्त निर्मल हृदमें वहएऐसा सुशोभित हो रहा था, मानों मेघम॒क्‍त आाकाशमें तारागणोंसे वेप्टित पूर्णचन्ध्ध हो संस्कृतक कविने शरद ऋतुमें होनेवाले अख्भ परिवर्ततकों अपनी और भी अदभुत भंगीसे इस प्रकार लक्ष्य किया था कि आकाश अपनी स्वच्छतासे निर्मल नीर-सा बना हुआ है, कान्‍ता अपनी कमनीय गतिसे हंस-सी बची जा रही है और हंस अपनी शक्‍लतासे चहच्रमा-सा वना जा रहा सब कुछ विचित्र, सब कुछ नवीन, सव कुछ स्फूत्तिदायक ट््

ध्ज

घबरद ऋतु उत्सवोंकी ऋतु है कौमृदी-महोत्सव, रात्रि-जागरण, यूत- विनोद और सुख-रात्रियोंके लिये इतना उत्तम समय कहाँ मिलेगा ? शरद्‌ ऋतु बाद गीतकाल आता था परन्तु यह शीत इस देशमें इतना कठोर नहीं होता कि कोई उत्सव मनाया ही जा सके हेमन्त काल यू वक-युवतियोंकी कन्दुक ऋरीड़ा- का काल था यह कन्दुक-क्रीड़ा प्राचीन भारतका अत्यन्त सरस विनोद था और अवसर पाते ही कवियोंने- दिल खोलकर इसका वर्णन किया हूँ सुन्दर मणिनूपु- रोंके क्वणन, मेखलाकी चंचल लरोंका झणझणायित और वारबार टकरानेवाली चल चडियोंकी रुतझुनके साथकी कन्दुक-क्रीड़ामें अपना एक स्वतंत्र छन्द हैँ जो बरवस मन हरण करता होगा अमन्द मणिनूपुरक्वणनचारुचारिक्रमं, झणज्ञणितमेखलातरलतारहारच्छटम्‌ इद तरलंकणावलिविशेषवाचलितं, मनो हरत्ति सअ॒बवः किमपि कृन्दुकक्रीडितम्‌

सो, भारतवर्षकी प्रकृति अनुकल होकर भी और प्रतिकूल होकर भी सरस विनोदकी सहायता करती थी | उस दिन इस देशका चित्त जागरूक था, श्राज वह बैसा नहीं है हम उत्त कल्पलोकको आ्राइ्चर्य और संश्रभर्के साथ देखते रह जाते हैं !

&& सामाजिक और दाह्यनिक पृष्ठभूमि

समूचे प्राचीन भारतीय साहित्यमें जो वात विदेशी पाठकोंकों सबसे अधिक आइचयंमें डाल देती हूँ, वह यह है कि इस साहित्यमें कहीं भी असंतोष या

[ १७६

विद्रोहका भाव नहीं है। पुनर्जन्म और कर्मफलके सिद्धान्तोंको स्वीकार कर लेनें- के कारण पुराना भारतीय इस जगत्‌को एक उचित और सामंजस्यपूर्ण विधाद ही मानता आया है। यदि दु: है तो इसमें असच्तृष्ट होनेका कोई हेतु नहीं क्योंकि मनुष्य इस जगतमें अपने किएका फल भोगनेको आया ही है इस असन्‍्तोपके अभावने सामाजिक वातावरणकों आनन्द, उल्लास और उत्सवके अनुकूल बना दिया है यही कारण है कि भारतीय चित्त इन उत्सवोंको केवल थके हुए दिमागका विश्वाम नहीं समझता, वह इसे मांगल्य मानता है। नाच; गान, नाटक केवल मनो- विनोद नहीं है, परम मांगल्यके जनक हू, इनको विधिपूर्वक करनेसे गृहस्थके अनेक पुराक्ृत कमंसे उत्पन्न विघ्न नष्ट होते हैं, पापक्षय होता है और सुललित फलों- वाला कल्याण होता है --

माज्ूल्यं ललितइ्चैव ब्रह्मणो वदनोंद्भवम्‌

सूपृण्यं पवित्र शुभ पापविनाशनम्‌ |

(नाट्यशास्त्र ३६-७३)

क्योंकि देवता गन्धमाल्यसे उतना प्रसन्न नहीं होते जितना नाट्य और नृत्यसे होते है. (वाटयशास्त्र २६-७७) जो इस नाटबको सावधानीके साथ सुनता है या जो प्रयोग करता है या जो देखता है वह उस गतिको प्राप्त होता है जो वेदके विद्वानोंको मिलती है, जो यज्ञ करनेवालेकोी मिलती और जो गति दानशीलोंको प्राप्त होती है (चा० शा० ३६-७४-७५) क्योंकि जैसा कि कालि- दास जैसे कान्तदर्शी कह गए हैँ, म्‌नि लोगोंने इसे देवताओंका अत्यन्त कमनीय चाक्षूप यज्ञ बताया है--

देवानासिममासनन्ति मुनयः कान्‍्तं॑ करत चाक्षुपम्‌।

शायद ही संसारकी किसी और जातिने नृत्य और नाट्यको इतनी बड़ी चीज समझा हो यही कारण हूँ कि प्राचीन भारत नृत्य और नाट्यको केवल सामयिक विनोद नहीं समझता था, वह इससे कही बड़ी चीज है

यह वात कुछ विचित्र-सी लग सकती है कि यद्यपि गोष्ठी-विहार, यात्रा-

उत्सव, नट-युद्ध और नाट्य-प्रदर्शनोंको इतना महत्त्वपूर्ण प्रयोग माना जाता था फिर भी भारतीय गृहस्थ यह नहीं चाहता था कि उसके घरकी बहु-वेटी इन जलसोंमें भाग लें। कामश्ञास्त्रके आचार्यो तकने गृहस्थोंको सलाह दी है कि इन हजूमोंसे अपनी स्त्रियोंको अलग रखें पद्मश्री वासक वौद्ध कामशझास्त्रीने उद्यान-यात्रा, तीर्थ-यात्रा, नट्युद्ध, बड़े-बड़े उत्सव आदिसें स्त्रियोंकोी अलग रखनकी व्यवस्था दी है

१८० ]

उद्यानतीथेनट्युद्धसम्‌ त्सवेषु यात्रादिदेवकूलबन्धुनिकेतनेषु 'क्षेत्रेष्वशिष्ट्यूवती रतिसंगमेषु नित्य सता स्ववनिता परिरक्षणीया (नागरसर्वस्व ६-१२) परन्तुये निषेध ही इस बातके सबूत है कि स्त्रियाँ इन उत्सवोंस जाती जरूर थीं परन्तु जो लोग नाच-गावका पेशा करते थे वे बहुत ऊँची निगाहसे नहीं देखे जाते थे, यह सत्य है क्यों ऐसा हुआ, और ऊपर बताए हुए महाच्‌ झ्राद्शंसे इस- का क्या सामज्जस्य है ? वस्तुतः नाच-गात नाट्ब-रंगके प्रथोगकर्त्ता स्त्री-पुरुष शिथिल चरित्रके हुआ करते थे, परत्तु उनके प्रयोजित नाट्यादि प्रयोग फिर भी महत्त्वपूर्ण माने जाते थे पेशा करनेवालोंकी स्वतन्त्र जाति थी और जाति- प्रथाके विचित्र तत्ववादके अनुसार उतका शिथिल चारेव भी उस जातिका एक कम मान लिया गया था जब किसी जातिके कर्मका विधान स्वयं विधाताने कर दिया हो वो उसके बारेमें चिन्ता करनेकी कोई बात रह ही कहाँ जाती हैं ? इस प्रकार भारतवर्ष अम्लान चित्तसे इन परस्पर विरोधी बातोंसें भी एक साम- ञ्जस्य ढूँढ़ चुका था ! गुहस्थके अपने घरमें भी नृत्य गानका मात था इस बातके पर्याप्त प्रमाण है कि अन्तःपुरकी वधुएँ नाटकोंका अभिनय करती थी यहाँ नाठय झौर नाटचके प्रयोक्‍ता दोनों ही पवित्र और मोहनीय होते थे यही बस्तुतः भारतीय कला अपने पवित्रतम रूपमें पालित होती थी गृहस्थका ममंस्थ,नन उसका अन्तःपुर है और वह अन्तःपुर जिन दिनों स्वस्थ था उन दिनों वहाँ सु- कुमार कलाकी ख्रोतस्विती बहती रहती थी अन्तःपुरकी देवियोंका उच्छुद्धल उत्सवों और यात्राश्नोंमें जाना निश्चय ही अच्छा नहीं समझा जा सकता था परस्तु इसका मतलब यह कदापि नही समझना चाहिए कि स्त्रियाँ हर प्रकारके नाटथ रुंगसे दूर रखी जाती थी एक प्रकारका हुजूम हर यूगमें और हर देशमें ऐसा होता है जिसमें किसी भले घरकी बहु-बेटीका जाना अशोभन होता है। प्राचीन भारतके अन्तःप्रोंमें नाट्य-नृत्यका जो बहुल प्रचार था उसके प्रमाण बहुत पाए जा सकते है हमने ऊपर कुछ की चर्चा भी की है।

परिशिष्ट

[ श्री ए० बेंकट सुब्बेयाने नाना प्रस्थोंसे कलाश्रोंकी सूची तैयार की है वह पुस्तक झडयार (मद्रास) से सन्‌ १६९११ में छपी थी। पाठकोंकों कलाझोंके विषयमें विस्तृत रूपसे जाननेके लिये इस पुस्तकको देखना चाहिए। यहाँ विभिन्न प्रस्थोंसे चार फला-सूचियाँ संग्रह की जा रही हैं। तीन सूचियाँ श्री वेंकट सुब्बेयाकी पुस्तकमें प्राप्य है। चोथी भ्रन्यत्नसे ली गई है। कई स्थानोंपर प्रस्तुत लेखकने श्री बेंकट सुब्बेयाको व्यास्याश्रोंसे भिन्न व्याख्या दी है, परन्तु इन कलाओ्रोंका मूल्य श्र्थ समभतमें उनकी व्यास्याशओ्रोंसे उसे सहायता बहुत मिली है ]

ललितविस्तरकी कलासूची

ल्धितमू--कूदना प्राकचलितसू--उछलता | लिपिसुद्रागणनासंख्यासालस्भधनुवदा :--- लिपि---लेखन कला मुद्रा--एक हाथ या कभी-कभी दोनों हाथोंके द्वारा अथवा हाथकी उँगलियोंसे भिन्न-भिन्न आकृतियोंका बनाना गरणाना--गिनना, हिसाब

श्य२ ] लक

खि ही &छ # >> ०<

१० ११ श्र श्रे १४ | १६

१८ १६

२१ श्र र्३

रप्‌ २६ २७

२६ ३० ३१

संख्या

सालस्भ--कुइती लड़ना ॥॒

धनुर्वेद--धनुप-विद्या दे

जवितम्‌--दौड़ना

प्लवितम्‌-पानी में दुवकी लगाना

तरणस---तरना

इष्वस्त्रमू--तीर चलाना

हस्तिग्रीवा--हाथीकी सवारी करना *:ज

रथ:--रथसम्बन्धी बातें न्‍

धनुष्कलपः--धनुषसम्बन्धी सारी बातें

अ्रन्‍्वपृष्ठमु--घोड़ेकी सवारी

स्थेयंम---स्थिरता

स्थाम--वल

सुशौर्यंम---साहस

बाहुव्पायास्त---वाहुका व्यायाम

अ्रडकृशग्रहपाश ग्रहाः--अकुश और पाश इन दोनों हथियारोंका ग्रहण करना

उद्याननिर्माणम- ऊँची वस्तुको फादकर और दो ऊंची वस्तुके बीचसे कूदकर पार जाना

अ्पयानसु--पीछेकी श्रोरसे निकलना

मुष्टिबन्ध:--मुट्ठी और घूँसेकी कला

शिखावन्ध:--शिखा बाँघना

छेद्यम--भिन्न भिन्न सुन्दर आक्ृतियोंको काट कर बनाना

भेद्यम्‌--छेदना

तरखम्‌--नाव खेना या जहाज चलाना या तैरना

स्फालनम्‌ू--( कंदुक आदिको ) उछालनेका कौशल

श्रक्षण्णवेधित्वम्‌--भालेसे लक्ष्यवेध करना

सर्मवेधित्वमु--मर्मस्थलका वेधना

झब्दवेधित्वम्‌--शब्दवेधी वाण चलाना |

वृढ़प्रहारित्वमु---मुष्टि प्रहार-करना | प्रक्षकीड़ा--पादा फेंकना काव्यव्याकरणम्‌--काव्यकी व्याख्या करना प्रस्थरचितम्‌--अच्य-रचना

श्फ श्€ ६० ६१ दर द्रे

| 5३

रुपसू--रूप-तिर्माण कला ( लकड़ी, सोना इत्यादिमें श्राकृति वतताता ) झूपकर्म--चिन्रकारी

प्रधीतम्‌--अध्ययन करना

झरितकर्म--आग पैदा करना

वीणा--वीणा वजाना

वाद्यनृत्यमु---ताचना और वाजा वजाता

गीतपठितम--गावा और कविता-पाठ करना

शआख्यातम्‌--कहानी सुनाना

हास्यमु--मजाक करना

लास्यमू--सुकुमार नृत्य

' सादयसू--नाटक, अचुकररा-सृत्य

विडिम्बवितम--दूसरेका व्यंगरात्मक अनचुकरण, कैरिकेचर | साल्यग्रस्थनम---माला गूँथना संवाहितमु--शरीरकी मालिश | सरिराग:--वहुमृल्य पत्थरों का रंगना वस्त्रराग:--कपड़ा रंगना सायाकृतम्‌--इच्धजाल स्वप्ताध्याय:---सपनोंका अर्थ लगाना शकुनिरुतम्‌ --पक्षीकी वोली समभता स्त्रीलक्षणम्‌--स्त्रेका लक्षण जानना पुरुषलक्षराम्‌--पुरुषका लक्षण जानना | अदइवलक्षणम्‌--घोड़ेका लक्षण जानना हस्तिलक्षएस्‌--हाथीका लक्षरा जानता गोलक्षणम्‌--गाय, बैलका लक्षण जानना अजलक्षणम्‌--बकरा, वकरीका लक्षण जानना मिश्रवितलक्षरम्‌---मिलावट पहचानने की या भिन्न-भिन्न जत्तुग्रोंके पहचाननेको कला | क्ैटभेर्वर लक्षसम्‌--लिपि विशेष निर्घेप्दु:--कोष निगम:--श्रुत्ति पुराणम्‌--पुराण इतिहास:---इतिहास वेदा:---वेद

१८४ ]

+.॥ ६५ ६७ द्प ६६ छ0 ७१ ७२ छ्ड

ज्र्‌ ७६ छ्८ ७९ च0 प्‌ छर धरे डे ८५ पद

व्योकिरणर्मु--व्याकरण

निरुक्तमु-निरुक्त

शिक्षा--उच्चा रण विज्ञान

छुन्द--छन्द | हट

यज्ञकल्प:--यज्ञ-विधि

ज्योतिः---ज्योतिष

सांख्यम---सांख्यदर्शन

योग:---योगद्शत

क्रियाकल्प:---कांव्य और अलंकार

वेशेषिकम्‌--वैद्येषिक दशेच

वेशिकम्‌--कामसूत्र के अनुसार वैशिक विज्ञानका प्रणयन दत्तक वामक आचायेने पाठटलिपुत्रकी वेश्याश्रोंके अनु रोधसे किया था

प्रथंविद्या--राजनीति और अर्थशास्त्र

बाहुँस्‍्पत्यमू--लोकायत मत

श्राहचर्यमु--?

श्रासुरम--असुरों सम्बन्धी विद्या |

मृगपक्षिस्तम्‌--पश्ु पक्षीकी बोली समझता

हेतुविद्या--न्याय-दर्शान

जतुयन्त्रमू---लाख के यन्त्र बनाना

मघूच्छिष्टकृतम--मोम का काम

सुचीकर्म--सुईके काम

दिदलकर्म--दलों या हिस्सोंको अलग कर 'देनेका कौशल

पत्रच्छेच्यमू--पत्तियोंको काट-छाँटकर विभिन्न आकृतियाँ बनाना

गन्धयुक्ति--कई द्रव्योंके मिश्रण से सुगन्धि तैयार करना

२्‌

[ १८४

वात्स्यायन

>4 ०6 0 “०

१३ श्ड

श्र

१६ श्छ श्द

गोतम्‌ू--आना !

वाद्यमु--वाजा वजाना

नृत्यमू--नाचना

झलेख्यमु--चित्रकारी

विशेषकच्छेद्यमु-- (दे० ल० वि० ८५ )

तण्डुलकुसुमवलिविकारा:---पूजा के लिए श्रक्षत श्रोर रंग-विरंगे फूलोंका सजाना

पुष्पतस्तरणम्‌--धर या कमरेकों फूलोंसे सजाना

ददानवसनाड्ू राग :---हरीर, कपड़े और दाँतोंपर रंग चढ़ाना

सरियभूमिका करमें--गच में मरिए वैठाना

दइबनरचनम्‌--शय्याकी रचना |

उदकवाद्यमू--पानीको इस प्रकार वजाना कि उससे मुरज नामक बाजेकी आवाज निकले हे

उदकघात ;---जल-करीड़ामें सखियों या प्रेमियोंका आपसमें जलके छीटेकी मार देना

चित्रयोंगा :--विचित्र औषधियोंका प्रयोग जानना

साल्यग्रथतविकल्पा :--विभिन्न प्रकारसे फूल गूँथता

शेखरकापीडयोजनम्‌--शेखरक और अपीडक--सिरपर पहने जानेवाले दो माल्य-अलंकारोंका उचित स्थानपर धारण करना

नेपथ्यप्रयोगा :--अपनेको या दूसरेको वस्त्रालंकार आदिसे सजाना

कर्ापत्रभद्भः--हाथी दाँतके पत्तरों श्रादिसे कानके गहने बनाना

गन्वयुक्षि:---ल० घवि० ८६)।

१८६ |]

१६ २० ३१

२२ श्३े र््‌ढं

श्५ रद २७ रद र्६ ३० ३१ श्र शेर ३४

2 ३६ ३७ शेप

'३४ डर डरे

ड४ड

- डेप

भूषरायोजवस्‌--महना पहनना

ऐन्रजालायोगा :--इच्धजाल करना

फौचुसमारयोगा :--शरीरावयवोंको मजबूत और विलासयोग्य वनानेकी कला डे

हस्तलाघवम्‌--हाथकी सफाई

विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकारक्रिया--साग भाजी बनाने का कौशल। __

पानकरसरागासवयोजनसू--भिन्न-भिन्न प्रकारका पेय (शर्बंतमद वगरह) तैयार करना

सूचीवानकर्मा रिप ->सीना, पिरोना, जाली बुन्तना इत्यादि

सूत्रक्रीडा--घर, मन्दिर आदि विशेष आकृतियाँ हाथमेंके सूतेसे बना लेता

वीसणाडमरुकवाद्यानि---वीणा, डमरू तथा.अन्य बाजे बजाना |

प्रहेलिका--पहेली

प्रतिमाला--

दुर्वाचक योगा ४-- (दे०्, पृ० श्४३-५) -

पुस्तकवाचनम्‌--पुस्तक पढ़ना।

नाटकाख्यायिकादर्शनम्‌--नाटक, कहानियों का ज्ञान

फाव्यसमस्पापूरणम्‌--समस्यापूर्ति

पट्टिकावेत्रवानविकल्पा :--बेंत और बाँससे नाना प्रकारकी वस्तुओंका

| निर्मारण

तक्षकर्मारिस---सोने चाँदीके गहनों और बतंनोंपर काम करना

तक्षराम्‌--बढ़ईगरिरी

वास्तुविद्या - गृहनिर्माण कला, इंजीनियरिंग डे

रूप्यरत्नपरीक्षा--मरियों झौर रत्नोंकी परीक्षा

धातुवाद :--धातुओं को मिलाना, शोधता

मरिपरागाकरज्ञानमु--रत्नोंका रंगना और उनकी खनिश्नोंका जानना

वृक्षायुवेंदयोगा :--वृक्षोंकी चिकित्सा और उन्हें इच्छानुसार बड़ा छोटा बना लेनेकी विद्या

समेषकुक्कुटलावक-युद्धविधि :--मेंड़ा, मुर्गा और लावकोंका लड़ाना

शुकसारिकाप्रलापवसम्‌---सुग्गा-मैनोंका पढ़ाना

उत्सादले संवाहने फ्रेशसर्दवे कौशललमू--शरीर और सिरमें मालिश करना

सक्षरमुष्टिकाक्थनमू---संक्षिप्त अक्षरोंमें पूरा अर्थ जान लेना जैसे मे० बु० सि०--मेष, वृष, मिथुत

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[ १८७

स्लेच्छितविकत्पा :---पुप्त भाषा-विज्ञान

देशभाषाविज्ञानमु--विभिन्न देशकी भाषाओं का ज्ञान

पुष्पश्कटिका--फूलों से गाड़ी घोड़ा आदि बनाना

निमित्तज्ञानमु--शकुन ज्ञान हु

पल्ममातृका--स्यंवह यन्चोंका बनाना

धारणमातृका--स्मरण रखनेका विज्ञान

सम्पादयम्‌--किसीके पढ़े इलोककों ज्योंका-त्यों दुहरा देना

सानसी-- [दे० पृ० १४४)

काव्यक्षिया--काव्य बनाना

प्रभिधानकोश छुन्दोविज्ञानमम--कोश छन्द आदि का ज्ञान

क्रियाकल्प :--(ल० वि० ७२)

छुलितयोगा :--वेश वाणी आ्रादि के परिवतेनसे दूसरोंको छलना-- वहुरूपीपव

बस्त्रगोपदानि--छोटे कपड़ेको इस प्रकार पहनना कि वह बड़ा दीखे और बड़ा, छोटा दीखे

झूतविशेषा :--जुआ

श्राकर्ष करीडा--पासा खेलना

वालक्रौड़नकानि--ल ड़कोंके खेल, गुड़िया झ्रादि

वेत्यिकीनां विद्यातां ज्ञानमु--विनय सिखानेवाली विद्या

वैजयिकीनां विद्यानां ज्ञानम--विजय दिलानेवाली विद्याएँ।

व्यायामिकीना चिद्यातां ज्ञानमु--व्यायाम-विद्या

शुकरतीतिसार

हावभावादिसंयुक्‍तनर्तनमू--हाव भावके साथ नाचता

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१२ १३ १४ श्प १६ हु है १८ १६

२० २१

झनेकवाद्यविकृतों तद॒वादने ज्ञानम--आरकेस्ट्रामें अनेक प्रकारेके वबाजे बजा लेना

स्‍्त्रीपुंसो: वस्त्रालंकारसन्घावम्‌ु--ल्‍्त्री और पुरुषोंको, वस्त्र-अलंकार पहना सकता

अनेकरूपावि्भावकृृतिज्ञानमु--पत्थर काठ आदिपर भिन्न-भिन्न ग्राकृतियों

का निर्माण शब्यात्तरणसंयोगपुष्पादिग्रथवम्‌ू--फूलकी हार यूंघतना और दब्या सजाना चूताद्रवेकक्नीडासी रूम्लतम्‌--जुआ इत्वादिसे मतोरंजन करना अनेकासनसन्धाने रतेज्ञावमु--कामशास्त्रीय आसनों आदिका ज्ञान सकरन्दासतवादीनां मच्चादीतां कृति :--भिन्न-भिन्न भाँति के शराव बना सकना शल्यगूढाहतो तिराष्रणव्यघे ज्ञानमू--शरीरमें घुसे हुए शल्य आदि शस्त्रोंकी सहायतासे निकालना, जर्राही हीवादिरससंयोगान्नादिसम्पाचनम्‌--नाना रसोंका भोजन वनाना वृक्षादिप्रसवारोपपालनादिक्षति:--पेड़ पौधोंकी देख भाल, रोपाई, सिचाईका ज्ञान पाषाणधात्वादिदृतिभस्मकरणमस्‌-- पत्थर और घातुओंका गलाना तथा ; भस्म बचाना यावदिक्षविंकाराणां कृतिज्ञाचम--ऊख रससे मिश्री, चीनी आदि भिन्न- हर भिन्न चीजें वनाना घात्वोषघीनां संयोगक्तियाज्ञानमू---घातु और औपधोंके संयोंगसे रसा- यनोंका बनाना घातुसाडूस्येपार्थकयकररणम्‌--घधातुओंके मिलाचे और अलग करनेकी ,.. विद्या घात्वादीनां संयोगापुर्ंविज्ञानमू--धातुओंके नये संयोग वनाना क्षारनिष्कासनज्ञानमु---खार वनाना पदादिन्यासतः झस्त्सन्धाननिक्षेप :---१र ठीक करके घनुष चड़ाना और वारा फेंकना सन्ध्याघाताइष्दिभेदे: घल्‍लयुद्धमु--त रह-तरहके दाँव-पेंचके साथ कुश्ती लड़ना अभिल क्षिते देशें यन्चाद्यस्त्रतिपातवम्‌--झस्त्रों को निशाने पर फेंकना। वाद्यसंकेततो व्यूह्रचनादि--वाजे के संकेत से सेना-ध्यूहका रचना

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२७ श्८

२६

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३२ ३३ ३३४ ३५ ३६ ३७ ड्रद रे६

४२ ४३ है. ४५

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गजाइवरथगत्या तु युद्धसंयोजनम्‌--हाथी घोड़े या रथ से युद्ध करता विविघासनमद्रातिः देवतातोषणम्‌--विभिन्न भ्रासनों तथा मुद्रात्रोंके द्वारा देवताको प्रसन्न करना सारथ्यमू--रथ हॉकना भजाइवादे गतिशिक्षा--हाथी घोड़ों को चाल सिखाना मत्तिकाकाष्ठपाषाणघातुभाण्डादिसित्किया --मिट्टी, लकड़ी, पत्थर और बतेन बनाना-। चिन्नाद्यालेलनमु--चिंत्र बताना तढाकवापीप्रसादसमभूमिक्रिया-कुँशा, पोखरे खोदता तथा जमीत बराबर धातुओंके करना घटयाद्यनेकयस्त्राणां वाद्यानां कृति:--वाथ-यंत्र तथा पनचककी जैसी ;॒ मशीनोंका वनाना हीनसध्यादिसंयोगवर्साद् रझजतम्‌--रंगों के भिन्न-भिन्न मिश्रणसे चित्र रंगना जलवाग्वग्निसंयोगरनि रोबे: क्रिया--जल, वायु अ्रग्ति को साथ मिलाकर और श्रलग-अलग रखकर कार्य करना, इन्हें बाँधना नौकारथादियानानां कृतिज्ञावमु--तौका रथ आदि सवारियोंका बनाता सुत्नादिरज्जुकरणविज्ञानमु--सूत और रस्सी बनाने का ज्ञान अमेकतन्तुसंयोग: पटबन्ध:--सूतसे कपड़ा बुनना रत्नानां वेधादिसदसज्ज्ञानमु--रत्नोंकी परीक्षा, उन्हें काटना छेदना आदि। स्वर्रादीनास्तु याथार्थ्यविज्ञानमू--सोनेके जाँचनेका ज्ञान क्ृत्रिमस्वर्ण रत्तादिक्रियाज्ञानमु--वनावटी सोना रत्न श्रादि बनाना स्वर्शाद्यलड्भगरक्ृति:--सोने आदिका गहना बनाना लेपादिसस्कृति:--मुलम्मा देना, पानी चढ़ाना चर्मणां मार्दवादिक्रियाज्ञानमू--चमड़ेको नर्म बनाना पश्चुचर्माड्रनिर्हा रज्ञामम--पशुके शरीरसे चमड़ा मांस आवदिको अलग कर सकना दुग्धदोहादिधृतान्तं विज्ञायमु--दूध दुहता श्रोर उससे घी निकालना फडज्चुकादीनां सीवने विज्ञानम्‌--चोली आदिका सीना जले बाह्वादिभिस्तरणम्‌--हाथकी सहायता से तैरता गृहभाण्डादे्माज ने विज्ञानमु--घर तथा घरके बर्तनोंको साफ करनेमें निपुणता

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वस्त्रसंभाज॑ंनम्‌--कपड़ा साफ करना

क्षुकर्म--हजासत बनाना

तिलमांसादिस्नेहानां निष्कासने कृति :--तिल और मांस आदिसे तेल निकालना

सीराद्याकर्षणे ज्ञानमु-खेत जोतना, निराना आदि

वक्षाद्यारोहणे ज्ञानमू--वृक्षपर चढ़ना !

भनोनुकूलसेवाया: कृतिज्ञानम्‌--अनुकूल सेवा द्वारा दूसरोंको प्रसन्न करना।

वेणुत्रादिपात्राणां कृतिज्ञानमू--बाँस, नरकट शआादिसे बतेंन आदिका बना छेना

काचपात्रादिकरस्पविज्ञानम--शीशेका बतंन बनाना

जलानां संसेचनं संहरणम्‌--जल लाना और सींचना

लोहाभिसा रहस्त्रास्त्रकृतिज्ञानम्‌ -धातुओंसे हथियार बनाना

गजाइवृषशोष्ट्राणां पलल्‍्याणादिक्रिया--हाथी, घोड़ा, बैल, ऊँट श्ादिका

जीन, चारजामाशोंका हौदा बनाना

शिशोस्संरक्षणंं घारणे क्रीड़ने ज्ञानम--वच्चोंको पालना और खेलाना )

अ्रपराधिजनेसु युक्तताडनज्ञानमू--अपराधियोंकी ढंगसे मरम्मत करना

नानादेशीयवर्णानां सुसम्यग्लेखने ज्ञानम--भिन्‍न-भिन्‍व देशीय लिपियोंका लिखना

ताम्बूलरक्षादिकृतिविज्ञानम--पानके बीड़े बताने की विधि

शआरादानम्‌ू--कलाममंज्ञता !

शआाशुकारित्वम्‌--शी क्र काम कर सकना

प्रतिदानमु--कलाओोंको सिखा सकना

विरक्रिया--देर-देरसे काम करना

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. प्रबन्धकोद

[ १६६१

[इनका भ्र्थ स्पप्ट है जो विशेष हैं, उतकी व्याख्या पिछली सूचियोंमें है ]

लिखितम्‌

गरितम्‌

गीतम्‌

नृत्यप््‌

पठितम्‌

वाच्रम्‌

व्याकरणम्‌ छन्दः

ज्योतिषम्‌ १० शिक्षा

११ निरुवतम्‌ १३ फात्यायनस्‌ १३ चिधष्दु १४ पत्रच्छेद्रम १५ नलच्छेद्यम्‌ १६ रतपरीक्षा १७ प्रायुधास्यासः १८ गजारोहराम्‌ १६ तुरगारोंहराम्‌ २० तपःरशिक्षा २१ भच्त्रवादः

२२ यब्त्रवादः २३ रसवादः २४ खन्यवादः २५ रसायनम्‌ २६ विज्ञानम्‌ २७ तकेंबादः र८ सिद्धान्तः २६ विषवादः ३० गारुडम ३१ शाकुनम्‌ ३२ वेद्यकम्‌ ३३ श्राचार्य विद्या ३४ श्रागमः ३५ प्रासादलक्षणम्‌ १३६ सामुद्रिकम्‌ ३७ स्मृतिः

रे८ पुराणम्‌ ३६ इतिहासः ४० वबेंदः

४१ विधि: | ४२ विद्यानुवादः

१९२ ]

४३ दद्दोनसंस्कारः ४४ खेचरीकला ४५ भ्रामरीकला ४६ इन्द्रजालम्‌ ४७ पातालसिद्धि: ४८ धुृत्तशम्व॒लम्‌ ४९ भन्धवादः

४० वृक्षचिकित्सा ५१ कृत्रिम सरिकर्म ध२ सर्वकरणी ५३ वहयकर्म

प्४ परपकर्म

५५ सुचित्रकर्स प६ काष्ठघटनकमः ५७ पाषाणकर्मे

4] 4 ६० ६१ प्र दे द्ड श्र ६५ द्ष ९६ ७१ ७२

लेपकर्स चरमकर्स यन्त्रकरसब्ती काव्यम्‌ शलडूगरः हसितम्‌ संस्कृतम्‌ प्राकृतम्‌ पेशाचिकम्‌ अपभ्रंशस्‌ कपठम्‌ देशभाषा धातुकर्म प्रयोगोपाय केंवलिविधि:

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